कोविड के भय के अतिरेक ने अब तक एक ख़ास दिशा में विकसित हो रही मानव-सभ्यता और संस्कृति को एक गहरे संकट में धकेल दिया है। जिस दिशा में मानव जाति जा रही थी, उसकी अपनी कमियाँ थीं, लेकिन इस नये संकट ने इन प्रश्नों पर शीघ्र विचार करना आवश्यक बना दिया है कि हम कहाँ जा रहे थे और हमारी आगामी दिशा क्या हो?
इस क्रम में यह सवाल भी आता है कि विज्ञान क्या है और उस पर हमारी निर्भरता कितनी हो? क्या विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना एक ही चीज़ है? या इनमें कोई मौलिक भेद है? विज्ञान पर कितना भरोसा रखना उचित है और वैज्ञानिक चेतना से संपन्न होना क्यों ज़रूरी है? हालाँकि ये दोनों विरोधाभासी बातें नहीं हैं, बल्कि पूरक हैं लेकिन बड़ा फ़र्क़ यह है कि सिर्फ़ ‘विज्ञान पर भरोसा’ ही वैज्ञानिक चेतना को जन्म नहीं देता। इसके विपरीत उपलब्ध विज्ञान की नीयत पर संदेह करने से भी वैज्ञानिक चेतना का जन्म होता है।
2020 के आरंभ में चीन के बुहान में एक अज्ञात वायरस के फैलने की सूचना के बाद सबसे पहले कुछ सांख्यिकीविदों ने अपनी जादू की टोपी से कुछ ऐसे आँकड़े निकाल कर पेश किये, जिसने दुनिया भर में हडकंप मचा दिया। इन साख्यिकीविदों में पहला नाम ब्रिटेन के इम्पीरियल कॉलेज के प्रोफ़ेसर नील फर्गुसन का था। उन्होंने मार्च, 2020 में कंप्यूटर आधारित एक गणितीय परिकल्पना के आधार पर घोषित किया कि अगर नये कोरोनायरस की रोकथाम के लिए कड़े क़दम नहीं उठाए गये तो अगले तीन महीने में दुनिया में 4 करोड़ लोग कोविड से मारे जाएँगे। इसी के आधार पर हमारे भारत में विशेषज्ञों ने कहा कि अगर
कड़ा लॉकडाउन नहीं किया गया तो अगले तीन महीने में देश में 35 लाख लोग कोविड से मर जाएँगे।[1] यह अनुमान महज़ तीन महीने में होने वाली मौतों का था। इसके आधार पर अनुमान लगाया गया कि अगर बीमारी साल-दो साल तक चली, तो मानव-आबादी का एक अच्छा-ख़ासा प्रतिशत समाप्त हो जाएगा। ये पूर्वानुमान हवाई और काल्पनिक थे, जिसका खुलासा भी हो चुका है।[2] जिन देशों ने कड़े प्रतिबंध नहीं लगाए, वहाँ तीन महीने में न सिर्फ़ कोविड से कम मौतें हुईं हैं बल्कि ‘औसत से अधिक मौतों’ की संख्या भी नगण्य रही। इसका एक चर्चित उदाहरण स्वीडन है, जहाँ की सरकार ने जनता के विवेक पर भरोसा किया। इसके अलावा जापान, साउथ कोरिया, बेलारूस, तुर्केमिस्तान, तंजानिया, नीदरलैंड आदि अनेक देशों में या तो कोई प्रतिबंध नहीं था, या फिर उनकी सरकारों की तरफ से सिर्फ़ कुछ सलाहें जारी की गई थीं।[3] इन सभी देशों में अतिरिक्त मौतों की संख्या नगण्य रही है। इन देशों के आधिकारिक आंकड़े के अनुसार 13 सितंबर तक कोविड से मरने वाले वालों की संख्या इस प्रकार है : स्वीडन : 5,846, जापान -1,423, साउथ कोरिया-358, बेलारूस -744, तुर्केमिस्तान -0, तंजानिया-21 तथा नीदरलैंड 6,253।[4] जिन देशों में कड़े प्रतिबंध लगे, वहाँ आर्थिक तबाही भी अधिक हुई तथा बड़ी संख्या में लोगों की मौत भी हुई।[5] दूसरी ओर, कड़े प्रतिबंध लगाने वाले देशों की स्वास्थ्य-व्यवस्था एवं स्वास्थ्य-सेवाएँ ठप हो गयीं तथा इन प्रतिबंधों से जन्मे असमंजस ने लोगों के मानसिक तनाव को बढ़ा दिया। यह लाखों लोगों की बेमौत मौत का कारण बना।[6] यह सब विज्ञान के नाम पर हुआ।
कोविड के इस दौर में अनेक निराधार अनुमान और निदान हमारे सामने ‘विज्ञान’ के रूप में पेश किए गये, जिनमें से कुछ का जन्म सांख्यिकी के विवेकहीन प्रयोग से हुआ, तो कुछ का आंकड़ों के संकलन की अन्य विवेकहीन पद्धतियों से। इन सबको ‘विज्ञान’ के नाम पर आसानी से सामाजिक और बौद्धिक वैधता मिल गई।
