इस्लाम हुसैन
( उत्तराखंड में *कुमाऊं भाषियों द्वारा मुसलमानों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला नाम)
पिछले साल 1सितम्बर को एक अखबार का इवेंट था। उस इवेन्ट में मैं गया इसलिए कि, प्लास्टिक कचरे के खतरों जो बड़ा इवेन्ट अब किया जा रहा है वह विषय पिछले 30 वर्ष से मेरी सामाजिक पहल का हिस्सा रहा है 1990 में मैने जब यह पहल शुरू की थी, तब अच्छे क़ाबिल लोगों को इस बात का शऊर नहीं था। अब तो एक बड़ा अखबार ही उस विषय को लेकर उड़ रहा है। खैर वह फिर कभी।
तो उस इवेन्ट में मैं समय से पहले पहुंच गया, लोग आए नहीं थे, मैं भी समय भूल गया था, इन्तजार करता रहा कुछ देर बाद पहले तीन ‘मुस्लिम’ संस्थाओं के दाढ़ी वाले लोग आ गए, उसके बाद तीन ‘हिन्दू’ संस्थाओं के तीन तिलक चंदन वाले लोग आ आ गए। अच्छा कम्बीनेशन लगा।
मैं मुस्कुरा दिया, अनौपचारिक बातचीत होने लगी, बगल में बैठे तिलकधारी पण्डित जी ने जब यह बताया कि वे संस्कृत विद्यालय के आचार्य हैं तो मुझे अपने सहपाठी मित्र तारादत्त काण्डपाल की याद आ गई। जो बाद में नैनीताल के संस्कृत विद्यालय के आचार्य रहकर अब रिटायर हो गए थे।
मेरे पास उनका नम्बर खो गया कहीं से नहीं मिला। मैने उनसे जब काण्डपाल जी के बारे में पूछा और यह बताया कि तारादत्त जी मेरे सहपाठी हैं, तो पण्डित जी मुझे देखकर थोड़ा चौंके, फिर उन्होंने बताया कि वह हल्द्वानी रहते हैं, मैने उनका मोबाइल नम्बर मांगा, उनके पास नहीं था लेकिन उन्होने अपने किसी सहयोगी से ले लिया। और अपने ही फोन से काण्डपाल जी को फोन लगाकर और उन्हे यह कहकर कि आपके एक मित्र आपसे बात करना चाहते हैं, फोन मुझे दे दिया।
इतने बरसों बाद फोन कर रहा था शायद ही पहचानने, मैने पण्डीजी से कुशलक्षेम करी, पूछा मुझे पहचाना?…… तुम्हारा हाईस्कूल इन्टर वाला मित्र हूं, पण्डीजी भूल गए लग रहे थे दुविधा से बचाने के लिए जब मैने उन्हे घुमा फिराकर यह बताया… “अरे यार मैं तुम्हारा काठगोदाम वाला मुशई दगड़्या ठहरा” तो पण्डीजी को एक लम्हे की भी देर नहीं लगी…………….. मैं पहचान लिया गया।
हालांकि इस मुशई शब्द से मेरी अचकचाहट कई बार हुई, कई बार सामने वाला यह शब्द बोल तो गया लेकिन उसे अजीब शर्म लगी और कई बार मैने भी मज़ाक में लिया।
जिन्दगी की शुरुआत में अपने एक मित्र के घोर पहाड़ी गांव में रात गुजारना भी यादगार रहा पर उससे ज्यादा अचकचाहट इस बात पर आई कि घर की महिलाओं को मुझ मुशई के लिए पूरी सब्जी की पक्की रसोई बनानी पड़ी, मुझे दाल भात नहीं खिलाया जा सकता था।
और यहीं से सफरनामे की शुरुआत हो गई…(यह लाइन लिखने के बाद ही अतुल का फोन आया और उसने अपने पिता और मेरे दोस्त भाई चन्द्र शेखर शर्मा जी के गुजर जाने की बुरी खबर दी) और इस तरह यह और एक सफरनामे का आखिरी इस लाइन के बाद हो गया। (आगे जारी)
(1983 के आसपास हल्द्वानी रंगमंच के कलाकारों के साथ इस फोटो में तारादत्त काण्डपाल दाएं से दूसरे और मैं दाढ़ी वाला तीसरे नम्बर पर हूं, हल्द्वानी के जाने माने फोटोग्राफर सरदार जगत सिंह बीच में दिख रहे हैं,उसी दौर में इस टीम ने कुमाऊं की पहली वीडियो फिल्म बनाई थी )