विनीता यशस्वी
‘खतड़ुवा’ कुमाऊं का एक पारम्परिक त्यौहार जिसे आश्विन मास की प्रथम तिथि या १५ सितम्न्बर के आस पास मनाया जाता है। यह भी माना जाता है कि ‘खतडुवा’ से सर्दियों की शुरूआत हो जाती है। कहा जाता है कि खतड़ुआ शब्द “खातड़ि” से ही बना है जिसका कुमाउंनी अर्थ है रजाई और खतडुवा से पहाड़ों में लगभग रजाई ढकना शुरू हो जाता है।
इस त्यौहार में किसी विशेष प्रकार की पूजा नहीं की जाती है। गांवों में बच्चे सूखी लकड़ियों और सूखी घास को एकत्र करके तो शहरों में घरों से काम न आने वाला कूढ़ा इकट्ठा करके किसी चैराहे में खतडुवे का पुतला बनाते हैं। शहरों में अब खतडुवे को बुराइयों का प्रतीक मान के उसे समाज में फैली समसामयिक समस्याओं की शक्ल भी दी जाने लगी है।
सूर्यास्त के बाद लोग एक मशाल बनाकर उसे जलाते हैं और फिर उसे घर, गौशालाओं और परिवारजनों के ऊपर घुमा कर उस ही से खतडुवे के पुतले को जला देते हैं।
खतड़ुवा के जलते ही सब चिल्लाने लगते हैं ‘चल खतड़ुवा धारे-धार, गै की जीत खतड़ुवे की हार’ जिसका अर्थ है गाय की जीत हो और खतड़ुवे की हार हो। सभी आग के चारों ओर यही चिल्लाते हुए चक्कर लगाते हैं। यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि आग शान्त नहीं हो जाती। जैसे ही आग शान्त होती है, उसे हरी लकड़ी की डालियों से पीटते हैं और फिर ककड़ी काट के उसका एक हिस्सा इस आग में डाल कर बांकी को सभी में बाँट दिया जाता है। इस जली हुई आग को एक बार लांघा जरूर जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से सर्दियों में सर्दी कम लगती है।
इस आग के कोयलों को सब अपने घरों में भी ले जाते हैं जिसे घर के कोनों और गौशालाओं में रख दिया जाता है। ऐसा करने से पशु एवं परिवारजन बिमारियों से मुक्त रहते हैं। खतडुवे के दिन पशुओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है। ग्रामीण अंचलों में तो लोग गाय के आगे उसकी ऊँचाई से ज्यादा घास का ढेर लगा देते हैं जो इस ओर भी इशारा करता है कि अब शीत ऋतु आने वाली है इसलिये चारा और लकड़ी इकट्ठा करनी शुरू कर दी जाये। खतड़ुवा की राख उन सभी बुराईयों और बिमारियों के अंत का प्रतीक है जिसके लिये मशाल को खतड़ुवा जलाने से पहले घरों और गौशालाओं में घुमाया गया था।
घुमक्कड़ी और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी नैनीताल समाचार की वैब पत्रिका ‘www.nainitalsamachar.org’ की वैब सम्पादक हैं।