विश्व स्वास्थ संगठन (डब्लूएचओ) ने कोविड-19 को ‘सार्वजनिक स्वास्थ्य का आपातकाल’ घोषित करने के लिए इससे संबंधित आँकड़ों को जमा करने के लिए अपनी पद्धति में भी इस प्रकार के बदलाव किये जिससे यह पता करना कठिन हो गया कि किसकी मृत्यु कोविड के ‘साथ’ हुई और किसकी कोविड ‘से’ हुई। यानी, ऐसा व्यक्ति जिसे मृत्यु से पहले कोरोना वायरस का संक्रमण हुआ था, लेकिन यह संक्रमण ही मृत्यु का कारण नहीं था और ऐसा व्यक्ति जिसकी मृत्यु संक्रमण के कारण हुई, के फर्क को खत्म कर दिया गया। इसे उन्होंने आँकड़ा जमा करने का ‘विज्ञान’ कहा। इस विज्ञान के तहत न सिर्फ़ कोविड के ‘साथ’ मरने वालों को , बल्कि अन्य बीमारियों से मरने वाले लोगों को भी कोविड ‘से’ मृत के रूप में गिना गया[7], और सूचना-विज्ञान की नवीनतम तकनीकों के सहारे इन भ्रामक, पल-प्रतिपल बढ़ते आँकड़ों को दुनिया भर में लगातार फ्लैश किया गया।[8]
इस संबंध में आ रहे नये अध्ययन चौंकाने वाले हैं। सितंबर, 2020 के पहले सप्ताह में अमेरिका के ‘सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन’ संस्था द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार, कोविड से बताई गयी कुल मौतों में सिर्फ़ 6 प्रतिशत ही ऐसी हैं, जिनमें मृत्यु का कारण डॉक्टरों ने ‘सिर्फ़’ कोविड बताया है।[9] यानी, कुल 1,61,392 मृतकों में से केवल 9,210 की मौत सिर्फ़ कोविड से हुई थी।[10] शेष 94 प्रतिशत लोग अन्य सह-रूग्ण्ताओं (Co-morbidities) से पीड़ित थे, जिनमें से कोई भी उनकी मौत की मुख्य वजह हो सकती है। अगर उन सह-रूग्णताओं का सही इलाज मिला होता, तो कोविड का संक्रमण होने के बावजूद उनमें से अनेक की जान नहीं जाती। अगर हमारी स्वास्थ-व्यवस्था ठीक होती और प्रशिक्षित स्वास्थ कर्मियों का अभाव नहीं होता तो इन 94 प्रतिशत लोगों में से अधिकांश की जान बचाई जा सकती थी।
भारत में भी जिन लोगों को कोविड से मृत बताया जा रहा है, उनमें से अधिकांश मामलों को नज़दीक से देखने पर मालूम चलता है कि वे कोविड की वजह ने नहीं बल्कि उस बीमारी से मरे हैं, जिनसे वे पहले से पीड़ित थे, लेकिन कोविड के संभावित संक्रमण के भय से उन्हें या तो बहुत देर से इलाज मिला, या फिर उचित इलाज नहीं मिल सका। ऐसे दुर्भाग्यशाली लोगों में सबसे अधिक संख्या हृदय रोग से पीड़ित बुज़ुर्ग लोगों की है। इसके अलावा, अस्पतालों में ग़लत दवाओं के प्रयोग के कारण कोविड के मरीज़ बड़ी संख्या में मरे हैं।[11] इनमें सबसे अधिक दुष्प्रभाव संभवत: मलेरिया की दवा का रहा है[12], जिसे विशेषज्ञों की चेतावनियों के बावजूद डब्लूएचओ द्वारा निर्धारित प्रोटोकॉल के तहत ‘विज्ञान’ के नाम पर ही भारत समेत विश्व के अधिकांश हिस्सों में कोविड के इलाज में प्रयोग के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।[13] विभिन्न शोधों से यह साबित होता रहा है कि मलेरिया की दवा हृदय-रोगियों के लिए जानलेवा हो सकती है।[14]
इसके अलावा, भारत समेत तीसरी दुनिया के अनेक देशों के अस्पतालों में कोविड के मरीज़ों का जिस संवेदनहीनता से इलाज किया जा रहा है, वह भी बड़ी संख्या में मौत की वजह बन रहा है। भारत के अस्पतालों में तो लावारिश पड़ी लाशों और पेशाब करते कुत्तों के बीच कोविड मरीज़ों को रखे जाने की भी सूचनाएँ आती रहीं हैं।[15] हालात कितने ख़राब हैं, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि राजधानी दिल्ली के सबसे प्रतिष्ठित अस्पतालों में से एक की बहुमंज़िली इमारत से कूदकर कोविड से पीड़ित हिन्दी दैनिक के एक पत्रकार ने आत्महत्या कर ली।[16] अस्पतालों की बदइंतज़ामी पर सवाल उठाने पर चिकित्सकों के द्वारा कोविड के मरीज़ों को ग़लत दवा देकर हत्या कर देने की धमकी देने तक की ख़बरें लगातार आती रहीं। मेरे सोशल-मीडिया पेजों से संबंद्ध लोगों के वॉल पर ऐसी दर्जनों ख़बरें बिखरी पड़ी हैं जिसमें लोगों ने बताया कि किस प्रकार वे दूसरी बीमारी से पीड़ित अपने प्रियजनों को लेकर दर-दर भकटते रहे, लेकिन अस्पतालों द्वारा उनका इलाज करने से मना कर दिया गया, जिससे उनकी मौत हो गयी। भारत में मेघालय समेत कई जगहों से ऐसी ख़बरें आयीं कि कोविड-प्रोटोकॉल के तहत प्रसव-पीड़ा से तड़पती महिलाओं को भी अस्पतालों ने भर्ती करने से मना कर दिया, जिससे उन्हें खुले में प्रसव करने के लिए मजबूर होना पड़ा। कई जगहों पर इस क्रम में जच्चा-बच्चा, दोनों की मौत हो गयी।