रमदा
पिथौरागढ़ में चल रहा “ शिक्षक-पुस्तक आंदोलन ” कई वजहों से अपने आप में अनूठा है। प्याज़ की मानिंद तमाम परतें हैं उधाड़ते जाइए और उत्तराखंड की उच्च शिक्षा का कच्चा चिट्ठा अपनी पूरी नंगई के साथ आपके सामने खड़ा हो जाएगा। दिक्कत इतनी ही है की धीरे-धीरे एक ऐसा दुष्चक्र दिखाई देने लगता है जिससे तोड़ पाना संभव नहीं लगता। इतना उलझाव है की सुलझाने की हर कोशिश समस्या का सिरा खोजने में ही दम तोड़ने लगती हैं।
चलिये, फिर भी प्याज़ छीलना शुरू तो करते ही हैं।
आंदोलन में शामिल छात्र विशिष्ट हैं क्योंकि निकट या दूरस्थ अतीत में कभी भी किताबों के लिए, छात्रों से लेकर शिक्षकों तक की, किसी चिंता को स्वर नहीं मिला। मुख्यतः इसलिए भी कि पुस्तकालय से मिलने वाली “टेक्स्ट-बुक्स” अधिकतर विद्यार्थियों की नज़र में अनुपयोगी होती चली गई हैं और सरल-अध्ययन / गाइड या प्रश्नोत्तर शैली की पुस्तकों को ही अधिकांश विद्यार्थियों ने आधार-पुस्तकों का दर्जा दे दिया है। 50-100 पेज़ की ‘लक्ष्मी’ की तुलना में 500-500 पेज़ की मूल-पुस्तकों की ओर देखना इस दौर में कितना कष्टसाध्य होता होगा आप समझ सकते हैं। उत्तराखंड में जंगली कुकुरमुत्तों की तरह उगे नए महाविद्यालयों (जहां मूलभूत संसाधन तक नहीं हैं) को अलग करते हुए पुराने और संस्थापित महाविद्यालयों के छात्रों के पुस्तकालय-कार्डों की जांच की जाये तो पता लगता है कि बहुसंख्यक छात्र ‘टेक्स्ट-बुक्स’ निर्गत नहीं ही करवाते, पाठ्यक्रम से इतर पुस्तकों या साहित्य की बात तो बहुत दूर का मामला है। ऐसे में अगर कुछ छात्र किताबों की चिंता करते दिखाई दे रहे हैं तो, उनकी संख्या की बात किए बिना, इस पहल का स्वागत किया ही जाना चाहिए।
महाविद्यालयों के पुस्तकालयों में मौजूद पुस्तकों के प्रकाशन-वर्षों की ओर एक नज़र इन्हें पुस्तकालय की बजाय संग्रहालय में रखे जाने की संस्तुति करती है। पुस्तकों की खरीद एक और कोण है जिसे गौर से जाँचे जाने की ज़रूरत है। ईमानदार जांच हो तो पता चलेगा कि एक उच्च-शिक्षा निदेशक के कार्यकाल के दौरान तमाम महाविद्यालयों द्वारा पुस्तकों के क्रयादेश ऋषिकेश के एक विक्रेता-विशेष को ही दिये गए थे। प्रायः दिखेगा कि विभागों द्वारा इच्छित एवं पुस्तकालय हेतु वस्तुतः क्रय की गई पुस्तकों के बीच कोई समानता नहीं होती। ऐसे भी महाविद्यालय हैं जिनके प्राचार्य-विशेष, कमीशन पर, पुस्तकालय हेतु अपने गृहनगर से निजी कार में भर-भर कर किताबें लाते रहे हैं। उनकी कुछ कमाई ज़रूर हुई होगी किन्तु पुस्तकालय उलूल-जलूल किताबों से भर गया। केवल यह पता करिए कि उत्तराखंड के कितने महाविद्यालयों में प्रशिक्षित पुस्तकलायाध्यक्ष नियुक्त हैं तो आप स्वयं स्थिति की गंभीरता के रू-ब-रू होंगे। पुस्तकालयों में कार्यरत कार्मिकों की संख्या इतनी कम है कि पुस्तकालयों का समुचित संचालन संभव ही नहीं है, इसीलिए किताबों को पूरे सत्र के लिए इश्यू किए जाने का प्रचलन है। चार प्रश्नपत्रों की चार किताबें पकड़ो और सत्रांत में लौटा दो। किसी भी महाविद्यालय के पुस्तकालय में जाने का अवसर मिले तो आपको पता चलेगा कि वे दरअसल गोदाम से अधिक कुछ नहीं हैं। एक जमाने में ‘रीडिंग-रूम’ नाम की एक व्यवस्था हुआ करती थी, आज उत्तराखंड के महाविद्यालयों के छात्रों से उनके कॉलेज में इसकी मौजूदगी के विषय में सवाल कीजिये तो उनका समवेत उत्तर नहीं में ही होगा। ये बात दीगर है कि अगर वह होते भी तो अधिसंख्य विद्यार्थी वहाँ नहीं होते।
