गोविन्द पंत राजू
अपने आरंभिक स्कूली दिनों में जब हम लोग माल रोड से मल्लीताल की तरफ आते थे तो मल्लीताल रिक्शा स्टैंड से दांई ओर की चढ़ाई पर एक घड़ी लगी हुई बड़ी सी इमारत अक्सर हमारा ध्यान खींच लेती थी। वह इमारत सी आर एस टी इंटर कॉलेज की थी। हम गवर्नमेंट हाई स्कूल यानी गोरखा लाइन में पढ़ने वालों को सी आर एस टी कॉलेज से एक खास तरह की ईर्ष्या होती थी। इसकी वजह थी कि हमारा स्कूल अलग-अलग बैरकों में बिखरा हुआ था। खेल का मैदान भी बहुत पथरीला था और स्कूल भी बाजार तथा भीड़भाड़ से थोड़ा दूर सा था। हमें इस बात का अफसोस होता था कि हमें खेलने के लिए घर से मल्लीताल फ्लैट्स तक जाना पड़ता है जबकि सी आर एस टी के छात्रों को स्कूल पहुंचने से पहले या स्कूल छूटते ही फ्लैट्स में आकर खेलने का बेहतरीन मौका मिल जाता था। ईर्ष्या का दूसरा बड़ा कारण यह होता था कि सी आर एस टी में हमेशा किसी ने किसी तरह की प्रदर्शनी अथवा कार्यशाला या अन्य कार्यक्रम होते रहते थे। और इन सब के पीछे मुख्य सूत्रधार की भूमिका में होते थे कालेज के प्रबंधक चंद्र लाल शाह ठुलघरिया यानी तबके नैनीताल के हर नागरिक के बुज्यु। बुज्यु से हमारा पहला परिचय बस इतना सा ही था।
कभी कभार बाजार में गुजरते हुए लंबी कद काठी वाले दर्शनीय बुज्यू को देखते ही हम या तो उनकी नजरों से बचने की कोशिश करते या फिर नजरों के सामने पड़ते ही उन्हें हाथ जोड़ देते।बेशक वे हमको तब जानते भी नहीं थे लेकिन उनके व्यक्तित्व का चमत्कार कुछ ऐसा था कि नैनीताल का बच्चा बच्चा उनका सम्मान करता था। और यह सम्मान उनकी संपन्नता का नहीं, एक स्कूल के मालिक /प्रबंधक होने का नहीं बल्कि उनकी विनम्रता ,सहजता , सौम्यता और नए नए तजुर्बे करने के उनके जुनून का होता था। उनके व्यक्तित्व में एक खास तरह का आकर्षण था।
एक बड़े व्यवसाई चेतराम साह और देवकी देवी के पुत्र के रूप में चंद्र लाल साह का जन्म आज से ठीक एक सौ वर्ष पहले 9 जून 1923 को हुआ था। देवकी देवी मनराल परिवार से थीं और उनका विवाह चेतराम साह की पहली पत्नी के निधन के बाद हुआ था । चेतराम साह अन्य कई कारोबारों के साथ मल्लीताल बाजार में कपड़े का भी व्यवसाय करते थे। उनके पूर्वज चंद राजाओं से लेकर अंग्रेजों तक की ट्रेजरी संभाला करते थे । एक सफल व्यवसाई होने के तमाम गुणों के साथ-साथ वे सामाजिक रुप से भी बहुत जागरूक थे । वे बहुत आस्थावान व्यक्ति थे और बड़े शिव भक्त थे। जागेश्वर के बिंदेश्वर मंदिर में उन्होंने एक बड़ा छत्र चढ़ाया था। व्यवसाय में पाई पाई का खरा हिसाब रखने वाले चेतराम साह व्यक्तिगत जीवन में दान शील माने जाते थे संस्कृत विद्यालयों को भी वह दान दिया करते थे। उनका आयुर्वेदिक ज्ञान बहुत ऊंचे दर्जे का था। आयुर्वेद के तमाम नुस्खों को उन्होंने अपनी हस्तलिपि में सुरक्षित रखा था, जिसे बाद में उनके परिवार से किसी आयुर्वेदाचार्य ने हड़प लिया ।हालांकि उनके वंशजों के पास उनकी घरेलू आयुर्वेदिक जानकारियों के बारे में एक छोटी सी हस्तलिखित पुस्तिका अब भी मौजूद है। चंद्र लाल साह के जन्म के बाद ही चेतराम साह ने वर्तमान सी आर एस टी कॉलेज को खरीद लिया था।
