केशव भटृ
एक जमाना था जब खबरें समाज को दिशा देती थी. खोजी पत्रकारिता से सच को सामने लाया जाता था. गंभीर खबरों की कई दिनों तक पड़ताल करने के बाद ही सच्चाई को सामने लाया जाता था. आज की तरह खबरों में जल्दबाजी तो बिल्कुल भी नहीं होती थी.
पिछले दो दशक से अखबारों के सांथ ही टीवी चैनलों की बाढ़ से हर कोई भ्रमित है. किसे सच माने किसे झूठ. हर चैनल-अखबार अपने सच होने का दंभ भरता है. अखबारों ने पहाड़-मैदान को आपस में बांट के रख दिया है. हाल ये हो चले हैं कि मैदानों के सांथ ही अब तो पहाड़ में भी दोएक जिलों को मिलाकर डाक एडिशन बनाकर खबरों का बंटवारा कर दिया है. मैदान में क्या हो रहा है पहाड़ वासियों को पता नहीं चलता है और यही हाल पलायन कर मैदानी ईलाकों में बस चुके पहाड़ के लोगों को ये पता नहीं चलता कि उनके पहाड़ में क्या कुछ चल रहा है. सिर्फ सनसनी वाली आधी-अधूरी अस्पष्ट खबरें ही मैदान-पहाड़ों में दौड़ती हैं.
होने को तो आज के वक्त में प्रेस को स्वतंत्र कहा जाता है, लेकिन व्यावसायिकरण के चलते पत्रकारिता में भटकाव भी देखने को मिल रहा है. आजादी से पहले कई बंदिशों और पाबंदियों में बंधे होने के बावजूद अखबार काफी मुखर होता था. तब न तो उसमें मनोरंजन के लिए जगह थी न ही ये कोई कमाई का जरिया थे. तब अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ आजादी के जांबाजों का एक हथियार और माध्यम हुवा करते थे, जो उन्हें जनता और घटनाओं से जोड़े रखता था. आजादी की लड़ाई के योद्धा इन अखबारों के जरिए अपनी बात जनता तक पहुंचाते थे. यह वह दौर था, जब लोगों के पास संवाद का कोई और साधन नहीं था.
अब तो ज्यादातर खबरें डराती ही हैं. कब, कौन सी सही खबर को गलत बता समाज में चिंगारी सुलगा दें, कहना मुश्किल है. ज्यादातर खबरें पेड न्यूज हो गई हैं. खबरों को तटस्थ परोसने के वजाय तथाकथित कुछेक पत्रकार तो खुद ही खबरों में घुस जज बन फैसला भी लिख दे रहे हैं.
बीते दिनों बागेश्वर में नगर में एक जगह शराब की अवैध बिक्री की सूचना पर उच्चाधिकारियों के आदेश पर पुलिस दल दबिश में वहां गया. पकड़ा-पकड़ी और हुर्र-हुर्र में दो जनों को गिरफतार कर लिया गया. दूसरे दिन वहां जो कुछ भी हुवा मूक सीसीटीवी की फुटेज को देख नगर में उबाल आ गया. हर कोई पुलिस के खिलाफ उठ खड़ा हुवा. अखबार-चैनल चिल्लाए तो पुलिस कर्मियों को सस्पेंड कर दिया गया. डीएम-एसपी को ज्ञापन देने का ऐसा सिलसिला चला कि लगने लगा कि जल्द ही सभी को सूली में नहीं लटकाया गया तो शहर में कयामत टूट पड़ेगी. गिरफ्तार जन को जमानत मिल गई तो उनसे सहानुभूति रख कुछेक उन्हें मुफ्त में अजीबो-गरीब सलाह देने में लग गए. दुकान-वाहन में बरखास्त-सस्पेंड के पोस्टर चिपका विरोध का नया तरीका भी देखने को मिला. मामला तूल पकड़ता गया तो इसे मजिस्ट्रेटी जांच को सौंप दिया गया.
बहरहाल्! ज्यादातरों ने मूक सीसीटीवी की फुटेज को एक ही पहलू से देखा और उसे ही पूर्णतया सच मान पुलिस के खिलाफ आग उगलनी शुरू कर दी. जो अभी भी बदस्तूर जारी है. अभी दो वीडियो सामने आए जिसमें एक महिला ये बोल रही है कि, ‘इन्होंने पुलिस को कॉपरेट करना चाहिए..’ वहीं दूसरे वीडियो में दो जन एक दरोगा पर पिले पड़े हैं.
सच-गलत का फैसला करने वाले हम कौन होते हैं, जब हमारे पास घटना के बारे में सिर्फ सुनी-सुनाई ही बातों के अलावा कुछ सीसीटीवी की मूक वीडियो होती हैं. घटनाक्रम का सीक्वेंस कहां से शुरू हुवा था, मुझे तो नहीं पता. लेकिन कुछ वीडियो में खींचतान से उबाल खाए हुए सच जानने और सुनने को तैंयार ही नहीं हैं तो क्या किया जा सकता है. फिलहाल! मुझे भरोसा है कि, जज बन खुद फैसला सुना चुके तथाकथित संभ्रातजन तो इन दो वीडियो को भी फेक ही कह कु-आर्शीवचन देने में अपनी विद्वता उजागर जरूर करेंगे. यदि आप भद्रजन एक बार ठंडे हो अपने गुस्सेरूपी लावे को कुछ पल के लिए उगलना बंद कर थोड़ा सोच विचार करेंगे तो आपको बहुत सारे उत्तर मिल ही जाएंगे…