प्रमोद साह
मजदूरों के बहाने व्यवस्था पलायन : यह भारत की पहली आपदा नहीं है । विभाजन की आपदा से जिस आधुनिक भारत की शुरूआत हुई हो, उस अनिश्चितता के दौर में जब 20% आबादी यानी 7 करोड़ लोग अपने घर से बेदखल हो, गहरे अंधे कुएं में समाए हों।
वहां नौकरशाही के टिमटिमाते दिए ने बहुत जल्द नए शहर मौहैल्ले और बस्तियां बसाई । नए रोजगार के अवसर के साथ ही जमीन के बंदोबस्त तक कर दिए। तब न अधिकारियों की ऐसी फौज थी , न सूचनाओं की ऐसी तकनीक , बस तब सबसे महत्वपूर्ण था। वह था अधिकारियों का संवेदनशील हृदय जो दुख को उसी स्तर पर महसूस करता था और प्रभावी योजनाएं बना लेता था।
बटवारे के समय प्रताप सिंह जैसे नौकरशाह नायक बनकर उभरे जिन्होंने न केवल बस्तियां बसाई बल्कि जमीनों का भी न्याय पूर्ण वितरण किया . आजादी के तुरंत बाद के सालों में सांप्रदायिक दंगे , हर साल यूपी, बिहार ,बंगाल में आने वाली बाढ़ जो साल भर की व्यवस्था को चौपट कर देती थी। उस दौर को भी हमारी नौकरशाही ने बहुत उम्मीद और संवेदनाओं के साथ व्यवस्थित किया ।
आज 21 वी सदी के दो दशक बाद जब वैश्विक महामारी कोरोना ने न केवल मानवता , राजनीतिक नेतृत्व , के साथ ही नौकरशाही की भी परीक्षा ली है । इस संकट के समय जो अव्यवस्था का समन्दर पसरा है । वह आज 50 दिन बाद भी न समझ में आ रहा है, न काबू में ।
यह संकट नौकरशाही का गरीब, मजदूर और किसान के दर्द को न समझ पाने के कारण उत्पन्न हुआ है जिससे इस महामारी के दौर पर ऐसी योजनाएं बनी जिससे अफरातफरी की स्थिति उत्पन्न हुई है । एक योजना घोषित होती है, उसकी असफलता व अव्यावहारिकता देखते ही वह बदल दी जाती है।
एक दौर में विश्व की सर्वाधिक कुशल और संवेदनशील भारतीय सिविल सर्विसेज की सेवाएं अब इतनी कमजोर और मानवीय संवेदना से दूर क्यों हो गई ?क्या सिविल सर्विसेज की चयन प्रक्रिया में कुछ त्रुटि आ गई है ।
मानवीय संवेदना कमजोर पड़ जाने के कारण ही व्यवस्था का यह खुश्क चेहरा हमें दिखाई दे रहा है । यदि ऐसा है तो इसके बुनियादी कारण क्या हैं ।
सिविल सर्विस के ढांचे में कोई तकनीकी कमी उत्पन्न हो गई है ।कि वह इस देश के नागरिकों की आकांक्षाओं को रेखांकित करने में बार-बार चुक रही है . ऐसे कौन से कारण उत्पन्न हो गए हैं कि विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जारी आदेश से हर पांचवा आदेश अदालत की चौखट में पहुंचता है. बल्कि अदालत जिन सवालों के साथ उस आदेश को वापस करती हैं वह निश्चित रूप से ब्यूरोक्रेसी अस्तित्व और योग्यता पर भी सवाल है ।
सिविल सर्विसेज का इतिहास और चुनौतियां :
18 61 के सिविल सर्विसेज अधिनियम के बाद , सिविल सर्विसेज इंडियंस के लिए भी खोल दी गई। 18 63 में श्री सत्येंद्र नाथ टैगोर भारत के पहले भारतीय सिविल सर्वेन्ट हुए . उस दौर में सिविल सर्विसेज में जो भारतीय नवयुवक चयनित हुए उनका भी राष्ट्र के निर्माण में बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा.
1919 के मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार की संस्तुति के बाद भारतीयों का चयन प्रतिशत एक तिहाई कर दिया गया ,1924 में ली कमीशन की रिपोर्ट के बाद भारतीयों का चयन 50% कर दिया गया . उस दौर में सिविल सर्विसेज परीक्षा में आमतौर पर ह्यूमनिटी सब्जेक्ट के के छात्रों का बोलबाला था । इतिहास दर्शन , भाषा विज्ञान राजनीति विज्ञान ,अंतरराष्ट्रीय संबंध जैसे विषयों में स्कॉलर के रूप में भी सिविल सर्विसेज के अधिकारी स्थापित हुए .