[17] सोशल-मीडिया पर ऐसी सूचनाओं का भी अंबार है जिसमें लोगों ने बताया है कि उनके परिजन किसी अन्य बीमारी से मरे, लेकिन उन्हें कोविड से मृत घोषित कर दिया गया। दूसरी ओर जो लोग कोविड के संक्रमण से ठीक होकर आए हैं, उनमें से अनेक ने अपना अनुभव बताते हुए लिखा है कि यह कोई पीड़ा जनक बीमारी नहीं है। उन्होंने कोविड से संक्रमित होने के बाद मनोवैज्ञानिक भय अवश्य महसूस किया लेकिन उन्हें इससे जान जाने का कोई वास्तविक ख़तरा नहीं महसूस हुआ। यह हालत भारत की ही नहीं, बल्कि तीसरी दुनिया के सभी देशों की रही, यहाँ तक कि कथित विकसित देशों की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं का रवैया भी बहुत असंवेदनशील रहा। तथ्य यह है कि सूचना-तकनीक द्वारा निर्मित अफ़रातफ़री और अविवेकपूर्ण, अनावश्यक, संवेदनहीन प्रतिबंधों ने कोविड की तुलना में कई गुणा अधिक जानें ली हैं।
कोविड से होने वाली मौतों से संबंधित आधिकारिक आँकड़े किस क़दर झूठे और भ्रामक हैं, इसके प्रमाण अन्य अध्ययनों में भी सामने आ रहे हैं। हाल ही में ब्रिटेन ने स्वीकार किया है, उसके आँकड़े अतिशयोक्तिपूर्ण थे। आँकड़ा जमा करने की ग़लत पद्धति के कारण उन लोगों की मौत को भी कोविड से हुई मौत में जोड़ दिया गया जिनकी मौत की मुख्य वजह कुछ और ही थी।[18]
यूनिवर्सिटी ऑफ ओटावा में भौतिकशास्त्र के चर्चित प्रोफ़ेसर रहे डेनिस जी रैंकोर्ट की टीम ने अगस्त, 2020 में प्रकाशित अपने शोध में बताया है कि कोविड-19 से कथित बचाव के लिए लागू किए गये अत्यधिक प्रतिबंधात्मक क्वारंटाइन के नियमों के कारण फ्रांस में मार्च और अप्रैल में तीस हज़ार दो सौ लोगों की मौत हुई। जबकि इस समय तक फ्रांस में कोविड से मरने वालों की कुल संख्या 25 हज़ार से कम थी। (आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार इन पंक्तियों के लिखे जाने (14 सितबंर, 2020) तक फ्रांस में लगभग 31 हज़ार लोगों की मौत हुई है)
प्रोफ़ेसर रैंकोर्ट के अनुसार, इसका मुख्य कारण “पहले से ही गंभीर स्वास्थ समस्याएँ झेल रहे लोगों का सामाजिक अलगाव और उससे उपजा मनोवैज्ञानिक तनाव था।”
शोध में पाया गया है कि “सामूहिक क्वारंटाइन के नियमों के तहत सरकार ने केयर होम व अन्य संस्थानों में पहले ही ख़राब स्वास्थ्य वाले बुज़ुर्ग लोगों को उनके परिवार से अलग कर एक बिस्तर या एक कमरे में हफ़्तों के लिए क़ैद कर दिया। उनकी गतिविधियाँ बहुत सीमित कर दी गयीं। इतना ही नहीं, कोविड से बचाव संबंधी नियमों के कारण इस संस्थाओं में न सिर्फ़ कर्मचारियों की संख्या कम कर दी गयी बल्कि जो कर्मचारी कार्यरत थे, उन्हें भी बार-बार लंबी मेडिकल-लीव लेने की इजाज़त दी गई। कर्मचारियों को विवश किया गया कि वे काम के वक़्त मास्क, शील्ड, दस्ताने आदि पर्सनल प्रोटेक्टिव किट पहने रहें। इन उपायों ने केयर होम में भयावह भय, आतंक और ख़तरे के माहौल का सृजन किया। इस दौरान इन सामूहिक क्वरंटाइन सेंटरों में सिर्फ अति आवश्यक चीज़ों को छोड़कर किसी प्रकार की आवाजाही बंद कर दी गयी तथा उनके दरवाज़े, खिड़कियों को बंद कर शुद्ध हवा के प्रवाह को भी बाधित कर दिया गया।”[19] (ज़ोर हमारा)
चूँकि सत्ताधारियों को जनता में भय की इस नयी स्थिति में तात्कालिक लाभ नज़र आ रहा है, इसलिए वे इस भय को बरकरार रखने की कोशिश कर रहे हैं। कोविड को एक अति-भयावह, अति-घातक, प्राकृतिक आपदा बता देने से यह सवाल ग़ायब हो गया है, कि हमारे पास अस्पताल इतने कम क्यों हैं? चिकित्सा-शास्त्र की पढ़ाई कराने वाली संस्थाएँ इतनी कम क्यों हैं? आख़िर क्या कारण है कि चिकित्सा-शास्त्र को विशिष्ट बनाकर ज्ञान के अन्य अनुशासनों से इसे इतना दूर कर दिया गया है? हर कॉलेज-यूनिवर्सिटी में मेडिकल साइंस के विभागों की स्थापना को क्यों नहीं अनिवार्य बनाया गया है? क्यों दुनिया भर की सरकारों ने शिक्षा पर इतना ज़ोर दिया और स्वास्थ को अनिवार्य अधिकार बनाने में आनाकानी करती रही हैं? भारत समेत अनेक देश शिक्षा को ‘मानव संसाधन’ तैयार करने का माध्यम बताते रहे हैं। इस शिक्षा से मनुष्य को किसके संसाधन के रूप में तैयार किया जा रहा है? ऐसे अनेक असहज करने वाले सवाल हैं, जिन्हें जनता के बीच विमर्श से ग़ायब कर दिया गया है।
