विजया सती
लगभग तीन वर्ष पहले, सर्दियों की किसी सुबह, छुट्टी के एक दिन, मैं अपनी किताबें-पत्र-पत्रिकाएं व्यवस्थित कर रही थी कि एक पोस्ट कार्ड नीचे गिरा. मैंने लपक कर उठाया ..हाथ से लिखे पत्र के अंत में पते और फोन नंबर सहित हस्ताक्षर थे – रमेश चंद्र शाह, भोपाल.
इतने आकस्मिक रूप से, विख्यात लेखक से यह भेंट मुझे ऐसे उल्लसित कर गई कि मैंने काम छोड़ कर सीधे फोन मिलाया.
दरअसल एक वर्ष मैं दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में हिंदी पढ़ा रही थी जहां के स्मृति चित्र ‘हान नदी के किनारे’ शीर्षक से ‘हिंदी जगत’ पत्रिका में प्रकाशित हुए. शाह जी ने इस लेखन की सराहना में यह पत्र लिखा था, मेरे लिए इससे अधिक बड़ी बात क्या हो सकती थी ?
तब पहले-पहल उनसे बात हुई और फिर चल निकली ! शाह जी का दूसरा पत्र भी, कुछ तल्खी भरा, दूसरे स्मृति चित्र के लिए ही मिला.
भारत सरकार की ओर से विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में हिंदी पढ़ाने मैं हंगरी की राजधानी बुदापैश्त में थी. वहां की स्मृतियों, नए अनुभवों को लिख भेजा था, ‘हिंदी जगत’ पत्रिका और ‘जनसत्ता’ अखबार ने उन्हें प्रकाशित किया था.
शाह जी ने इन्हें पढ़कर, अपनी यूरोप यात्रा का विस्तृत उल्लेख करते हुए, व्यंग्य किया था कि तुम तक आने के लिए बुदापैश्त जाना पड़ा ! यानी मेरा नया पता उन्हें हिंदी जगत से मिला था !
भारत से अनुपस्थिति के समय में पत्र-पत्रिकाएं मित्र के यहां इकट्ठी हुई और एक साथ घर आई. सब उलट-पलट एक साथ न हो पाई और यह पत्र दबा रहा ! इसे तो रमेश चंद्र शाह जी से आकस्मिक भेंट का सबब बनना था. और जैसा मिर्जा गालिब ने लिखा है ..जिसका खत आया, मैंने जाना कि वो शख़्स तशरीफ़ लाया ! – उसी अंदाज़ में मेरे लिए ये पत्र विख्यात लेखक से मूल्यवान भेंट ही थे !
इस आकस्मिक भेंट के बाद रमेश चन्द्र शाह जी के साथ जो छोटे-छोटे संवाद हुए, उन्हें मैं इतना महत्वपूर्ण मानती हूं कि वे मेरी स्मृति में अविस्मरणीय की श्रेणी में दर्ज हो कर रहते हैं.
‘जय हो तुम्हारी !’ उनका प्रिय आशीर्वचन है मेरे लिए !
रद्दी-मद्दी कोरोना काल में कई सार्थक संवाद हुए उनसे. नए साल पर उन्हें अपनी शुभकामना मैंने कविता में लिख भेजी थी. उनका उत्तर आया –
‘सुन्दर कवि बानी. जय हो आपकी ! शुभकामना मेरी. सारा जीवन ही चुनौतियां स्वीकारने और उनसे निपटने का उद्योग पर्व है. प्रसन्न रहें, इस सहज भाव में कि the best is yet to be.
अच्छी और सच्ची लगी कविता, साधुवाद.’
मैं अक्सर उन्हें सुप्रभात लिखते हुए पहाड़ का चित्र भेजती, वे उत्तर देते – ‘अरे वाह ! दिव्य दर्शन. जय हो तुम्हारी. यही तो मेरा जन्मसिद्ध परिवेश है ! क्यों न यहीं समाधिस्थ हो जाएं ! सुप्रभात. विजयी भव.’
एक बार मैंने एक संस्मरण पढ़ा -‘अल्मोड़ा में रमेश चन्द्र शाह’. उन्हें भेज दिया – विस्मित हो गए वे –
‘सुखद अचरज विजया. कहाँ पढ़ा तुमने यह ? मेरी किसी किताब में ? या पुरवासी में? जो अल्मोड़ा से निकलती है – वार्षिक. मेरी स्मृति पहले जैसी अचूक नहीं रही.’
