महिपाल नेगी
चलिए मान लेते हैं कि 4 साल बाद अग्निवीर कहीं और सेटल हो जाएंगे। लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि इससे सेना कैसे सेटल रह सकेगी। सेना क्या आयाराम – गयाराम के लिए धर्मशाला है, जो 4 साल तक नौजवानों को ट्रेंड किया और फिर उनकी क्षमता किसी कारपोरेट के काम आए। टीवी पर एक जनरल की डिबेट सुन रहा था। वह कह रहे थे कि वास्तव में 4 साल बाद जाकर ही एक सैनिक दक्ष सैनिक बन पाता है। इतने समय तक तो वह सैन्य कल्चर को सीख पाता है। अर्थात जब तक वह एक सक्षम सैनिक बन पाता है, तब तक उसकी विदाई हो चुकी होगी। फिर कुछ और आएंगे। फिर जब तक वह सक्षम होंगे फिर उनकी विदाई हो जाएगी। इसमें सेना का और देश का फायदा क्या है ?
ऐसे में तो सेना हर समय अस्थिर रहेगी। सेना क्या कौशल विकास का कार्यक्रम चला रही है। इसमें भी बड़ी बात यह कि संविदा के ये सैनिक नियमित पदों पर ही भर्ती होंगे, ये कोई अतिरिक्त पद नहीं हैं। अर्थात नियमित सेना का एक हिस्सा अब स्कीम के तहत पैकेज पर रहेगा।
ठीक है सेना को यंग होना चाहिए लेकिन क्या अनुभवी नहीं ? अनुभव सेना के किसी काम की चीज नहीं ? अब तक न्यूनतम सेवा करने वाला सैनिक भी 17 अट्ठारह साल में भर्ती होने पर 35 – 36 साल में रिटायर हो जाता है। तो क्या 35 – 36 साल बुढ़ापे की उम्र है ?
16 साल का अभिमन्यु मारा ही इसलिए गया था कि उसे युद्ध के मैदान में चक्रव्यूह का अंतिम द्वार तोड़ने का अनुभव नहीं था, और उससे लड़ने वाले तमाम योद्धा बड़ी उम्र के अनुभवी योद्धा। अभी सारे तर्क इस पर दिए जा रहे हैं कि युवाओं को अच्छा पैकेज मिलेगा। चार साल बाद कहीं और सुरक्षा गार्ड बन जाएंगे। इस महत्वपूर्ण सवाल को किनारे किया जा रहा है कि इससे सेना कैसे मजबूत होगी। ऐसी स्कीम नियमित सेना को युद्ध की आशंका पर सपोर्ट तो कर सकती है लेकिन नियमित सेना का विकल्प नहीं हो सकती। सेना के एक लाख पद पिछले दिनों पहले ही समाप्त किए जा चुके हैं। हमारे देश में सेना का बजट पहले ही कम है। इससे और भी कम हो जाएगा।
अब बात करते हैं थोड़ा गहराई में जाकर – संविदा पर सैनिक विभिन्न देशों में पूर्व में भी रखे जाते रहे हैं। मध्यकाल में ऐसे सैनिकों को भाड़े के सैनिक कहा जाता था। युद्ध की आशंका या युद्ध या युद्धकाल के दौरान ऐसे सैनिकों की नियुक्ति की जाती थी। युद्ध समाप्त या संविदा की समय अवधि समाप्त और सेवा समाप्त। ऐसे सैनिकों का इतिहास कभी अच्छा नहीं रहा है। दुश्मन देश से हिकारत, अपनी ही सेना से उपेक्षा और समाज में तिरस्कार। यही मिलता रहा। इस कारण इनके बाद का व्यवहार बहुत खराब पाया जाता है। अनेक लोग गिरोह में शामिल हो गए। दो दिन पहले टीवी बहस में एक रिटायर जनरल, एक रिटायर कैप्टन को अपने सामने मच्छर कह रहा था, ऐसी सोच के लिए अग्निवीर तो मक्खी के बराबर भी भी नहीं है।
अभी बड़ी बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और जेनेवा समझौते के प्रस्ताव में इस तरह की सेना को मान्यता नहीं देने के प्रस्ताव पारित किए गए हैं। क्योंकि इनके मानव अधिकारों की गारंटी सुनिश्चित नहीं हो पाती है। जैसे कि युद्ध बंदियों के अधिकार। जेनेवा समझौते पर भारत सहित 195 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। जेनेवा समझौते के आलोक में इस योजना का तो कोई परीक्षण ही शायद नहीं हुआ है। क्योंकि 99 % लोग सैन्य इतिहास को नहीं जानते और ना ही जिनेवा समझौते पढे हैं, इसलिए कोई चिंता किस बात की करे …? इस बात को पूरी तरह से नज़र अंदाज़ किया जा रहा है कि सेना के प्रति युवाओं का आकर्षण वर्दी, कंधे पर स्टार और सीने पर मेडल का होता है, स्कीम और पैकेज का नहीं। भर्ती के समय कौन नौजवान पूछता है कि उन्हें सेना में क्या स्केल और भत्ते मिलेंगे। भर्ती होने के बाद ही पता चलता होगा। स्कीम और पैकेज कारपोरेट की भाषा है, सेना की नहीं। माफ़ करना भाई …
बूट पटी कमर पटी कमर कसीं छ
कनिं होंदी लड़ै मां मेरी निं जाणी छ
पंछी होंदू उड़ी औंदू अपणा पाड़ मां
मैं भर्ती ह्वेग्यों हे मां जगदा भाड़ मां …
हिंदी अनुवाद –
बूट और कमर पेटी बांध ली, कमर कस ली है
लेकिन लड़ाई कैसे होती मां, मुझे नहीं आती है
पक्षी होता तो उड़कर आता अपने पहाड़ में
मैं तो भर्ती हो गया हे मां जलते हुए भाड़ में …
यह गढ़वाली लोक गीत यह जानने के लिए कि सेना का कल्चर आत्मसात करने में समय लगता है …
कोई “स्कीम और पैकेज” इस कल्चर को आत्मसात नहीं कर सकता …