इस बीच न सिर्फ़ अनगढ़, अपरिष्कृत विज्ञान को प्रामाणिक बताकर दुनिया के सामने पेश किया जा रहा है, बल्कि सूचना-तकनीक के सहारे हमारे मस्तिष्क पर भी धावा बोल दिया गया है। मस्तिष्कों को अनुकूलित करने के लिए इस कोविड के दौर में जिस प्रकार सूचनाओं के मुक्त प्रवाह को बाधित किया गया और जिस प्रकार कथित ‘आधिकारिक’ सूचनाओं को जन-जन तक पहुँचाने व्यवस्था की गयी है, वह अभूतपूर्व है।[20] लेकिन सवाल यह है कि अगर कोविड की रोकथाम के लिए प्रचारित विज्ञान अपरिष्कृत और ग़लत है, तो फिर परिष्कृत, या ठीक विज्ञान किसे कहेंगे? इस प्रश्न के व्यावहारिक पक्ष का उत्तर तलाशने के क्रम में हम एक ऐसी बहस से टकराते हैं, जो बताती है कि विज्ञान अंतत: ऐसे तर्कों का खेल बन सकता है, जिसमें वस्तुनिष्ठता की बहुत कम गुंज़ाइश रह जाती है और जिससे सत्ताएँ अपने हिसाब से खेलती हैं। बिना वैज्ञानिक चेतना के विज्ञान उस जड़ता, अंधविश्वास को भी जन्म देता है, जो व्यक्ति और समुदायों को लकीर का फ़क़ीर बने रहना सिखाता है।
एक उदाहरण देखें- प्रोफ़ेसर नील फर्गुसन कोविड से होने वाली मौतों के जो उपरोक्त पूर्वानुमान जारी किये थे, वो सांख्यिकी आधारित कंप्यूटर कोड पर आधारित थे। ब्रिटेन, अमेरिका, भारत समेत दुनिया के अधिकांश हिस्सो में लाखों लोगों को बेमौत मार डालने, बेरोज़गार कर ग़रीबी में धकेल देने, मनुष्य की आज़ादी को छीन लेने वाले और डिज़िटल सर्विलांस को वैधता उपलब्ध करवाने वाले जिस लॉकडाउन की शुरूआत हुई, उसे इसी सांख्यिकी आधारित पूर्वानुमान ने ही प्रदान किया था।
इस कोड से निकले ग़लत और अतिशयोक्तिपूर्ण पूर्वानुमानों को कोविड के आरंभ से ही ‘विज्ञान’ बताया जा रहा है[21]। दुनिया के अधिकांश समाचार-माध्यमों और राजनेताओं ने इसी कोड के आधार पर की गयी भविष्यवाणी को आधार बनाकर लॉकडाउन को ‘विज्ञान पर आधारित’ फ़ैसला और स्वयं में महामारी रोकने का ‘विज्ञान’ बताया, जो आज भी जारी है।
लेकिन बाद में हुए अध्ययनों से पता चला कि वह 13 साल पुराना,अप्रासंगिक, अपरिष्कृत कोड था। अलग-अलग लोगों ने जब उस कोड की अलग-अलग जाँच की तो उनके परिणाम अलग-अलग थे।[22] तो क्या इसे विज्ञान कहा जा सकता है? इसका उत्तर हाँ, और न – दोनों में दिया जा सकता है। यह इस पर निर्भर करता है कि आप इसे देखते कैसे हैं। यही कारण है कि लॉकडाउन के समर्थक जहाँ इसे विज्ञान मानते हैं, वहीं विरोधी एक फर्ज़ीवाड़ा कहते हैं। पिछले दिनों इन दोनों मतों के समर्थकों के बीच अख़बारों व शोध-पत्रिकाओं में अच्छी-ख़ासी जंग भी छिड़ी हुई थी।[23]
इस कंप्यूटर कोड को ‘विज्ञान’ मानने वालों का तर्क है कि इसके परिणामस्वरूप लॉकडाउन लगा, जिससे लाखों लोगों की जान बचाई जा सकी, अन्यथा पहले से ही कम संख्या में उपलब्ध अस्पताल कोविड संक्रमितों से भर जाते और जितनी जानें अभी कोविड अथवा ग़ैर-कोविड कारणों से गयी हैं, उससे कई गुना लोगों की मौत होती। इस पक्ष का मानना है कि सही हो या त्रुटिपूर्ण, इस भविष्यवाणी ने सामान्य जन और सरकारों में भय उत्पन्न करने का अपना मूल काम पूरा किया है, इसलिए यह ‘विज्ञान’ है। जबकि इसे छद्म विज्ञान या फर्ज़ीवाड़ा मानने वालों का तर्क है कि इससे अफ़रा-तफ़री मची, जिससे उसकी तुलना में अधिक जानें गयीं, जितनी कि सच्चाई सामने रखने से जातीं। इस पक्ष का मानना है कि अगर वह कोड सही पूर्वानुमान देने में सक्षम नहीं था, तो उस पर आधारित फैसले को विज्ञान पर आधारित कहना ग़लत है।