जब मैंने उन्हें बताया की यह संस्मरण कपिलेश भोज लिख रहे हैं तो वे बोले –
‘धन्यवाद विजया मेरी पृच्छा के क्षिप्र सत्कार हेतु. आपका भी अल्मोड़ा से सम्बन्ध रहा है? भूल जाता हूँ. यों मेरी एक किताब का नाम ही भूलने के विरुद्ध है.’
एक बार मैंने उन्हें एक वीडियो भेजा – उन्हें पसंद आया और लिखा – ‘बहुत सही किया. इस विकट समय में राहत मिलती है. मैं जो सोशल मीडिया से परहेज करता रहा हमेशा, आजकल हर कार्यक्रम एक्सेप्ट करने लगा हूँ इसी कारण.’
एक बार कुंवर नारायण की चर्चा चली तो उन्होंने लिखा – ‘अच्छा लगा कि मेरी तरह कुंवर नारायण आपको भी पसंद हैं. कभी मैंने उनपर और उन्होंने मुझ पर जो लिखा वह आपको भेजूंगा. पर अब अपनी ही चीजें नहीं मिलती. यह बड़ी परेशानी है.’
होली पर जब मैंने रंग-बिरंगे पेड़ों का झुण्ड शुभकामना स्वरूप भेजा तो उनका खनखनाता हुआ उत्तर आया – ‘वानस्पतिक होली ! जय हो चराचर की !’
एक दिन मैंने भावुक कर देने वाली एक कुमाउंनी कविता और लॉकडाउन पर हंसता-खिलखिलाता वीडियो उन्हें भेज ही तो दिया. उनका जोरदार जवाब आया – ‘कैसे-कैसे व्यंजन परोसती रहती हो. खुश रहो सदा.’
एक दिन मैंने उनके साथ साझा किया – शकुनाक्षर यानी कुमाउंनी सगुनाखर – कुमाऊं में गाए जाने वाले परंपरागत मंगलगीत. उनका जवाब आया –‘सुबह-सुबह सगुन। शकुनाक्षर ! धन्यवाद विजया। यथा नाम तथा गुण’।
कोरोना काल के मूड से उबरने के लिए एक दिन मैंने मजाक में उनसे कहा… शहरों में लगता होगा नाइट कर्फ्यू. पहाड़ों में तो बाघ के डर से वैसे ही कोई रात को बाहर नहीं निकलता !
उनकी लेखनी से यह रोचक सत्य प्रकट हुआ – ‘अभी तो कोरोना ही बाघों का बाघ है.’
पहाड़ की छांह से प्रकृति और परिवेश के चित्र भेजने पर वे झट अपने मन की बात कह देते – ‘सुकून अल्मोड़ा में मिलता है जो गाँव और शहर दोनों है और दोनों का अतिक्रमण भी.’
ऐसे हैं हमारे समय के वरिष्ठ रचनाकार रमेश चन्द्र शाह !
उनके रचना कर्म पर यदि निगाह डालें तो यह प्रश्न उत्तरित करना होगा कि उन्होंने क्या नहीं लिखा? कविता, उपन्यास, कहानी, डायरी, साक्षात्कार, बाल साहित्य, नाटक, निबंध, आलोचना और संस्मरण भी ! काव्यानुवाद भी जोड़ दें तो इस लम्बी सूची के सन्दर्भ में उन्हीं का कहा उद्धृत करना उचित लगता है – ‘मुझे जब लगता है कि मैं किसी एक विधा में अपने को ठीक-ठीक व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ तो मैं दूसरी विधा को चुन लेता हूं.’
‘अपनी श्रेष्ठ रचना का लिखा जाना बाकी’ मानने वाले लेखक का नवीनतम काव्य संग्रह ‘बंधु थे पड़ाव सभी’ 2021 में आया, उनकी कुमाउंनी कविताओं का संकलन ‘उकाव हुलार’ है. कुमाउंनी में लिखे गद्य का संकलन भी आ चुका है.
2004 में पद्मश्री से सम्मानित हिन्दी के बहुपुरस्कृत यह लेखक आजकल मौन हैं. लेकिन उनके अन्तरंग का साक्षात्कार कराने वाली बहुत-सी भावभीनी कविताएं हमारे साथ हैं, जिन्हें बार बार पढ़ा जाना चाहिए –
धीरे धीरे फुर्सत पाकर
मुझे घेर कर बैठ गया सब
कमरों का खालीपन
‘कितने वर्षों से है तेरे मन की तुझसे
अनबन?’
One Comment
शिवेन्द्र कुमार
बहुत ही सुन्दर लिखा है मैम आपने। ऐसे ही आपकी लेखनी चलती रहे और हमें अच्छा पढ़ने को मिलता रहे।