संवेदना नैतिकता और समाज के प्रति जवाबदेही के मामले में उस दौर के सिविल सर्वेंट ने बहुत उत्कृष्ट मानक स्थापित किए . आजादी के बाद विभाजन से उपजे विस्थापन का प्रश्न हो ,नागरिक आपूर्ति का संचालन ग्रामीण क्षेत्र में भूख और स्वास्थ्य की समस्या हो अथवा जमीदारी उन्मूलन के बाद भूमि का न्याय पूर्ण बंदोबस्त इन सब महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक सवालो के मानवीय समाधान कर सिविल सर्वेन्ट ने देश के आगे मिसाल पेश की ।
यह आजादी के तुरंत बाद का देश सेवा और आदर्श से प्रेरित समाज का वक्त था. वक्त बदला, समाज बदला और भूमंडलीकरण के उपभोक्तावाद ने तो सिविल सर्विसेज का भी चरित्र बदल दिया ।
वर्ष 1990 के बाद चयन में हयूनिटीज के छात्रों का दबदबा कम होता गया ,मेडिकल और इंजीनियरिंग के छात्रों की संख्या चयन में बढने लगी ।2000 -2001 आते-आते सिविल सर्विसेज में आधे से अधिक चयन इंजीनियरिंग और मेडिकल के छात्रों का होने लगा . टेक्नोक्रेट सिविल सर्वेंट ने व्यवस्थाओं के संचालन में तकनीक का बेहतर उपयोग किया ,जिससे योजनाओं का संचालन आसान तो हुआ , लेकिन उससे #मानवीयपक्ष धीरे-धीरे जुदा होने लगा ।
“समाज उसका इतिहास ,समाज के सृजन की प्रक्रिया ,भूखकामनोविज्ञान, व्यक्ति की गरिमा और मूल अधिकार जैसे शब्द लोक प्रशासन में अपरिचित होने लगे. ”
लक्ष्य और परिणाम केंद्रित सेवा का विकास हुआ तकनीक के अधिकाधिक प्रयोग ने इन चयनो को सही साबित किया।
2011 के बाद तो सिविल सेवा परीक्षा का प्रारूप ही बदल गया अब रिजनिंग और एटीट्यूट के टेस्ट महत्वपूर्ण हो गए, विषय और उसकी गुढता गौण हो गई . तब अचानक इन्जीनिरिंग ,मैनेजमेंट , और मेडिकल बैकग्राउंड के छात्रों के चयन का प्रतिशत 70 तक पहुंच गया. कहते हैं ना, सामान्य दिनों में कामकाज कोई भी चला सकता है। लेकिन असली परीक्षा संकट के समय होती है .!
कोरोनावायरस संकट के समय ही नहीं, बल्कि पिछले दो दशकों से जब भी समाज के आगे बडे संकट आए, तो सिविल सर्विसेज खुद को साबित करने में कामयाब नहीं रही ,
21वीं सदी के शुरूआती सालो से हम यह विफलता तेजी से देख रहे हैं, प्रत्येक राज्य सरकार के कार्यों में न्यायालय का हस्तक्षेप बड़ा है। उसका कारण भी सिविल सर्वेंट का संवैधानिकआधारों को तवज्जो नहीं देना है . सदी के शुरुआत में सांप्रदायिक दंगों में राज्यो का दामन दागदार हुआ, फिर सूचनाअधिकार, शिक्षा का अधिकार ,फूड सेफ्टी बिल, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ,मनरेगा का क्रियान्वयन, नोटबंदी , जी.एस .टी. जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं के क्रियान्वयन में बरती शिथिलता से सिविल सर्वेंट की प्रतिष्ठा प्रभावित हुई है ।
नई पीढ़ी के सिविल सर्वेंट के प्रति एक सामान्य आरोप उसके स्वैच्छाचारी और अहंकारी होने का भी लगने लगा है, रूल आफ लॉ और नागरिक अधिकार उनकी प्राथमिकता में है ही नहीं ।आए दिन जो टकरा हट दिखती है उसका यही कारण है जो बेहद अशुभ संकेत है।
Nikhil Dey, who along with Aruna Roy, has worked for many, many years empowering workers and farmers put this lack of sympathy even more bluntly. In an debate on the migrant crisis, he said, “We are not thinking of them as human beings.”
कोरोना के संकट में , जिस प्रकार आधी अधूरी तैयारियों के बाद बड़ी घोषणाएं की जा रही है, फिर जनता के दबाव में उसे वापस लिया जा रहा है . भूखे गरीब और मजदूर योजना बनाते वक्त प्राथमिकता में नही हैं ।
जिस औरंगाबाद जैसी शर्मनाक घटनाएं घटी हैं . आधे अधूरे इंतजाम के बीच रोज मजदूर और मजबूर की दर्द भरी कहानियां सामने आ रही है वह निश्चित रूप से सिविल सर्वेंट की कामयाबी पर ही सवाल खड़ा जिसका हमें समाधान खोजना होगा ।