इस प्रकार विज्ञान क्या है, यह अनेक चिंतकों, दार्शनिकों द्वारा दी गयी परिभाषाओं के बावजूद व्यावहारिक स्तर पर बहुत उलझा हुआ सवाल है। धर्म की ही तरह आधुनिक विज्ञान के नये पुरोहित भी इन सैद्धांतिक परिभाषाओं[24] की अपनी-अपनी सुविधापूर्ण व्याख्याएँ कर सकते हैं।
बहरहाल, इसी से जुड़ा एक और सवाल यह है कि क्या सांख्यिकी को विज्ञान कहा जाना चाहिए? उपरोक्त तर्कों पर ही इस प्रश्न का उत्तर भी ‘न’ और ‘हाँ’, दोनों में हो सकता है।
सांख्यिकी के उपयोग के बारे में एक बोध-कथा प्रचलित है, जो बताती है कि विवेकहीन सांख्यिकी किस प्रकार के करतब कर सकती है। एक ग्रामीण व्यक्ति ने किसी दूर स्थान के लिए सपरिवार – पत्नी और तीन बच्चों के साथ यात्रा शुरू की। वह अपने जीवन में हर काम करने से पहले ख़ूब जोड़-घटाव, गुणा-भाग किया करता था, और इस अति-बुद्धिमत्ता के लिए इलाक़े भर में जाना जाता था। कई दिन की यात्रा के बाद जब एक शाम वह एक गाँव से गुज़र रहा था तो ग्रामीणों ने उसे आगे जाने से मना करते हुए कहा कि आज यहीं रुक जाएँ, आगे गहरी नदी है, जिसे आप सपरिवार बिना नाव के पार नहीं करते सकते। उस व्यक्ति ने पूछा कि नदी की गहराई कितनी है, उसमें पानी का बहाव कितना है, और पार करने के दौरान नदी का सबसे गहरा भाग, कितना गहरा है? लोगों ने बताया कि गहराई 6-7 बालिश्त[25] से कम न होगी। बहाव तेज़ है और जगह-जगह गड्ढे भी हैं। आप न जाइए, इस समय वहाँ कोई नाविक नहीं होगा। लेकिन उस व्यक्ति ने मन ही मन हिसाब लगाया, अपनी, पत्नी की और दोनों बच्चों की लंबाई का औसत निकाला तो पाया कि उसके परिवार की औसत लंबाई नदी की गहराई से ज़्यादा है।
जब वह नदी-तट तक पहुँचा तो अँधेरा घिरने लगा था। नाविक जा चुके थे। लेकिन उसे इसकी कोई फ़िक्र नहीं थी। वह जानता था कि उसके परिवार की औसत ऊँचाई नदी की गहराई से ज़्यादा है। पाँच लोगों का वह परिवार नदी में उतरा, लेकिन दूसरे किनारे पर सिर्फ़ वह अति-बुद्धिमान व्यक्ति, उसकी पत्नी और बड़ी बेटी ही पहुँच सके। उसके दोनों पुत्र नदी में डूब गये। वे दोनों छोटे थे और उनकी लंबाई नदी की गहराई से कम थी। बोधकथा बताती है कि गणित और सांख्यिकी के समीकरणों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल न किया जाए तो वे कैसे घातक परिणाम दे सकते हैं।
वस्तुत: न गणित, न सांख्यिकी, न विज्ञान; मानव निर्मित कोई भी अध्ययन-प्रणाली अभी तक उस तरह स्वत: प्रमाणित नहीं बन सकी है, जिस तरह से उन्हें आधुनिक शिक्षण-पद्धतियों में स्थापित करने की कोशिश की गयी है। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य जाति के भविष्य के गर्भ में जीव-जगत के अध्ययन और नियमन की प्रणालियों का अकूत विकास दबा है, जिनका जन्म मानव-जाति की आने वाली पीढ़ियाँ देखेंगी। लेकिन साथ ही मानवीय विवेक और प्रज्ञा पर तकनीक के हमले का ख़तरा मँडरा रहा है।
विज्ञान की अवैज्ञानिकता और टोटका
दो उदाहरण देखें। भारत समेत अधिकांश देशों में कथित तौर पर कोविड से बचाव के लिए फ़ेस-मास्क के इस्तेमाल को अनिवार्य बना दिया गया है, जबकि इसका साक्ष्य नहीं है कि मास्क वायरस से बचाव कर सकते हैं। इसके विपरीत मास्क पहनने से सुरक्षा की एक भ्रांत धारणा पैदा होती है तथा फेफड़ों की बीमारी से ग्रसित लोगों के लिए अधिक समय तक मास्क का प्रयोग जानलेवा हो सकता है।[26] मास्क एक टोटका है, जिसका उपयोग भय को बनाए रखने के लिए किया जा रहा है। और इसे बहुत छिपाया भी नहीं जा रहा है। हाल ही में भारत में झारखंड सरकार ने अख़बारों में एक विज्ञापन दिया था, जिसमें मास्क नहीं पहनने पर सूबे की ग़रीब, आदिवासी जनता पर भारी-भरकम आर्थिक जुर्माना और जेल का प्रावधान किया गया था। विज्ञापन में उल्लेख किया गया था कि मास्क का प्रयोग “लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए” अनिवार्य बनाया जा रहा है। इसी प्रकार मेघालय सरकार ने एक नियम बनाकर सूबे की पूरी आबादी को “एसिम्पटोमैटिक कोविड कैरियर” घोषित कर मास्क को अनिवार्य बना दिया है। मेघालय सरकार ने अपने इस नियम में कहा है कि राज्य के सभी निवासियों के लिए कोविड प्रोटोकॉल के तीन आदेशों को मानना अनिवार्य है और इनके संबंध में किसी को, कोई भी छूट नहीं है। ये तीन आदेश हैं, “मास्क का अनिवार्य उपयोग, साबुन या सेनेटाइज़र से हाथ की स्वच्छता को बरकरार रखना और हर समय निर्धारित शारीरिक दूरी बनाए रखना (सार्वजनिक ही नहीं, निजी परिसरों में भी)।[27]”
