इन्द्रेश मैखुरी
प्रकृति, परिस्थितिकी और पर्यावरण-तीन ऐसे अवयव हैं, जो धरती पर जीवन के लिए आवश्यक हैं. मनुष्य के लिए भी ये बेहद जरूरी हैं बल्कि यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण न होगा कि मनुष्य स्वयं प्रकृति का एक अंश भर है. यह अलग बात है कि वह स्वयं को प्रकृति के विजेता के तौर पर देखना पसंद करता है, अंश के तौर पर नहीं. प्रकृति, परिस्थितिकी, पर्यावरण पर जो हमला मनुष्य ने बीते कुछ सालों में बोला है, उससे, वह उसी किस्से के मूर्ख की भांति प्रतीत होता है, जो उसी डाल को काट रहा है, जिस डाल पर बैठा है. मनुष्य भी उसी प्रकृति, परिस्थितिकी और पर्यावरण को तबाह कर रहा है, जिसके बगैर उसका अस्तित्व मुमकिन ही नहीं है.
हालांकि जब हम यह कहते हैं कि मनुष्य प्रकृति, परिस्थितिकी और पर्यावरण को नष्ट कर रहा है तो इससे ऐसा भान होता है गोया सारे मनुष्य ऐसा कर रहे हों ! लेकिन असल बात ऐसी नहीं है. जो मनुष्य प्रकृति, परिस्थितिकी और पर्यावरण को नष्ट कर रहा है, वह अपनी ताकत और पूंजी के बल पर दूसरे मनुष्यों को भी नष्ट करने में कोई कसर नहीं उठा रहा है.
बहरहाल, पर्यावरण की एक राजनीति है और राजनीति का भी एक पर्यावरण है. हमारे उत्तराखंड में हम पर्यावरण की राजनीति को देखें तो हम पाते हैं कि जिनकी ख्याति पर्यावरण की वजह से है, जो देश, दुनिया में पर्यावरण की वजह से ही जाने-पहचाने जाते हैं, वे पर्यावरण की तबाही पर सर्वाधिक खामोश पाये जाते हैं. वे सदा सत्य बोलो – की तरह ही पेड़ लगाओ, पर्यावरण बचाओ का जाप करते हैं. लेकिन जब विकास के नाम पर पेड़, पहाड़, नदियां तबाह की जाती हैं तो वे चुप्पी साध लेते हैं. यह पर्यावरण की राजनीति है !
पर्यावरण की राजनीति को भी राजनीति का पर्यावरण ही तय कर रहा है. चूंकि राजनीति का पर्यावरण बेहद डरावना, खौफनाक और हमलावर है, इसलिए पर्यावरण की राजनीति वाले भी चुप्पी साधने में ही खैर समझते हैं. यह जो राजनीति का पर्यावरण है, यही असल में प्रकृति, पर्यावरण और परिस्थितिकी की स्थिति तय करता है. यही मनुष्यों के अस्तित्व और उनकी जीवन स्थितियों को भी तय करता है. पर्यावरण, अपनी वजहों से प्रदूषित नहीं है बल्कि यह राजनीति यानि राज करने की नीतियों से प्रदूषित है. राज करने की ये नीतियाँ स्वयं भयानक विरूपता और प्रदूषण का शिकार हैं. यह राजनीति मुट्ठी भर वर्चस्वशाली लोगों के हाथों में ऐसी है कि कोई भी साफ-सुथरी, स्वच्छ-शफ़्फ़ाक चीज वह बर्दाश्त कर ही नहीं सकती. उसे हर हाल में विरूपता चाहिए, प्रदूषण चाहिए.
