राजीव लोचन साह
सारी उम्मीदें एकबारगी जैसे चकनाचूर हो गईं।
भारत के 72वें गणतंत्र दिवस के दिन जैसे-जैसे दिल्ली के आई.टी.ओ. और लालकिले से किसानों के उपद्रव के दृश्य दिखाई देने लगे, दिमाग वैसे-वैसे ही जड़ होता चला गया। लगा जैसे सब कुछ खत्म हो गया है! कोई उम्मीद नहीं बची।
इस किसान आन्दोलन से बड़ी उम्मीदें थीं। यह महज खेती-किसानी नहीं, देश बचाने का आन्दोलन था। 1990 के दशक से ही, जब प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव और वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने मिल कर देश में आर्थिक उदारीकरण का रास्ता खोला था, तब से देश की दुर्गति देख रहा हूँ। देखता रहा कि जो स्वास्थ्य और शिक्षा सामान्य आदमी को निःशुल्क प्राप्त थे कैसे उन्हें सुनियोजित ढंग से उसे पकड़ से बाहर किया गया। खुदरा व्यापार और खेती-किसानी को किस तरह नष्ट किया गया। खाने के नमक को सोने जैसा बेशकीमती बना दिया गया और पीने का पानी बाजार से खरीदने की वस्तु हो गया। स्थायी नौकरियाँ खत्म कर काण्ट्रैक्ट का रिवाज शुरू कर दिया गया।
‘आजादी बचाओ आन्दोलन’ से अपनी सम्बद्धता के कारण इस षड़यंत्र को मैं समझता रहा और जहाँ-जहाँ इसका विरोध होता, वहाँ पहुँचने की कोशिश करता या कम से कम अपना समर्थन तो देता ही। आर्थिक उदारीकरण के खिलाफ छोटे-बड़े आन्दोलन होते रहे, खत्म होते रहे मगर इतना बड़ा आन्दोलन आज तक नहीं हुआ। अब तक की सभी सरकारों ने 1991 में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण का एजेंडा ही आगे बढ़ाया। मगर पूर्ववर्ती सरकारों में थोड़ी हया बची थी, वे इस एजेंडे को बढ़ाने के लिये दो कदम आगे बढ़ातीं। सफल हो जातीं तो ठीक, अगर विरोध ज्यादा तेज होता तो एक कदम पीछे भी खींच लेतीं। बीच-बीच में जनता को लाॅलीपाॅप जैसा भी कुछ थमाती रहतीं। मनमोहन सिंह की पिछली सरकार ने तो मनरेगा, वन अधिकार कानून और सूचना का अधिकार जैसे कुछ महत्वपूर्ण काम भी कर दिये।
अब यह जो सरकार आई है, वह निहायत जिद्दी है। वह बेशर्मी के साथ निजीकरण का एजेंडा बढ़ा रही है, ‘जो चाहो कर लो’ वाली धमकी के अंदाज में। मीडिया के साथ मिल कर उसने काॅरपोरेट और हिन्दुत्व का एक कारगर घालमेल भी सफलतापूर्वक कर लिया है, जिसकी मदद से उसे अपना काम करने में आसानी हुई है। जन सामान्य मंदिर, लव जिहाद, तीन तलाक, पाकिस्तान और गोरक्षा जैसे मुद्दों पर उलझा रहता है और सरकार देश की सारी सम्पत्तियाँ आराम से बेच ले रही है। क्या-क्या नहीं बेच डाला गया है, इन छः सालों में ? गोदी मीडिया की बेमतलब बहसें सुनने में व्यस्त जनता का ध्यान भी उस ओर नहीं है। ऐसे हालात में जब मोदी सरकार ने कोरोना महामारी की आपदा को अवसर में बदल कर धोखाधड़ी और जोर-जबर्दस्ती से तीन कृषि कानून पारित कर दिये तो यह उम्मीद कतई नहीं थी कि इसका कोई विशेष विरोध होगा। यही लगता था कि औपचारिक रूप से छोटी-मोटी बयानबाजी होगी, शायद हल्का-फुल्का विरोध भी हो जाये। मगर ऐसा अभूतपूर्व आन्दोलन, जैसा आजादी के बाद के पिछले 73 सालों में नहीं हुआ, खड़ा हो जायेगा ऐसी उम्मीद दो महीने पहले किसे थी ? मगर इन दो महीनों में किसानों ने भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम पृष्ठ जोड़ दिया है। इतना विशाल, मगर इतना अनुशासित आन्दोलन! बूढ़ा मन उम्मीद से लहलहाने लगा। पूरा ध्यान राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर केन्द्रित हो गया कि देखें आगे क्या होता है। कितने सफल होते हैं किसान ? अगर तीन किसान कानून वापस हो गये तो आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की इस विनाशकारी प्रक्रिया में भी ब्रेक लगेगा। अन्यथा तो यह रास्ता जिधर जा रहा है, वहाँ तो अगले कुछ सालों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी खत्म हो जायेगी। फूड काॅरपोरेशन के गोदाम निजी हाथों में दिये गये तो फिर गरीब आदमी के लिये सस्ते राशन की दुकानें भी नहीं रहेंगी। गाँव तबाह होंगे, वहाँ से पलायन करने वालों के लिये शहरों में रोजगार नहीं होंगे और सर्वत्र तबाही ही तबाही होगी।
आन्दोलनरत किसानों की ओर से जब गणतंत्र दिवस को ट्रैक्टर रैली का कार्यक्रम आया तो उत्साह और बढ़ा। दो महीने जिस धैर्य और अनुशासन से दिल्ली की सरहदों पर बैठे हैं किसान वही धैर्य और अनुशासन तो गणतत्र दिवस पर दिखाई देगा। हैरान रह जायेगी दुनिया भारत के किसानों की ताकत से और किसान अपनी लड़ाई में दो कदम और आगे बढ़ जायेंगे।
26 जनवरी 2021 को सुबह से ध्यान टँगा था किसानों की ट्रैक्टर रैली पर। इस विशेष दिन के जो कार्यक्रम थे, उन्हें रद्द कर रैली के समाचारों पर चिपका रहा। मगर हतभाग्य, ये क्या हुआ ?
