रमदा
“कोरोना-काल” में ‘घर पर रहें सुरक्षित रहें’ के सन्नाटे में मुझे इधर कुछ ऐसी आवाजें सुनाई दे रही हैं जो रोजाना की बेमतलब आपा-धापी में पहले पता नहीं कहाँ गुम रहती थीं। अपने घर के सामने के जिन मकानों की ऊपरी मंजिलों में मैं समझता था कि कोई रहता ही नहीं है, वहाँ से ऐसी तमाम पारिवारिक आवाजें बाहर आ रही हैं जिन्हें मुझ तक पहुँचने से पहले ही ट्रैफिक का शोर निगल जाता था। कूड़ा इकट्ठा करने के लिए रोज़ सुबह आने वाली गाड़ी से बजाया जा रहा गाना “गाड़ी वाला आया..भैया कचरा निकाल” भी इधर साफ–साफ सुनाई देने लगा है, और कचरे के नए नए मायने भी सामने आने लगे हैं। आवाजों का यह सिलसिला केवल बाहर से ही आ रहा हो ऐसा नहीं है, भीतर से भी ऐसा ही है। मैं अपने भीतर की इन आवाज़ों को आप तक पहुंचाना चाहता हूँ शायद कोई संवाद कायम हो।
आप जानते ही हैं संक्रमण केवल अँग्रेजी शब्द ‘इन्फ़ैक्शन’ या रोग-संचार से ही जुड़ा नहीं है। ‘ट्रांज़िशन’ या एक स्थिति /अवस्था से दूसरे में प्रवेश के लिए भी इसी का प्रयोग होता है। मौजूदा संक्रमण-संकट में यह भले ही रोग-संचार को ही अभिव्यक्ति दे रहा हो किन्तु संक्रमण-संकट के बाद – कोरोना से पहले और बाद की दुनिया के संदर्भ में – जैसा ‘अरुंधति रॉय’ अपने एक हालिया लेख में कहती हैं “यह एक दुनिया और अगली दुनिया के बीच का मार्ग है, प्रवेश द्वार है। हम चाहें तो अपने पूर्वाग्रहों और नफ़रतों, अपनी लोलुपता, अपने डेटा बैंकों और मृत विचारों, अपनी मृत नदियों और धुंध भरे आसमानों की लाशों को अपने पीछे-पीछे घसीटते हुए इसमें प्रवेश कर सकते हैं। या हम हल्के-फुल्के अंदाज़ में बिना अतीत का कोई बोझ ढोए एक नई दुनिया की कल्पना और उसके लिए संघर्ष की तैयारी कर सकते हैं।” नई दुनिया के सपने के नज़रिये से इस संक्रमण-संकट में तमाम सबक/ नसीहतें हैं जिन पर सोचा और अमल किया जाना ज़रूरी है ताकि भविष्य में उन सारी तकलीफ़ों से बचा जा सके जिनसे हम इस समय रू-ब-रू हैं। बहुत से सवाल हैं जिनके जबाब तलाशे ही जाने होंगे।
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अलाभकारी होती जा रही कृषि और किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला, ग्रामीण भारत में रोजगार संभावनाओं की कमी तथा शिक्षा- स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाओं के अभाव में कस्बों और शहरों की ओर निरंतर बदता प्रवास सीधे-सीधे इशारा करता है कि योजना-आयोग से लेकर नीति-आयोग तक के नेतृत्व में की गई अपनी अब तक की विकास यात्रा में ग्रामीण भारत प्राथमिकताओं में नहीं ही रहा है या यह यात्रा कम से कम वहाँ कुछ सार्थक सृजित कर पाने में असफल रही है। विकास-नीतियाँ और प्रयास शहरी मध्य-वर्ग की इच्छाओं, आकांक्षाओं के इर्द-गिर्द ही घूमते फिरते रहे हैं। ‘लॉक-डाउन’ के तत्काल बाद प्रवासी मजदूरों और मजबूरों का दारुण, भयावह महाप्रवास गवाह है कि जहां भी इनकी वजह से तमाम तरह के कारोबार चलते हैं वहाँ इनकी स्थितियों के प्रति किसी तरह की संवेदनशीलता मौजूद नहीं है, रहा सरकार का सवाल वह तो इनकी तादाद, मौजूदगी और दशा के बारे में जैसे जानती ही नहीं थी वरना इस कदर निर्ममता के साथ इन्हें इनके हाल पर छोड़ सब कुछ बंद करने का आकस्मिक निर्देश नहीं दिया जाता। संक्रमण की संभावना कितनी ही अधिक क्यों न हो और भरे पेट वाले इस आकस्मिक विस्थापन में ‘लॉक-डाउन’ के टूट जाने का कितना रोना क्यों न रोएँ भूख से मौत और कोरोना में से ये खुद कोरोना को ही चुनते हुए खाने की तलाश में बाहर ही निकलते।
* सवाल यह कि क्या कोरोना के बाद के भारत में विकास-प्रयासों / नीतियों के मूल में ग्रामीण भारत होगा ?
