जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
अस्कोट आराकोट अभियान के तहत दस साल पहले मैं अपने कुछ साथियों के साथ रिस्पना नदी के जलागम क्षेत्र भ्रमण पर था. तब हमने रिस्पना के उद्गम झड़ी पानी, भट्टा फाल, के साथ पूरी रिस्पना नदी का भ्रमण किया था. यात्रा का अंत सुसुवा नदी धुधली में समापन हुआ था. इस बार टुकड़ों – टुकड़ों में यात्रा हुई, माल देवता के घराटों की विरासत व नहरों के जाल को ध्वस्त होते देखा. अचानक इन दस सालों में खेतों मैं कंक्रीट के जंगल उग आये है. यात्रा के साथी भरत पटवाल, नितेश थापा, महमूद पठान और अंजुम के साथ विचार विमर्श हुआ कि इस बार की यात्रा का विस्तार टिहरी की ऐतिहासिक सकलाना पट्टी व रिस्पना का विस्तारित जलागम क्षेत्र सुरकंडा तक किया जाए.
तय समय के अनुसार माल देवता से आगे कद्दुखाल की सड़क का रुख किया. कोख्लियाल गांव, डंडा गांव, ग्वाली डंडा, दुबरी, रिंगालगढ़, हटवाल गांव, नवागांव, जार गांव, उनियाल गांव, खुरैत, सौर, पुजाल्डी, धुन्गाली, कख्वारी, सेमवाल गांव, मंज गांव आदि इस इलाके मे फैले हुए है. बांदल नदी का यह इलाका सहस्त्रधारा के प्रसिद्ध पर्यटक स्थल के रूप में भी जानते है. यहाँ बादल फटने की घटनाएँ बहुत देखी गयी है जो जन धन की बड़ी हानि करता रहा है. फिर भी लोग घर, मकान, होटल यहाँ तक कि स्कूल भी नदी से सटकर बनाते जा रहे है.
90 के दसक तक यहाँ पायरेट – फास्पेट व लाइम स्टोन की खदाने बड़ी मात्र में थी. इसी दसक के अंत, जब यहाँ खुदाई अंतिम दौर में थी इस लेखक ने खदानों की सुरंगों के अन्दर जाकर मजदूरों को संकरी सुरंगों में खुदाई करते देखने का अनुभव लिया था. माल देवता से ही होटल व रिसोर्ट का सिलसिला सुरु हो गया. सड़क के ऊपर नीचे जहाँ देखो होटलों का अंदाधुंद निर्माण हो रहा है. ताज्जुब की बात ये है कि ये इलाका बेहद भीहड़ व पानी को तरसता इलाका है. टैंकरों से पानी लाकर निर्माण कार्य हो रहे है. सकलानीयों के प्रसिद्ध गांव हवेली दूसरे जलागम में होने के कारण वहां जाने का समय नहीं मिला पाया, सुखद ये की वृक्ष मानव स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विश्वेसर दत्त सकलानी के नाम पर माल देवता कद्दुखाल सड़क का नामकरण होने से, पर्यावरण संरक्षण में कम से कम नई पीढ़ी उनके योगदान को याद तो कर सकेगी.