दिमाग जड़ हो गया। शाम तक घोर हताशा में पड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे दिमाग का कोहरा छँटा। यह उपद्रव किसानों की ट्रैक्टर रैली का समूचा सत्य है क्या ? दो लाख ट्रैक्टर और 20 लाख लोग दिल्ली के भीतर आये। वे सब बेकाबू हो जाते तो दिल्ली सम्पूर्ण विनाश से बच पाती क्या ? नादिरशाह द्वारा की गई दिल्ली की लूट का मंजर होता। मगर कहीं दुकानें नहीं लूटी गईं, कहीं लोग घरों में नहीं घुसे, कहीं किसी की निजी सम्पत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाया गया, कहीं महिलाओं से अभद्रता नहीं हुई। पुलिस के साथ आन्दोलनकारियों की इस तरह की मुठभेंड़ें तो दिल्ली में न जाने कितनी बार हुई हैं। कितने ही दंगे हुए। जरा 1984 का सिख नरसंहार याद करें। पिछली फरवरी में सत्ताधारी दल के उकसावे पर इससे कहीं ज्यादा उपद्रव हुए, जो कई दिनों तक चलते रहे।
इस बार तो दिल्ली में कोई तनाव ही नहीं था। दिल्ली की जनता अपने यहाँ पधार रहे मेहमान किसानों का स्वागत कर रही थी। उसने किसानों पर फूल बरसाये, उन्हें खाना खिलाया, मिठाई, बिस्किट और ग्लूकोज दिये। वह सब कुछ टी.वी. चैनलों के लाईव टेलीकास्ट में देखने को नहीं मिला। उन्होंने दिखाया सिर्फ पाँच-दस हजार उपद्रवियों की करतूतों को। बाकी 99.5 प्रतिशत किसान किस तरह से शान्तिपूर्वक ट्रैक्टर रैली पूरी कर अपने नेताओं की एक हाँक पर वापस अपने ठिकानों पर लौट आये, यह दिखाना उनकी प्राथमिकता में नहीं रहा। लालकिले और कुछ अन्य स्थानों की शर्मनाक घटनायें ही उनके सामने रहीं, हालाँकि अब लालकिले की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के अपराधियों के चेहरे भी साफ हो गये हैं। पंजाबी फिल्मों का एक अभिनेता दीप सिद्धू किस तरह युवाओं को भड़का कर लालकिले तक ले गया, इसकी सूचनायें अब खूब वायरल हो रही हैं। भला हो छोटे-छोटे न्यूज चैनलों का कि यह अब कोई रहस्य नहीं रहा है कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के साथ फोटो खिंचवाने वाला दीप सिद्धू जिस संगठन के साथ था, उसका संयुक्त किसान मोर्चा से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा है। यह सवाल भी उठ रहा है कि गणतंत्र दिवस पर तो लालकिला एक किले की तरह अभेद्य कर दिया जाता है, जिसे सिर्फ टैंक या तोपों से भेदा जा सकता है। इस बार ऐसा क्यों नहीं हुआ ? अब दिल्ली पुलिस सिद्धू को गिरफ्तार न कर किसान नेताओं के खिलाफ एफ.आई.आर. कर रही है तो साफ है कि यह आन्दोलन को तोड़ने की सरकार की एक शातिर चाल थी, जिसमें उसे काफी हद तक सफलता मिल गई है।
बहरहाल, उदासी किसानों में भी है और उनसे सहानुभूति रखने वालों में भी। अनेक किसान धरने से लौटने लगे हैं। एक-दो संगठनों ने संयुक्त किसान मोर्चा से अपने आप को अलग कर लिया है। अब सारा दारोमदार किसान नेताओं पर है कि आन्दोलन पर हुए इस जबर्दस्त प्रहार के बाद वे कितनी सूझ-बूझ दिखा सकते हैं। इस झटके से वे उबर गये और आन्दोलन को वापस पटरी पर ले आये तो उम्मीद अभी भी बनी रह सकती है। जैसा शुरू में कहा कि यह आन्दोलन सिर्फ किसानों का नहीं है, यह देश बचाने का आन्दोलन है। यह टूटा तो देश पूरी तरह काॅरपोरेट गुलामी में चला जायेगा और अगले पचास साल तक वहाँ से वापस लौटने की कोई सम्भावना नहीं बचेगी।