पिथौरागढ़ में चल रहे आंदोलन की मांग पुस्तकों के अलावा शिक्षकों की भी है जबकि वहाँ प्रदेश के अन्य महाविद्यालयों की तुलना में बहुत अच्छी स्थिति है, चल रहे पाठ्यक्रमों के हिसाब से 109 पद हैं और 101 प्राध्यापक मौजूद हैं। उत्तराखंड में ऐसे तमाम महाविद्यालय हैं जिनमें कई विषयों में एक भी प्राध्यापक मौजूद नहीं है या पाँच / सात सौ छात्रों की ज़िम्मेदारी एक ही शिक्षक पर है। जहां तक अलग-अलग विषयों में प्रवेश प्राप्त छात्रों की तादाद का मामला है, यह संख्या इतनी बड़ी है कि अगर उनका एक चौथाई भी किसी दिन कक्षा में आ जाये तो महाविद्यालय के पास उनको बिठा सकने के लिए न तो कक्ष हैं न फर्नीचर। हाईकोर्ट द्वारा, कुछ साल पहले दायर एक याचिका पर, दिये गए एक निर्णय में कॉलेज में उपलब्ध शिक्षकों और संसाधनों के आधार पर ही सीमित संख्या में प्रवेश दिये जाने का आदेश राजनैतिक दबावों और शिक्षा-मंत्री और छात्र-नेताओं के निजी स्वार्थों की जुगलबंदी से उपजे दो-दो सत्रों में कॉलेज चलाने के खेल की बलि चढ़ चुका है। कोर्ट का निर्णय ज़िंदा है किन्तु अनुपालन की चिता जलाई जा चुकी है। विज्ञान की स्नातकोत्तर कक्षायें सालों से चल रही हैं किन्तु स्नातक-स्तरीय प्रयोगशालाओं से ही काम चलाया जा रहा है। ऐसे में पठन-पाठन एक छद्म नहीं तो और क्या है ?
एन डी टी वी के कार्यक्रम प्राइम टाइम में रबीश कुमार द्वारा पिथौरा गढ़ के आंदोलन की चर्चा के बाद इस आंदोलन को लेकर थोड़ी सुगबुगाहट सी राज्य के कुछ दूसरे महाविद्यालयों में भी हुई और कुछ अन्य नगरों में भी आंदोलन को समर्थन मिलता दिखाई दिया। किन्तु यह जल्दी ही निबट गई. आंदोलन को लेकर उत्तराखंड के स्वनामधन्य उच्च शिक्षा मंत्री ने टिप्पणी की कि यह आंदोलन बाहरी तत्वों द्वारा चलाया जा रहा है। बाहरी तत्वों से उनका आशय उनकी पार्टी से असंबद्ध छात्र-संगठनों से रहा होगा क्योंकि आजकल प्रवेश चल रहे हैं, महाविद्यालयों के प्रवेश द्वारों पर छात्र-संघों के भावी प्रत्याशियों द्वारा नव-प्रवेश प्राप्त विद्यार्थियों का स्वागत एवं अभिनंदन कर रहे पोस्टरों की भरमार शुरू हो गई है। किताबें और शिक्षक एक ऐसा मुद्दा है जिससे हर महाविद्यालय के चुनाव में उछाला जाता रहा है और जाता रहेगा। पिथौरागढ़ में उठाए जा रहे इस मुद्दे के समर्थन में भाजपा से सम्बद्ध छात्र-संगठन चूंकि नहीं आ सकता इसलिए वह हल्द्वानी में “समेस्टर-सिस्टम” को हटाने की मांग को लेकर सक्रिय हो रहा है। एक और बचा, वह पिथौरागढ़ में पुस्तक-शिक्षक आंदोलन को समर्थन तो दे रहा है किन्तु और जगहों पर वह असमंजस में है। रुचिकर यह जानना है कि मताधिकार की आयु को 21 से 18 साल किए जाने के बाद से महाविद्यालय राजनैतिक दलों की नर्सरी बन गए हैं, प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनाव तक में उनका दखल होता है। आपको याद होगा कि किस तरह हल्द्वानी महविद्यालय में हाल तक एक स्थानीय नेत्री की तूती बोलती रही थी और किस तरह एक चुनाव में शिक्षा मंत्री खुद अपने प्रत्याशी के प्रतिद्वंदी का प्रवेश निरस्त करवाने के लिए महाविद्यालय में डटे रहे थे। अब चूंकि पुस्तक-शिक्षक आंदोलन उनका छात्र-संगठन नहीं चला रहा है इसलिए उनका कहना ठीक ही है कि इसके पीछे बाहरी तत्व हैं।