सकलाना पट्टी बहुत ही बीहड़ है. केवल हवेली – पुजारगांव के आस पास ही गांवों की लम्बी श्रृंखला है. यहाँ गधेरे पर पानी होने से लोगों ने सब्जी के उत्पादन को रोजगार का अच्छा जरिया बना दिया है. इसके साथ मसूरी धनोल्टी देहरादून जुड़े होने से इस इलाके में होटल व रिसॉर्ट्स की भरमार हो गयी है. स्थानीय लोग भी होम स्टे बना रहे हैं पर अधिकांश बड़े होटल स्थानीय लोगों के नहीं है. होटलों की निर्माणाधीन श्रृंखला जहाँ–तहां देखने को मिलती है. कहानी फिर वही पानी से पूरी सकलाना पट्टी झूझती दिखाई देती है. पाठकों को याद होगा की टिहरी राज को भारत में विलय के प्रसिद्ध आन्दोलनकारी नागेन्द्र सकलानी यहीं के रहने वाले थे, राज विद्रोह के आन्दोलन में श्रीनगर के पास कीर्तिनगर में नागेन्द्र सकलानी व भोलू भरदारी शहीद हो गए थे. आन्दोलन के रहते राजशाही ने मार्कंडेय थपलियाल के नेतृत्व में गिरफ्तारी का आदेश दिया था व सकलाना पट्टी के लोगों पर 13 हजार रुपये का सामूहिक जुर्माना लगाया था. विद्रोह स्वरुप राजा के सैनिकों को तब गांववालों ने मंझगांव–अखोड़ी में गिरफ्तार कर दिया था. उस दौरान क्यारा गांव में सारे सकलाना जागीरदारी के गांवों की शरणगाह बनाया गया था. अब सकलाना के अधिकांश गांवों तक सड़क जरुर पहुँच गयी है लेकिन गांव खाली हो चुके है. उनियाल गांव से अब बांज बुरांश का जंगल शुरु हो जाता है. उत्तरांचल पत्रिका के संपादक सोमवारी लाल उनियाल इसी गांव के निवासी है. श्री उनियाल जी यहाँ के ब्लाक प्रमुख व झुझारू समाजसेवी रहे है. वे प्रबुद्ध संपादक, लेखक, कवि व राजनेता है और आज भी समाज के विकास के लिए सक्रीय रहते हैं.
सकलाना इलाके का भ्रमण करते हम धनौल्टी – चंबा मार्ग पर कद्दुखाल पहुंचे. घने देवदार के जंगल सकून दे रहे थे. नीचे के इलाके के सारे जंगल आग की भेंट चढ़ चुके थे. कहीं–कहीं अभी भी जंगलों से धुंआं उड़ रहा था.
कद्दुखाल से धनौल्टी की ओर बढ़ चले. यात्रा की योजना कद्दुखाल तक की ही थी, पर मेरे प्रस्ताव पर यात्रा को आगे बढ़ाने का विचार बना या तो धनौल्टी से मसूरी होकर देहरादून आया जाए या चंबा होकर ऋषिकेश से देहरादून पंहुचा जाए. दो – चार किलोमीटर के बाद ज्वारना एक छोटा सा बाजार है यहाँ पर कुछ सुन्दर रेस्टोरेंट बने है. यहाँ पर भोजन किया व पुस्तक विक्रेता जोशी जी से मुलाक़ात कर जानकारी ली. जोशी जी झकोगी गांव के रहने वाले है. ज्वारना से सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर ठांग्धार जगह है जो थौलधार विकासखंड के कंडीसौड़ से अब सड़क मार्ग से जुड़ गया है. इससे अब कई किलोमीटर की सड़क यात्रा का बचाव हो गया है. याद रहे कंडीसौड़ भागीरथी नदी के किनारे पर बसा है.
जोशी जी ने बताया की ज्वारना से भी सड़क कंडीसौड़ से जुड़ी हुई है. अब विचार बना कि चंबा, धनौल्टी – मसूरी तो आना जाना होता ही रहता है, क्यों न थौलधार इलाके की अध्यन यात्रा की जाए. ज्वारना भी झकोगी ग्रामपंचायत का ही हिस्सा है. झकोगी 15 किलोमीटर में पहाड़ी पर फैला गांव है. ज्वारना से कुछ मीटर अन्दर पहुँच कर फिर होटलों के निर्माण का सिलसिला सुरु हो गया. यहाँ बड़े बड़े सेवानिर्मित अधिकारियों के फार्महॉउस बने हुए है. इसी साल इंटर पास करने वाले रवि ने बताया कि यहाँ एक नाली जमीन की कीमत एक करोड़ रुपये चल रही है. स्थानीय लोग यहाँ सेब के बगीचे भी लगा रहे है व आलू की खेती भी कर रहे है. अधिकांश जमीनें बाहरी लोग खरीद चुके है. पानी की भारी कमी है. टैंकरों से पानी लाकर निर्माण कार्य किया जा रहा है.