कोविड के बहुत कम मामलों वाले इस आदिवासी बहुल उत्तर-पूर्वी राज्य की सरकार ने अपने इस फ़ैसले का औचित्य बताते हुए कहा है कि “जैसे ही आप सोचते हैं, कि आप कोविड पॉज़िटिव हैं, ताे आपका पूरा व्यवहार बदल जाता है। आप अधिक सतर्क रहेंगे और आपका पूरा व्यवहार बदल जाएगा।[28]”
क्या इस टोटकों को भी विज्ञान कहा जा सकता है? अगर मैं भी कहूँ कि ‘हाँ यह भी विज्ञान है’, तो आप चौंकेंगे। चूँकि सामाजिक भय को बरकरार रखने में इसकी भूमिका को दुहाराया जा सकता है, और यह अपना सुनिश्चित मनोवैज्ञानिक परिणाम देता है, इसलिए यह विज्ञान ही है।
दुनिया में आज लाखों लोग मास्क का विरोध कर रहे हैं। जर्मनी[29] और आस्ट्रेलिया[30] में हाल ही में मास्क का प्रयोग करने के विरोध में लोगों ने बड़ी रैली निकली थी। अमेरिका समेत दुनिया के अन्य देशों में मास्क पहनने को अनिवार्य बनाए जाने के ख़िलाफ़ पिछले महीनों जगह-जगह पर कई छोटे-बड़े विरोध-प्रदर्शन हुए हैं। हो सकता है कि इस विषय पर उठ रहे सवालों के कारण आने वाले समय में मास्क भय पैदा करने की अपनी ताक़त खो बैठे। तब यह ‘विज्ञान’ आउटडेट, पुराना पड़ जाएगा।
दूसरा उदाहरण प्राणि-जगत की सबसे आदिम प्राकृतिक आवश्यकता से जुड़ा है। कनाडा की सबसे नामी चिकित्सा-वैज्ञानिकों में से एक डॉ. थेरेसा टाम, जो कनाडा सरकार की मुख्य चिकित्सा अधिकारी भी हैं, ने कोविड के इस दौर में सेक्स करने के वैज्ञानिक तरीक़े की जानकारी दी है। 2 सितंबर काे जारी एक आधिकारिक बयान में उन्होंने देशवासियों को सलाह दी कि सेक्स करते समय “चुंबन न करें, चेहरे से चेहरे की निकटता से बचें” और मास्क इस तरह पहनें, जो “आपके नाक और मुँह को ढँक सके”। डॉ. थेरेसा टाम ने अपने बयान में यह भी ध्यान दिलाया है कि “अभी तक उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार वीर्य तथा तरल-योनि पदार्थ से कोविड के संक्रमण की संभावना बहुत कम है”। उन्होंने चेतावनी दी है कि लोग अपने घर के बाहर के किसी पार्टनर (प्रेमी/प्रेमिका, लंबे समय बाद मिल रहे पति-पत्नी अथवा सेक्स वर्कर) के साथ किसी भी प्रकार की सेक्स-संबंधी गतिविधि करने से पहले अपने साथी के (कोविड-संबंधी) लक्षणों की निगरानी अवश्य करें। कमज़ोर प्रतिरोध-क्षमता (compromised immune systems) वाले और मोटे लोगों के साथ सेक्स न करें क्योंकि उनके कोविड से पीड़ित होने की संभावना बहुत ज़्यादा है।[31]
इसी प्रकार, जर्मनी में सेक्स वर्कर्स के बीच काम कर रही प्रभावशाली संस्था ‘एसोसिएशन फॉर एरोटिक एंड सेक्सुअल सर्विस (बीईएसडी) ने अपने सदस्यों के लिए ‘हाइजीन कोड’ जारी किया है, जिसके तहत काम के दौरान ग्राहकों का चुंबन लेना व किसी भी प्रकार की ‘ओरल सर्विस’ देना प्रतिबंधित किया गया है तथा फेस-मास्क पहनना तथा कुछ ख़ास गतिविधियों के दौरान दस्तानों के प्रयोग को अनिवार्य बनाया गया है। इस कोड में कहा गया है कि सेक्स वर्कर्स काम के दौरान अपना सिर ग्राहक के चेहरे से कम से कम एक हाथ की दूरी पर रखें।[32]
क्या यह विज्ञान है? अगर हाँ, तो ग़नीमत है कि यह विज्ञान यह नहीं कह रहा कि सेक्स करते समय दो गज़ की दूरी बनाए रखें! अंतत: दो गज़ वह न्यूनतम दूरी है, जो विज्ञान के अनुसार कोविड के संक्रमण से बचाव के लिए आवश्यक है।
बहरहाल, मनुष्य को आरोपित बंधनों से मुक्त करने और प्रेम की उन्मुक्त, उच्छृंखल अभिव्यक्ति वाली इस आदिम जैविक गतिविधि के दौरान क्या उन नियमों का पालन संभव है, जिसे यह कथित विज्ञान प्रस्तावित कर रहा है?