हल्द्वानी महाविद्यालय में प्रवेश-प्रक्रिया में बाधा डालते हुए छात्र-संगठन विशेष के नेतृत्व में सेमस्टर- सिस्टम का विरोध शुरू हुआ है, मंत्री महोदय पहले से ही छात्र हित में इसे हटाये जाने के संकेत दे चुके हैं। अतः बहुत संभावना है कि इस मांग को अमली जामा पहना कर छात्र-संगठन विशेष को छात्र हितों के लिए सक्रिय जता कर चुनाव जीतने में मदद की जाये। आप जानते हैं कि सेमस्टर-सिस्टम दशकों पहले से देश में चल रहा है और उत्तराखंड में इसकी शुरुआत कुछ वर्ष पहले बिना किसी पूर्व तैयारी के की गई। सबसे पहले यह व्यवस्था एक निश्चित प्राध्यापक-शिष्य अनुपात की मांग करती है, उदाहरण के लिए 20 विद्यार्थियों पर एक प्राध्यापक। साल में दो सत्रार्द्ध परीक्षाओं के अतिरिक्त आंतरिक मूल्यांकन इसका हिस्सा हैं। स्नातक, स्नातकोत्तर दोनों स्तरों पर सत्रार्द्ध परीक्षाएँ, प्रायोगिक परीक्षाएँ, आंतरिक मूल्यांकन और पठन-पाठन सभी एक साथ चलाने की कुछ संरचनात्मक ज़रूरतें होती हैं जिनकी ओर देखे बिना उत्तराखंड उच्च शिक्षा के झंडाबरदारों ने ‘सूत न कपास जुलाहे से लठ्ठम लठ्ठा’ की तर्ज़ पर इसे लागू कर लिया। जब तक केवल स्नातकोत्तर स्तर पर लागू रहा किसी तरह गाड़ी धकियाई जाती रही किन्तु स्नातक स्तर पर भी अपना लिए जाने पर संरचनात्मक कमियों के कारण तमाशा खड़ा हो गया। साल में केवल एक बार 50-पेजी गाईडों की मदद से इम्तिहानों की वैतरणी पार कर लेने वाले अधिसंख्य विद्यार्थियों के लिए स्थितियाँ प्रतिकूल हो गईं। कक्षाओं में नियमित या 75% उपस्थिति उत्तराखंड में कभी भी लागू नहीं रही है, आप पता कर लीजिये कि आज तक किस कॉलेज में कितने विद्यार्थी इस आधार पर परीक्षाओं से वंचित किए गए हैं। साल भर कक्षाओं से गायब रहने तथा गाइड के सहारे डिग्री ले जाने की सुविधा और असीमित प्रवेशों ने समेस्टर के आंतरिक मूल्यांकन की धज्जियां उड़ा दीं। एक तो यह कि विषय-विशेष का एक प्राध्यापक आखिर कितने छात्रों का मूल्यांकन कर सकता है और दूसरे वह उन विद्याथियों को कैसे आँके जिनको उसने कभी कक्षा में देखा ही नहीं। संरचनात्मक जरूरतों के बोझ से सरकार को बचा ले जाने और विद्यार्थियों को साल भर गायब रहो किन्तु गाइड के सहारे डिग्री ले जाओ की सुविधा बहाल करने के लिए उत्तरकाण्ड में सेमस्टर-सिस्टम की अकाल मृत्यु तय है।
पिथौरागढ़ में भले ही कुछ अभिभावक धरना दे रहे विद्यार्थियों के साथ खड़े हो रहे हों किन्तु समग्रतः उत्तराखंड में उच्च शिक्षा के स्टेकहोल्डर्स- शिक्षा मंत्री, उच्च शिक्षा से संबन्धित शासन-प्रशासन, निदेशालय, प्राचार्य-प्राध्यापक, विद्यार्थी-अभिभावक कोई भी स्थिति की गंभीरता को समझने के लिए तैयार नहीं है। सरकार के पास कुछ तदर्थ समाधान रहते हैं जिनके सहारे वह दो चुनावों के बीच समय बिताती है, छात्र नेताओं के पास छात्र-संघों के चुनाव से पहले तक ही कुछ मुद्दे रहते है और प्राचार्य-प्राध्यापक-आम छात्र और अभिभावक या तो उदासीन हैं या उम्मीद छोड़ चुके हैं। ऐसे में श्रीलाल शुक्ल (संदर्भ : राग दरबारी) ही सही कहते थे कि भारत में शिक्षा-व्यवस्था सड़क किनारे पड़ी उस कुतिया जैसी है जिस पर कोई भी एक लात लगाकर आगे बढ़ जाता है। (मैं भी तो यही कर रहा हूँ)