दो निजी एवं एक सरकारी बांध संचालक ने गंगा का प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए बनी गाइडलाइन मानने से इनकार कर दिया है
बनजोत कौर
गंगा के पर्यावरणीय प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए बनी गाइडलाइन के भविष्य पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पर्यावरणीय प्रवाह के नियम बांधों और बैराजों पर लागू होते हैं। नियमों के अनुसार, बांधों और बैराजों को गंगा की प्राकृतिक सफाई और जैव विविधता के लिए निर्धारित मात्रा में पानी छोड़ना होगा। पर्यावरणीय प्रवाह के नियम सितंबर 2018 में गंगा की सफाई और पुनरोद्धार के लिए उत्तरदायी निकाय नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) द्वारा अधिसूचित किए गए थे। यह नियम 15 दिसंबर 2019 से लागू हो गए हैं। एक तरफ जहां सभी बैराजों ने इन नियमों को मानना शुरू कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ तीन बांध संचालकों ने इन्हें मानने से इनकार कर दिया है। यानी ये संचालक अधिसूचना के अनुसार, अपने बांधों से निर्धारित जल की मात्रा छोड़ने को तैयार नहीं है क्योंकि इससे उनकी बिजली उत्पादन की क्षमता प्रभावित होगी और उन्हें भारी नुकसान का सामना करना पड़ेगा। इनमें से दो बांध निजी कंपनियों द्वारा संचालित हैं जबकि एक उत्तराखंड सरकार के अधीन है।
गंगा नदी पर कुल 6 बांध और 4 बैराज बने हैं। अपर गंगा बेसिन (टिहरी गढ़वाल से हरिद्वार के बीच) सभी 6 बांध हैं। अधिसूचना में जल प्रवाह से संबंधित तीन नियम हैं। पहला, जून से सितंबर के बीच (उच्च प्रवाह का मौसम) अंतर्वाह (इनफ्लो) के औसत का 30 प्रतिशत बहिर्वाह (आउटफ्लो) होना चाहिए। दूसरा, अक्टूबर, अप्रैल और मई में 25 प्रतिशत बहिर्वाह व तीसरा, नवंबर से मार्च के बीच (निम्न प्रवाह का समय) 20 प्रतिशत बहिर्वाह होना चाहिए। मध्य गंगा बेसिन (हरिद्वार से कानपुर) में जहां सभी बैराज हैं, वहां हर परियोजना के लिए पर्यावरणीय प्रवाह अलग है। पौड़ी गढ़वाल में श्रीनगर बांध की संचालक और 330 मेगावाट बिजली उत्पन्न करने वाली अलकनंदा हाइड्रो पावर कंपनी लिमिटेड (एएचपीसीएल) नियमों का विरोध करने में सबसे आगे है। यह कंपनी 88 प्रतिशत बिजली की आपूर्ति उत्तर प्रदेश और 12 प्रतिशत बिजली रॉयल्टी के रूप में उत्तराखंड को निशुल्क प्रदान करती है। चमोली जिले में स्थित विष्णुप्रयाग बांध का संचालन जयप्रकाश पावर वेंचर्स लिमिटेड द्वारा किया जाता है। इस कंपनी ने भी केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की अधिसूचना के प्रति अनिच्छा प्रकट की है। एनएमसीजी के एक अधिकारी ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि उत्तरकाशी जिले में उत्तराखंड जल विद्युत निगम का मनेरी भाली फेज-दो परियोजना तीसरा ऐसा बांध है जिसके अधिकारियों ने विभागीय बैठकों में अधिसूचना के प्रति नाराजगी जाहिर की है।
एएचपीसीएल ने जुलाई 2019 को राज्य सरकार और केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के खिलाफ उत्तराखंड के उच्च न्यायालय में वाद दायर कर कहा कि अधिसूचना का पालन करने पर 26 सालों में उसे 3,036 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान होगा। उत्तराखंड सरकार से हुए समझौते के तहत कंपनी के पास बांध का संचालन 26 साल तक रहेगा। कंपनी ने यह भी कहा कि वह उत्तराखंड उच्च न्यायालय के पूर्ववर्ती निर्देशों के मानकर प्रतिदिन 15 प्रतिशत का बहिर्वाह सुनिश्चित कर रही है। सीडब्ल्यूसी ने जनवरी