झकोगी गांव ज्वारना से लगभग 2 किलोमीटर पर है. घर पूरी पहाड़ी पर जगह–जगह फैले हैं. इस इलाके को देखकर लगता है कि ये घर व दो–चार परिवारों की जगह ये कभी पशु छानियाँ रही होंगी. सकलाना की ही तरह थौलधार का अधिकांश इलाका भी पानी की कमी से जूझ रहा है. पलायन से गांव के गांव खाली है. लोग बच्चों को पढ़ाने के लिए चंबा, टिहरी, कंडीसौर, चिन्यालीसौड़, उत्तरकाशी, ऋषिकेश व देहरादून अपनी हैसियत के अनुसार रह रहे है. सरकारी स्कूलों की हालात बहुत बुरी है. प्राथमिक, जूनियर व इंटर कालेजों में बच्चे ना के बराबर है. 4 बच्चों को 2 अध्यापक पढ़ा रहे है. थौलधार विकासखंड का मध्यवर्ती मुख्य बाजार मैंडखाल है जो इस इलाके के झकोगी, कन्स्युर, क्यारी, पन्दोगी, भंडारकी, मजकोट, ल्वानी, कस्तल, कांगूड़ा, सैंदड़ा, बाँडा, बंगियाल, डंडी, डांग, गैर, रदोड़ी इदियान, जसपुर गांवों का केंद्र है.
मैंडखाल के ठीक सामने वाला इलाका थौलधार का है जिसके नजदीकी गांव भैन्सारी व बंगियाल, कमान्द, डोभालकोटी, सांकरी, कांडीख़ाल आदि हैं. रुचिपूर्ण होगा यह जानना कि थौलधार के नाम पर बने इस विकासखंड का मुख्यालय कंडीसौड़ थौलधार से लगभग 25 किलोमीटर दूर है. धनौल्टी मसूरी से जुड़कर इस इलाके में पर्यटन की कुछ संभावनाये तो बनी है, लेकिन बात वही है कि इसमें स्थानीय लोगों की कितनी भागीदारी है? मैंडखाल के निकट मनरेगा की मजदूरी करते महिलाएं नजर आई जो सार्वजनिक सड़क की दीवाल बंदी के लिए पत्थर ढो रही थी, माजरा समझा जा सकता है, पूछताछ करने पर माहैल न बिगड़े इसलिए आगे की राह ली.
ज्वारना व मैंड खाल के बीच बांडा से पूर्व लगभग 6–7 किलोमीटर सड़क अभी उबड़—खाबड़ है जिस पर काम चल रहा है. कमान्द मे अब डिग्री कॉलेज खुल गया है, रास्ते में अपनी स्कूटर पर बैठी मोबाइल पर व्यस्त सुनीता कमान्द से बी.ए. कर रही है. बंगियाल से वह हर रोज 25 किलोमीटर स्कूटर से कॉलेज जाती है. यहाँ अभी सार्वजनिक वाहन न के बराबर चलते है. केवल गाड़ी बुकिंग ही एक मात्र सहारा है. लोग मजबूर है. नकोट गांव की आँगनवाड़ी कार्यकर्त्ता बता रही थी कि, कभी गांव में 300 परिवार रहते थे अब मुश्किल से 15 परिवार ही रह गए है वो भी बुजुर्ग. टिहरी बाँध जलाशय का चिन्यालीसौड़ अंतिम छोर है, लेकिन जलाशय में पानी न होने से बालू के पहाड़ साफ़ नजर आ रहे थे व कभी सरसब्ज रही खेती व गांव भी मुंह चिढ़ाते नजर आये. पूरी यात्रा में चारों ओर जंगलों की आग से धुंध ही धुंध छाई हुई थी.
अस्कोट–आराकोट 2024 की अचानक प्लान हुई यह यात्रा यहीं नहीं रुकी, साथियों का जोश उमड़ चुका था, गंगोत्री के पट खुले 2 ही दिन हुए थे, योजना बनी की यात्रा का जायजा भी ले लिया जाये व रिस्पना से गंगा के मायके की एक अनोखी अध्यन यात्रा भी पूरी कर ली जाये. रात्रि विश्राम कंडीसौड़ में किया यात्रियों की रेलम पेल थी. अगले दिन गंगोत्री की ओर बढ़े चिन्यालीसौड़ से पेट्रोल पम्प पर डीज़ल की ढूं
ढ सुरु क्या हुई कि वह वापसी में गंगोत्री यात्रा के बाद चिन्यालीसौड़ के पुराने बाजार में जाकर पूरी हुई. यात्रा की हालात इससे ही समझी जा सकती है. मनेरी बांध पहुँचते ही बारिश सुरु हो गयी. आगे हिना गांव में यात्रियों का रजिसट्रेसन के लिए बेरिकेटिंग लगा हुआ था. वाहनों के रुकने के लिए भी जगह नहीं थी यात्रियों में धक्का मुक्की हो रही थी. उत्तराखंड के लोगों को तब तक जाने दिया जा रहा था.
