राजीव लोचन साह
उत्तराखंड की पाँचवीं विधानसभा की निर्वाचन प्रक्रिया शुरू हो गई है। इस चुनाव में अब तक जिस बात ने ध्यान आकर्षित किया है, वह है भारी संख्या में दलबदल। दलबदल छिटपुट रूप से हमेशा होते हैं, मगर इस बार बेशुमार हुए हैं। लोकतंत्र में दल बदलना कोई गलत बात नहीं है। अगर कोई व्यक्ति अपने राजनैतिक विचारों में बदलाव आता हुआ पाता है तो उसे उस दल में जाना ही चाहिये, जिससे उसके विचार मिलते हैं। मगर यहाँ तो दल बदलने वाले मुख्य रूप से भाजपा से कांग्रेस में या कांग्रेस से भाजपा में जा रहे हैं। आर्थिक दृष्टि से इन दोनों दलों में लगभग एक समानता है। दोनों दल नव उदारवादी सोच के पोषक हैं और देश के आर्थिक संसाधन कॉरपोरेट को लुटाने के पैरोकार। मगर भारतीय जनता पार्टी साम्प्रदायिकता और अंध राष्ट्रवाद की समर्थक है तो कांग्रेस कमोबेश धर्म निरपेक्षता की हिमायती। इस विन्दु पर एक दल से दूसरे दल में जाना बहुत आसान नहीं है, क्योंकि किसी भी व्यक्ति का सोच रातोंरात 180 डिग्री नहीं बदल सकता। जाहिर है कि दल बदलने वालों के पीछे कोई विचारधारा नहीं है। उनके लिये राजनीति सिर्फ एक धंधा है। अधिकांश ये दलबदल चुनाव में अपनी पार्टी का टिकट न मिलने के कारण हुए हैं। यानी कि राजनीति में हैं तो विधायक बनना ही बनना है। इनसे पूछा जाये कि आप विधायक क्यों बनना चाहते हैं, विधायक बने बगैर आप जनता की सेवा क्यों नहीं कर सकते तो किसी के पास भी स्पष्ट उत्तर नहीं होगा। विधायकों में सत्ताधारी दल के कुछ लोग तो मंत्रिपद पा जाते हैं। बाकी क्या करते हैं ? उनका काम है कि अपने क्षेत्र की जनता के बीच रहें और सदन चलने पर जनता की आवाज को सरकार तक पहुँचायें। कानून बनते वक्त डट कर बहस करें। मगर साल भर में दो हफ्ते भी न चलने वाली विधान सभा में तो इस सबकी गुंजाइश नहीं। दरअसल इसके इतर विधायकी आजकल ठेकेदारी के रूप में प्रदेश का सबसे बड़ा धंधा है, जिसका स्वाद हर कोई लेना चाहता है। उसी के लिये मारामारी है।
फोटो : गूगल से साभार
One Comment
Dr. K. Sinha
बंधुवर, चुनाव ही पैसों के लिए है ।