लेकिन, अनेक स्वास्थ्य-संबंधी जर्नल में उपरोक्त विज्ञान को पुष्ट करने वाले शोध प्रकाशित हुए हैं।[33] एनल ऑफ़ इंटरनल मेडिसिन नामक जर्नल में प्रकाशित ऐसे ही एक लेख में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के चिकित्सा-वैज्ञानिकों ने कोविड-संबंधी विज्ञान के संपूर्ण पालन का एक अन्य रास्ता भी सुझाया है। उन्होंने कहा है कि कोविड के दौरान हस्तमैथुन के अतिरिक्त सूचना तकनीक के नये वर्चुअल माध्यमों – फ़ोन, वीडियो चैट आदि के सहारे सेक्स करना सबसे सुरक्षित है।[34]
विज्ञान के नाम पर सुझाए गये इन निदानों में कितनी वैज्ञानिकता और विवेक है, यह अलग से व्याख्यायित करने की आवश्यकता नहीं है। अगर इन वैज्ञानिकों में वैज्ञानिक चेतना होती तो वे लकीर के फ़क़ीर न बनते। साथ ही, वे यह भी देख पाते कि सेक्स-संबंधी जिस वर्चुअल गतिविधियों की सिफ़ारिश वे कर रहे हैं, आने वाले समय में उनका सामाजिक और मनोवैज्ञानिक परिणाम क्या होगा।
मैंने इस कड़ी के अपने पिछले एक लेख में उन साक्ष्यों और अनुमानों को रखा है, जिसके कारण पहले कोविड से होने वाली वाली मौतों के हवाई पूर्वानुमान जारी हुए और बाद में मौतों के आँकड़ों के जमा करने की पद्धति में बदलाव किए गये।[35] दरअसल, असली महामारी जैविक स्तर पर एक वायरस से नहीं, बल्कि लगभग सुनियोजित तरीक़े से अतिशयोक्तिपूर्ण भय के निर्माण से प्रसारित हुई है।[36]
इस लेख में आपका ध्यान मुख्य रूप से विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना के फ़र्क़ की ओर दिलाना चाहता हूँ।
लैटिन से आये ‘साइंस’ (Science) शब्द की उत्पत्ति लैटिन के ‘साइंटिया’ (Scientia) शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘ज्ञान’ ही है। कालांतर में ‘विज्ञान’ ज्ञान-क्षेत्र के ऐसे व्यवस्थित उद्यम के रूप में जाना गया, जो जीव, जगत और ब्रह्मांड के बारे में उन तथ्यों को सामने लाता है जो परीक्षण योग्य हों तथा जिनके आधार पर सटीक भविष्यवाणी की जा सकती हो। दूसरे शब्दों में ‘विज्ञान’ ज्ञान की उस क्रमबद्ध पद्धति को कहा जाता है, जिससे प्राप्त होने वाले परिणामों की पुनरावृत्ति सुनिश्चित हो।
मसलन, एक सेब पेड़ से ज़मीन पर क्यों गिरता है, जब इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में क्रमबद्ध अध्ययन से न्यूटन गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत खोज निकालते हैं तो वह विज्ञान का सिद्धांत है क्योंकि समान परिस्थितियों में बार-बार उसकी पुनरावृत्ति होती है और यह सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है कि गुरुत्वाकर्षण के नियम के कारण यह बार-बार होगा।
इतिहास के विकास क्रम में देखें तो, विज्ञान ज्ञान के सतत विकास का एक चरण है। यह आज उपलब्ध ज्ञान के घनीभूत रूप का एक नाम है, जो एक तरह से ज्ञान का व्यावहारिक पक्ष है। सामान्य-जन के बीच विज्ञान का आशय उन सर्वस्वीकार्य विधियों से है, जिनके परिणाम अकाट्य हों। पिछले कुछ दशकों में जनसामान्य के मन में वैज्ञानिक की छवि किसी विलक्षण मनुष्येत्तर प्राणी की तरह और ‘आधुनिक विज्ञान’ की पहचान भौचक कर देने वाली जादूगरी जैसी बन रही है। वह एक ऐसे नये देवता के रूप में स्थापित हो रहा है, जिसका वरदान ख़ाली नहीं जाता।