## सरकारी राहत-पैकेज पहले भी दिये जाते रहे हैं और इस बार भी दिये जा रहे हैं पर इनकी वितरण-व्यवस्था या ‘डिलीवरी-सिस्टम’ हमेशा सवालों के घेरे में रहा है, इस बार भी है। भारत में बाढ़ और सूखा-राहतों का इतिहास गवाह है कि इनका अधिकांश वास्तविक पीड़ितों के पास पहुँचने से पहले ही कहीं छिर जाता है। इस बार भी सूचनाएँ हैं कि असल पीड़ितों तक राहत नहीं पहुँच पा रही है या उनके पास ऐसे आवश्यक कागज, राशन-कार्ड या आधार-कार्ड, ही नहीं हैं जिनसे उनकी राहत-हकदारी साबित हो सके। कैसी विडम्बना है कि इस संकट में किसी पीड़ित को अपना राहत पाने का अधिकार साबित करना पड़े, राहत भी क्या ये तो किसी तरह भूख से लोगों को बचा सकने की कोशिश भर है. जाहिर है कि सत्तर सालों की लफ्फाजी के बाद भी हम पीड़ितों की पक्षधर एक संवेदनशील वितरण व्यवस्था तक बना सकने में नाकाम रहे हैं।
• सवाल यह कि क्या कोरोना के बाद के भारत में राहत-वितरण से संबन्धित एक संवेदनशील ‘डिलीवरी-सिस्टम’ बना सकने की दिशा में हम या हमारे द्वारा चुनी जाने वाली सरकार कुछ करेगी ?
हर शाम मेरे घर के पास कस्बे का सबसे बड़ा सब्जी बाज़ार लगता है और हर शाम हमारा पाला एक बड़े ट्रैफिक-जैम से पड़ता रहता है। प्रशासन (नगरपालिका—पुलिस—परगनाधिकारी) के किसी भी झंडाबरदार को कभी इतनी फुर्सत नहीं होती कि इस बबाल का कोई समुचित समाधान निकाला जाए। इधर कोविड-19 की वजह से न तो ट्रैफिक है न रेहड़ी वालों का जमघट। संक्रमण-संकट के इस दौर में उन्हें दूर-दूर खड़े होने या फेरी लगाने के लिए कहा जा रहा है, लोगों को सब्जी खरीदने के लिए भीड़ में संघर्ष नहीं करना पड़ रहा है। दरवाजे पर ही सब्जी उपलब्ध है। संक्रमण से मुक्ति के बाद भी ‘मोबाइल-रेहड़ी’ का यह सिलसिला यदि जारी रहे तो अनावश्यक भीड़-भाड़ और ट्रैफिक-जैम से बचा जा सकता है किन्तु भारत में इसे बिल्ली के गले में घंटी बांधने से जोड़ा जाता रहा है, मतलब करे कौन? किन्तु इस समय मैं कुछ और कहना चाहता हूँ। चूंकि यह मेरे घर के पास का बाज़ार है मैं तकरीबन चेहरे से ज़्यादातर को जानता हूँ, इधर उनमें से अनेक के माथे पर मुझे धुंधला या साफ सा लाल या नारंगी एक टीका दिखाई देने लगा है।
• सवाल यह कि क्या हम अभी भी इतने जाहिल हैं या फिर यह हमारे भीतर का जहर है जो इस जहर को और फैला रहा है?
मसला रोग-संचार का है तो स्वास्थ्य-सेवाओं को केंद्र में होना ही है। हमारी सरकारी स्वास्थ्य-सेवाओं और संबन्धित आधारभूत ढांचे की असलियत से सब वाकिफ हैं। बावजूद इसके इस संक्रमण-संकट के दौरान चिकित्सक, नर्सें तथा अन्य तमाम स्वास्थ्यकर्मी बिना समुचित व्यक्तिगत सुरक्षा-आवरणों (पी.पी.ई.) के अपनी जान पर खेल कर संघर्षरत हैं। गैर-सरकारी या प्राइवेट अस्पतालों की दुनिया ऐसी है कि वहाँ सरकार किसी तरह का सार्थक हस्तक्षेप नहीं कर सकती। संक्रमण के खिलाफ मौजूदा संघर्ष में उनकी क्या भूमिका है? लाभ या कमाई वहाँ का मूलमंत्र है, इस लड़ाई में उनका शामिल होना शायद तभी होगा जब उन्हें मनचाही कमाई का अवसर दे दिया जाए। निशुल्क जांच करने के न्यायालय के आदेश को तो वह बदलवा ही लाए।
* सवाल यह कि स्वास्थ्य (और शिक्षा) जैसी आधारक सुविधाएं क्या कोरोना के बाद के भारत में भी बाज़ार-शक्तियों के शिकंजे में ही रहेंगी या वहाँ जनहित की खुली हवा बह पाएगी?
क्या कहते हैं ?