प्रमोद साह
18 61 में ब्रिटिश साम्राज्य की येन केन प्रकारेण रक्षा एवं उसके हितों को संरक्षित करने के उद्देश्य से बनाई गई भारतीय पुलिस के दामन में देश की आजादी के संघर्ष में क्रूर दमन के बहुत बदनुमा दाग लगे हैं . आजादी के बाद ब्रिटिश उपनिवेश का संरक्षण करने वाली पुलिस का संवैधानिक उद्देश्य रातोंरात बदल कर एक लोक कल्याणकारी राज्य में जनमित्र पुलिस के रूप में स्थापित हो गया . यही भारतीय पुलिस के चारित्रिक रूपांतरण की बड़ी समस्या है . पुलिस का उद्देश्य तो बदल गया लेकिन पुलिस के संस्कार ,पुलिस की कार्य संस्कृति ,बुनियादी ढांचा नहीं बदल पाया ,इस कारण तमाम कोशिशों के बाद भी समय-समय पर जनता के समक्ष पुलिस का जो चेहरा पेश होता है .वह जनता के हितों के बजाय सामंती हितों की पूर्ति करता अधिक दिखता है .
आजादी के इन 70 सालो मेंअब तक गठित 8 पुलिस सुधार आयोग की तमाम संस्तुतियों ,, सर्वोच्च न्यायालय, एवं मानवाधिकार आयोग के निर्देशो के बाद भी भारतीय पुलिस के दमनात्मक ब्यवहार की कहानियां आए दिन सुर्खियां बटोरती ही रहती हैं . दुनिया के मनोवैज्ञानिकों के लिए आज भी भारतीय पुलिस का यह व्यवहार एक पहेली है .
कैसे समाज के मध्यम , और निम्न मध्यम आय वर्ग से
आने वाली पुलिस सर्वाधिक क्रूरता अपने ही सामाजिक आय वर्ग के मजदूर ,मजबूर और मजलूमो पर ही करती है. आखिर पुलिस को लहरों को गिनने, गधे का कान काट फिर जोड़ देने और रस्सी का सांप बना देने की कला किस ट्रेनिंग में सिखाई जाती है।
यह सब सिखाया तो नहीं जाता, फिर यह विरोधाभासी चरित्र क्यों बार-बार सामने आता है . निश्चित ही अपने कार्य व्यवहार में संवेदनशीलता की कमी के कारण पुलिस जनता का विश्वास जीतने में कामयाब नहीं हो पाई है .एक अध्ययन के मुताबिक पुलिस के संपर्क में आने वाले 100 व्यक्तियों से मात्र 25 व्यक्ति ही पुलिस का भरोसा करते हैं . जबकि सेना के मामले में यह प्रतिशत 54 हो जाता है. दिन रात विषम परिस्थितियों में काम करने के बाद भी पुलिस की विश्वसनीयता का संकट लगातार बना हुआ है .
आज कोरोना के लॉक डाउन के मध्य जहां देश के विभिन्न हिस्सों से दो अलग — अलग धुर्वो की पुलिस की तस्वीरें वायरल हो रही है एक ओर पुलिस का दमनात्मक चेहरा है जो बगैर किसी कारण के निरीह जनता पर जुर्म करता,लाठियां बरसाता दिख रहा है. तो वहीं बहुत बड़े पैमाने में पुलिस का मानवीय चेहरा भी दिख रहा है .पुलिस ने घर-घर जाकर लोगों को राहत पहुंचाने का काम किया है. जरूरतमंदो को सहारा दिया है .
यह विरोधाभास पुलिस की छवि का अभिन्न अंग
है .जब लॉक डाउन के मध्य सरकार की तमाम एजेंसी बैठ गई हैं. इस सैलाब में जब व्यवस्था का सब कुछ डूब रहा हो तब उम्मीद के एक टापू के रूप में , सब जगह व्यवस्था के प्रतीक के रूप में पुलिस ही दिख रही है .पुलिस अपनी निर्धारित ड्यूटी से हटकर भी ड्यूटी कर रही है . चाहे एंबुलेंस उपलब्ध कराने का काम हो, राशन ,दवा की सप्लाई व्यवस्था हो अथवा बाजार में सोशल डिस्टेंसिंग के लिए घेरे बनाने का काम हो सब कुछ मानो पुलिस के जिम्मे आ गया है . यह पुलिस की उजली तस्वीर है . लाक डाउन के इस राष्ट्र ब्यापी संकट के समय पुलिस को शताब्दियों से अपने साथ चली आ रही नकारात्मक छवि को धो देने का एक ऐतिहासिक अवसर प्राप्त हुआ है. अगर इस संकट की घडी में पुलिस संयम और विवेक से अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकेगी तो निश्चित रूप से संकट का यह कालखंड भारतीय पुलिस की छवि के लिए एक चमकदार समय होगा .
यूं तो देश के कुल 21 लाख 45 हजार पुलिस बल में उत्तराखंड पुलिस का हिस्सा बहुत छोटा है .लेकिन देश की सबसे युवा और शिक्षा के राष्ट्रीय औसत में आगे होने के कारण उत्तराखंड पुलिस ने इस अवसर का लाभ लेना शुरू कर दिया है यह शुभ संकेत है.