वह पूंजी के दम पर लोगों का जीवन नारकीय बना देती है. एक हिस्सा खा-खा कर फट पड़ने तक की हद तक अघाया हुआ है और दूसरा हिस्सा दो कौर के अभाव में मरणासन्न है. पूंजी के दम पर अघाए हिस्से को देश, दुनिया की हर चीज पर अपना कब्जा चाहिए, इसके लिए वह पूरी पृथ्वी को ही तबाह करने की हद तक जा सकता है. आज हमारे मुल्क में जो राजनीति है, वो तो प्रदूषण के नए रसातलों की तलाश में निकली हुई लगती है. निकृष्टता की प्रत्येक घटना के बाद, हर बार लगता है कि इससे निकृष्ट और क्या हो सकता है और हर अगली घटना बताती है कि ऊपर उठने की भले ही सीमा हो, रसातल में जाने की कोई हद नहीं है. धर्म और जाति का जैसा तांडव इस मुल्क में मचा हुआ है, वो हर बीतते दिन के साथ नित नए वीभत्स दृश्य रचता है. अपने धर्म की श्रेष्ठता, अपने जाति की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए किसी भी निरीह मनुष्य का कत्ल करना जैसे चुटकी बजाने जैसा सरल हो गया है.
प्रदूषण नहीं बल्कि राजनीतिक जहरखुरानी का दौर है ये ! यह जहरखुरानी इस कदर बढ़ गयी है कि जो संख्या में सबसे ज्यादा हैं, उन्हें ही हर समय खतरे में होने की घुट्टी पिलाई जा रही है. इसके साथ उनके दिमागों में भरा जा रहा है, ऐसा जहर कि उनकी मनुष्यता तिरोहित होती जाती है और वे डसने को तैयार जहरीले बनते जाते हैं, आदम जात होकर भी आदमखोर हुए जाते हैं. 2014 के बाद से इस मुल्क पर व्यापे राजनीति के प्रदूषण ने दिमागों में ऐसा जहर भरा है कि मुल्क में जो कुछ भी अच्छा है, उसे दुश्मन समझा जा रहा है. विश्वविद्यालयों को लांछित किया जा रहा है, बुद्धिजीवियों को गैंग करार दिया जा रहा है, सोचने-समझने-बोलने और तर्क करने वाले व्यक्ति को समाज और देश का दुश्मन करार दिया जा रहा है ! जहां भी बुद्धिमत्ता की जरा सी भी गुंजाइश है, उसे भीषण शत्रु की तरह प्रचारित किया जा रहा है. आधुनिकतम उपकरणों के साथ अतीत की बर्बरता को कायम करने की होड़ है. उपकरणों में आधुनिकता और मस्तिष्क व आचरण में पुरातनपंथी दक़ियानूसी, इस दौर में हमारे मुल्क की प्रतिनिधि तस्वीर है.
ऐसा नहीं है कि मुल्क में धर्म और जाति के नाम पर यह गंदगी पहले नहीं थी. थी तो यह पहले से समाज में मौजूद. लेकिन आज जैसा जहरीली राजनीति का संबल, उसे इस कदर पहले हासिल नहीं था. तो हुआ यूं कि जो धर्म और जाति के नाम पर घृणा, हिंसा की गंदगी पहले नालियों में बहा करती थी, वो स्मार्ट होते शहरों में सड़कों में, बाज़ारों में, स्कूलों, दफ्तरों, घरों,मकानों में चहुं ओर व्याप्त है ! राजनीतिक जहरखुरानी ने दिमागों पर ऐसा असर किया है कि जिस गंदगी से पहले आदमी नाक-बंद करके बच निकलना चाहता था, उसे सिर पर मुकुट की तरह धारण करने को, उसमें पूरी तरह लिथड़ने को ही जीवन की चरम सफलता की तरह पेश किया जा रहा है.
निश्चित ही राजनीति और समाज में व्याप्त यह जहर किसी भी समाज के लिए हानिकारक ही नहीं प्राणघातक भी है. यह जहर किसी भी देश और समाज के अस्तित्व को लील जाने के लिए पर्याप्त है.
इस देश और समाज को जिंदा रहना है तो न केवल पर्यावरणीय प्रदूषण से स्वयं को बचाना होगा बल्कि राजनीतिक प्रदूषण से भी मुक्ति पानी होगी. राजनीतिक प्रदूषण से मुक्ति पाये बगैर तो पर्यावर्णीय प्रदूषण से भी मुक्ति संभव नहीं है. मनुष्यता के पास एकमात्र विकल्प यही है कि वह इस राजनीतिक जहरखुरानी को समाप्त करे अन्यथा यह जहर उसके समूचे अस्तित्व को निगल जाएगा !