आगे बढ़े. रास्ते भर गाड़ियों की भरमार थी. जगह – जगह जहाँ जगह मिली यात्रियों के झुण्ड नजर आये. बारिश ने माहोल सुखद बना दिया लेकिन जाम से बेहाल थे. अँधेरे में धराली पहुंचे तो शुरु से ही होटल की ढूंढख़ोज करने लगे, पहले होटल में पूछा तो एक कमरे का किराया 3 हजार बोल रहा था. एक के बाद एक होटल में कमरा ढूंढते रहे। न्यूनतम किराया 1500 था. किसी तरह रात बितानी थी. ठंड ने अब परीक्षा लेनी शुरू कर दी. योजना गंगोत्री की नहीं बनी थी, लिहाजा गरम कपड़े किसी के पास भी न थे. पहाड़ों पर यात्राओं में जीवन बिताने के बाद एक ही सबक था कि, जब भी पहाड़ों का रुख करो कुछ गरम कपड़े या जैकेट जरुर रखो चाहे गरमी हो या सर्दी. विंडशीटर, टोपी, जैकेट आदि खरीदने पड़े. सुबह 10 बजे करीब गंगोत्री पहुंचे. मंदिर से चार किलोमीटर पहले से ही जाम शुरू हो गया. गंगोत्री नगर पंचायत हर गाड़ी से टैक्स वसूली में लगी थी. यहाँ से अब पैदल यात्रा करनी थी. जो कि हमारे लिए अच्छा ही था.
सारी सड़क यात्रियों से भरी पड़ी थी। एक—दूसरे को धकियाते सब भीड़ में गुम हो गए. मैं धक्के खाता गंगोत्री के मुख्य द्वार तक पहुँच गया, यहाँ से यात्रियों को नीचे नदी की ओर लाइन में लगाया जा रहा था. लाइन देखकर होश उड़ गए ये लाइन तो शाम तक भी ख़त्म नहीं होगी. वो तो अच्छा हुआ मोबाइल टावर काम कर रहा था. कॉल मिलाया तो साथी पुल पार कर नदी के दूसरी ओर मेरा इन्तजार कर रहे थे. वापस आकर साथियों से मिल गया. यहाँ से मंदिर व दर्शनार्थियों के अच्छे दर्शन हो रहे थे आसमान खुल चुका था. सामने बर्फ देवता के भी दर्शन का सौभाग्य मिल गया. नदी के इस छोर तटबंद का निर्माण कार्य जारी था. माँ गंगा के प्राकृतिक दर्शन हो चुके थे। इसे ही इति मान लिया और स्वामी सुन्दरानंद जी की कुटिया की ओर बढ़ चले.
स्वामी जी अपने जीवन की अंतिम यात्रा पर जाने से पहले एक ट्रस्ट बनाकर एक विशाल फोटो संग्रहालय की नींव डाल चुके थे. ‘हिरण्यगर्भ तपोवनम कलादीर्घा’ गंगोत्री आने वाले प्रकृति प्रेमियों व हिमालय के भ्रमण करने वालों के लिए एक नया धाम बन रहा है. स्वामी सुन्दरानंद जी ने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि उनके संग्रह में 8 कुंतल फोटो के निगेटिव, ट्रांसपैरंसी थे. हिमालय के इस क्षेत्र का इतना व्यापक फोटो खजाना दुर्लभ है. इस संग्रहालय से हिमालय की इस बहुमूल्य संपदा का संरक्षण होगा, यह सुखद लगा. तसल्ली से पूरे संग्रहालय का निरीक्षण के बाद वापसी कर भैरो घाटी पुल पहुंचे. यह यात्रा का अंतिम लक्ष्य था.