से प्रतिदिन बांधों और बैराजों से डिस्चार्ज होने वाले पानी का आंकड़ा जुटाया है। उसकी तीन तिमाही रिपोर्ट में जारी आंकड़े एएचपीसीएल के दावे को खारिज करते हैं। दूसरी तिमाही (अप्रैल से जून) की रिपोर्ट के अनुसार, 15 मई से 21 मई के बीच बांध से बहिर्वाह मुश्किल से 5 प्रतिशत था। एनएमसीजी द्वारा न्यायालय में दाखिल काउंटर ऐफिडेविट में भी इसका उल्लेख है। आंकड़े बताते हैं कि एकमात्र टिहरी बांध ने ही अधिसूचना का पालन किया है (देखें, आरंभ ही खराब)।
एनएमसीजी के ऐफिडेविट में यह भी कहा गया है कि एएचपीसीएल द्वारा आर्थिक नुकसान का बहाना बनाकर गंगा का प्रवाह नहीं रोका जा सकता। ऐफिडेविट के मुताबिक, “ध्यान देने की बात यह है कि अधिसूचना किसी उद्योग की गतिविधियों को बाधित नहीं करती लेकिन प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन रोकती है। यह अतिदोहन दीर्घकाल के लिए टिकाऊ नहीं हो सकता।” एनएमसीजी के महानिदेशक ने राजीव रंजन मिश्रा ने डाउन टू अर्थ को बताया, “बांध राजस्व नुकसान की भरपाई के लिए केंद्र से लेकर राज्य तक किसी भी फोरम में जाने को स्वतंत्र हैं (देखें, गंगा के हित में बांध संचालकों को साथ आना चाहिए,)।” एनएमसीजी के अधिकारी ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि एएचपीसीएल उत्तराखंड सरकार से हुए समझौते से बंधा हुआ है। यह समझौता कहता है कि कंपनी परियोजना से संबंधित कानूनी प्रावधानों को मानेगी और नई अधिसूचना भी ऐसा ही एक प्रावधान है। अधिकारी आगे बताते हैं कि प्रवाह से संबंधित अधिसूचना का पालन करने के लिए बांधों को अतिरिक्त निवेश और तकनीकी में बदलाव की भी जरूरत नहीं है, इसलिए इसके पालन में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
एएचपीसीएल का दावा है कि अधिसूचना के नियमों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। एनएमसीजी के कार्यकारी निदेशक (तकनीकी) डीपी मथुरिया बताते हैं, “केंद्र सरकार द्वारा गठित समितियों के तीन और दूसरे संस्थानों के आठ अध्ययनों के आधार पर नियम बनाए गए हैं।” अध्ययनों को पढ़ने के बाद डाउन टू अर्थ ने पाया है कि अधिसूचना के नियम काफी उदार हैं। मथुरिया कहते हैं, “शुरुआत के लिए यह सबसे व्यवहारिक तरीका है। समय के साथ हम अधिसूचना के असर का आकलन करेंगे और बहिर्वाह की भी सीमा बढ़ाई जा सकती है।” यमुना जिए अभियान के मनोज मिश्रा का मानना है कि गंगा के लिए जारी हुई अधिसूचना को यमुना और दूसरी नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह के लिए मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। सरकार के पास पीछे मुड़कर देखने का औचित्य नहीं है।”
अगर भारत 2020 तक गंगा को साफ करने के लक्ष्य को हासिल करना चाहता है तो इसमें पर्यावरणीय प्रवाह की अहम भूमिका होगी। पर्यावरणीय प्रवाह के विशेषज्ञ एवं नीदरलैंड स्थित आईएचई डेल्फ्ट इंस्टीट्यूट फॉर वाटर एजुकेशन में ईको हाइड्रोलॉजी के प्रोफेसर माइकल मैकक्लेन कहते हैं, “बिजली उत्पन्न करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए हाइड्रोपावर को पानी दिया जाता है। वहीं पर्यावरणीय प्रवाह के लिए दिया जाने वाला पानी पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लक्ष्य को पूरा करता है। जल संसाधन के प्रबंधन में दोनों का महत्व और लक्ष्य है। यह सरकार का दायित्व है कि वह पानी के वितरण से सामाजिक लाभ पहुंचाए।”
हिन्दी वैब पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ से साभार