विज्ञान की इस प्रतिष्ठा के पीछे जितनी उसकी प्रभावकारिता की भूमिका है, उतनी ही उससे पूर्व की ज्ञान अर्जन पद्धतियों (जिसे सामान्य तौर पर धर्म के किसी न किसी आयाम में संगृहीत करने का प्रचलन था) के पुराने पड़ जाने की भी है। दरअसल, धर्म भी एक पिछड़ा हुआ विज्ञान ही है। धर्म का दावा था कि वह नैतिकता और मानवीयता सिखाता है जबकि विज्ञान का दावा है कि वह स्वयं ही नैतिक और मानवीय है। दोनों द्वारा किये जाने वाले अधिकांश दावों के पीछे इनसे लाभान्वित होने वाले व्यक्तियों और समूहों के हित ही हैं।
विज्ञान का जन्म और विकास भी वैसे ही हुआ है, जैसे कभी धर्म का हुआ था। धर्म भी अपने समय में उपलब्ध सर्वोत्तम ज्ञान का घनीभूत रूप था। वह भी अपने समय के ज्ञान का व्यावहारिक पक्ष था। समस्या तब पैदा हुई, जब उसका प्रयोग शक्तिशाली तबक़ा अपना हित साधने के लिए करने लगा और अपने समय की आवश्यकताओं के हिसाब से पुराने पड़ने के साथ-साथ उसमें पाखंड और फ़रेब की बढ़ोत्तरी होने लगी। जो धर्म के साथ हुआ था, वही कमोबेश आज विज्ञान के साथ हो रहा है। लेकिन बहसों और विमर्शों से सुंदर तथा कल्याणकारी विज्ञान का विकास हो सकता है।[37]
लोक में मौजूद विवेक और प्रज्ञा उसकी आदिम वैज्ञानिक चेतना है, जिसे विकसित किये जाने की आवश्यकता है। लेकिन यह काम आधुनिक विज्ञान की एकतरफ़ा खोजों से नहीं हो सकता, न ही नयी से नयी तकनीक का इस्तेमाल करना सीखने से वैज्ञानिक चेतना विकसित होती है।
विज्ञान और धर्म समेत ज्ञान की प्रणालियाँ हमारे बाहर हैं, जबकि वैज्ञानिक चेतना हमारे भीतर की चीज़ है। वैज्ञानिक चेतना न सिर्फ़ ज्ञान की पुरानी पड़ चुकी प्रणालियों (धर्म आदि) से उद्भभूत अंधविश्वासों, जादू-टोना आदि के निषेध का रास्ता दिखाती है बल्कि आधुनिक विज्ञान के दावों के संदर्भ में भी नीरक्षीर-विवेक उत्पन्न करती है।
वैज्ञानिक चेतना के विकास और विज्ञान को धर्म बनने से बचाने के लिए विज्ञान को उसके कॉरपोरेट पूंजी की आभा से दमकते उसके निर्माणाधीन भव्य मंदिरों से निकाल कर लोक के बीच लाना होगा। उसे बहस, विमर्श और संदेह के दायरे में रखना होगा। इस प्रकिया में विज्ञान को सहस्त्राब्दियों में हासिल मानवीय-विवेक और प्रज्ञा का दिशा-निर्देश हासिल होगा, जो उसे लोकोन्मुख और संवेदनशील बनाएगा। संदेह और बहस की यह प्रक्रिया लोक की अनुभवजन्य वैज्ञानिक चेतना को भी तीक्ष्ण करेगी और उसे ठोस तथ्यों पर आधारित बनाएगी।
दुनिया में सिर्फ़ भौतिक संपदा का ही असमान विकास नहीं हुआ है, बल्कि ज्ञान की प्रणालियाँ जिस तेज़ी से विकसित हुईं हैं, वे अलग-अलग भौगोलिक, सामाजिक व सांस्कृतिक खंडों में रह रही मनुष्य जाति के विकास के समरूप नहीं रही हैं। वर्ण-व्यवस्था (जिसका जन्म भले ही भारत में हुआ हो, लेकिन जिसकी छाया दक्षिण एशिया के बड़े हिस्से में दिखती है) के विशेष संदर्भ में तो यह असमानता समुदायों के लिए निर्धारित पेशों पर भी आधारित रही है। इन कारणों से धर्म और विज्ञान जैसी अपने-अपने समय की नई प्रणालियों पर ऐतिहासिक रूप से विशेष अवसर प्राप्त समूहों से आये व्यक्तियों का आसानी से क़ब्ज़ा हो जाता रहा है।
कोविड के इस दौर का एक अनिवार्य सबक़ यह भी है कि विज्ञान को लोकतांत्रिक निगरानी में लाया जाए, उसके विकास को लोकोन्मुख बनाया जाए तथा हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो जो वैज्ञानिक चेतना के विकास पर बल दे।