गरतंग गली के लकड़ी से बने अजूबे पुल को देखना व उस पर चलने का रोमांच का अहसास लेना. सौभाग्य से इस पुल को नया स्वरुप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मानव वैज्ञानिक भरत पटवाल इस यात्रा में थे ही. उल्लेखनीय है कि गरतंग गली के इस पुल का निर्माण अफ़गान के कारीगरों द्वारा जाड समुदाय के व्यापारियों द्वारा तिब्बत सामान पंहुचाने के लिए किया गया था. 1962 में व्यापारिक गतिविधियाँ बंद होने से यह लकड़ी का पुल जर्जर हो चुका था. इसी रास्ते राहुल राहुल सांकृत्यायन तिब्बत की यात्रा कर चुके थे. आगे नेलोंग – जादुंग गांव के बाद दर्रा पार कर दूसरी ओर थोलिंगमठ है. ‘सेवन इयर्स इन तिब्बत’ नाम से हॉलीवुड फिल्म का पात्र इसी रास्ते ल्हासा पहुंचा था.
गरतंग गली के बारे में स्थानीय लोग जानते थे। कभी कभार इसके पुनरुद्धार की बात भी होती थी लेकिन गंभीरता से इस पर काम नहीं हो पाया था. इंस्टिट्यूट फॉर डेवलपमेंट सपोर्ट के निदेशक भरत पटवाल उत्तराखंड पर्यटन की परियोजना पर काम कर रहे थे, इस सिलसिले में वे एक दिन सामने की बॉर्डर सड़क से गुजर रहे थे तो उनको भी यह अजूबी संरचना दिखी, फोटो भी खींची. समय मिलने पर पर्यटन सचिव शैलेश बगोली को उन्होंने गरतंग गली के इस धरोहर के बारे में बताया व सुझाव दिया कि गरतंग गली के इस हेरिटेज पुल की मरम्मत की जाए, तो यह पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बन सकता है व आय का एक अच्छा जरिया भी. पर्यटन सचिव शैलेश बगोली चौंके व उनको इस विचार में दम नजर आया. सचिव ने भरत पटवाल को इस पर एक संकल्प प्रपत्र बनाने व प्रस्तुतीकरण हेतु कहा. सचिवालय में सचिव पर्यटन, गंगोत्री राष्ट्रीय पार्क के निदेशक, डी. एफ. ओ. गंगोत्री, निम् के प्रधानाचार्य, एस.डी.एम भटवाड़ी, पी.डब्लू. डी. के अधिकारी, पर्यटन विभाग के वरिस्ठ अधिकारी, कर्नल अजय कोठियाल व अन्य के समक्ष जब इसका प्रस्तुतीकरण किया गया तो सभी ने इस पहल का स्वागत किया. सतपाल महाराज ने भी इस प्रस्ताव पर रुचि बनाये रखी व गंगोत्री के तत्कालीन विधायक गोपाल रावत भी जोर देते रहे. आखिर यह पहल धरातल पर देखकर मन प्रसन्न हुआ. भरत पटवाल के साथ – साथ जिस ने भी इस पहल को आगे बढ़ाया उन सभी का में हृदय से स्वागत करता रहूँगा. अस्कोट – आराकोट की रिस्पना से गंगोत्री की यह अनोखी यात्रा फिलहाल यहाँ समाप्त हुई. आगे भी संभावना बनी हुई है.
अंतत:
वैसे तो चारधामों के सर्वेसर्वा परम्पराओं से छेड़खानी पर बबाल मचाते रहे हैं लेकिन इस बार गंगोत्री मंदिर समिति ने यात्रा परंपरा में बदलाव लाकर एक बड़ा पाप किया है, जिसकी जरुरत नहीं थी. गंगा मय्या की डोली यात्रा मुखबा से पैदल चलकर भैरोघाटी में रात्रि विश्राम कर अगले दिन गंगोत्री धाम पंहुचती थी. यह पैदल यात्रा बहुत सुखद, सुन्दर व पवित्र लगती थी. लेकिन इस बार मुखबा से जांगला तक ही डोली पैदल चली व इसके बाद एक भद्दी से गाड़ी के रथ पर डोली को गंगोत्री पंहुचाया गया. इससे मन खिन्न है. सबसे दु:खद यह लगा की जब में गंगोत्री पंहुचा तो, देखा माँ गंगा का गाड़ी का रथ सड़क किनारे गन्दी नाली में खड़ा पाया जिसके पीछे यात्री हग–मूत रहे थे. गंगोत्री के सर्वेसर्वाओं से निवेदन है कि इस नयी परंपरा को बंद करें.
One Comment
नवीन जोशी
बढ़िया वृतांत लेकिन इसे थोड़ा और विस्तार देने की जरूरत लगी।