आज के सी आर एस टी कालेज की जड़ें देश के पहले स्वाधीनता संग्राम के आस पास तक जाती हैं ।अमेरिकी मेथोडिस्ट मिशनरियों ने 1857 के पहले स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जब सुरक्षा की दृष्टि से बरेली छोड़ कर नैनीताल में आकर रहना शुरू किया तो उन्होंने नैनीताल में 20 अगस्त 1858 को एक स्कूल की नींव रखी। शुरू में कुछ समय यह स्कूल मेथोडिस्ट चर्च में चला और उसी साल सितंबर में इसे नए भवन में स्थानांतरित कर दिया गया । 1888 में विद्यालय को हाईस्कूल की मान्यता मिली।प्रारंभ में इसे मिशन स्कूल या हम्फ्री स्कूल के नाम से जाना जाता था ।
जून 1925 में मिशनरियों ने हम्फ्री स्कूल छोड़ दिया।1925 में सरकार ने असिस्टेंट इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल कुमाऊं डिवीजन को विद्यालय प्रबंधक नियुक्त किया । मगर बाद में सरकार द्वारा भी इसे चलाने में असमर्थता जताने पर लाला चेतराम साह ठुलघरिया ने अपने कुछ मित्रों की सलाह पर 50 हजार प्रदान कर इस ऐतिहासिक संस्था को बचाया ।इस तरह स्कूल को नए प्रबंधन के साथ साथ सी आर एस टी स्कूल का नया नाम भी मिल गया ।सी आर एस टी कालेज ने देश को राजनीति,खेल, साहित्य, कला और विज्ञान आदि विभिन्न क्षेत्रों में जिस तरह की प्रतिभाएं तराश कर दीं उससे यह साबित होता है कि चेतराम साह का स्कूल को लेने का फैसला कितना दूरगामी था।
चंद्र लाल साह ने अपने पिता के व्यवसाय में तो रुचि नहीं ली लेकिन उनके खरीदे हुए स्कूल को आगे बढ़ाने में बहुत योगदान दिया । या यों कहें कि सी आर एस टी और चंद्रलाल साह ठुलघरिया 50 वर्षों से अधिक तक एक दूसरे के प्रेरक और पर्याय बने रहे । बुज्यु के अनेक प्रयोगों की कर्मभूमि बनने का श्रेय भी सी आर एस टी को ही जाता है।लेकिन उन्होंने कभी भी स्वयं को सी आर एस टी इंटर कॉलेज का सर्वेसर्वा मान कर सर्वाधिकार का दुरुपयोग नहीं किया। उनके परिजन बताते हैं कि अगर कोई व्यक्ति सी आर एस टी में नौकरी लगवाने या किसी ऐसे ही अन्य काम की सिफारिश करवाने के लिए घर पर मिठाई लेकर आ जाता तो बुज्यु का पारा गर्म हो जाता था। हालांकि गरीब छात्रों की फीस माफी के लिए वे बहुत संवेदनशील रहते थे और उनकी मदद के लिए सदैव तत्पर रहते थे।
बुज्यु अपने पिता से व्यवसायिक चतुरता तो विरासत में नहीं पा सके या यों कहा जाए कि उन्होंने इसमें कतई रुचि नहीं ली लेकिन अपने पिता के सामाजिक सरोकारों को उन्होंने बहुत शिद्दत से ग्रहण किया और कई गुना आगे बढ़ाया। बुज्यु खुद कहते भी थे कि “ मैं पैदा तो एक वणिक परिवार में हुआ जिसका मकसद व्यापार करके लाभ कमाना होता है लेकिन मेरे लिए व्यापार से ज्यादा सामाजिक सरोकार मायने रखते हैं । लाभ हानि से मुझे कुछ भी लेना देना नहीं।“
बुज्यु के व्यक्तित्व पर उनकी मां देवकी देवी की गहरी छाप थी। उनकी मां जहां एक सम्पूर्ण गृहणी थीं वहीं वे बुज्यु की मार्गदर्शक भी थीं।वे प्रकृति से बहुत प्रेम करती थीं। पेड़ पौधे और पशु पक्षी उन्हें बहुत प्रिय थे।अपने घर में उन्होंने गाय भी पाली थीं और खुद ही उनकी सेवा करती थीं । जंगल के पेड़ पौधों के बारे में उनका ज्ञान अद्भुत था। तमाम पेड़ पौधों और अनेक वन्य जीवों की पहचान और उनके नामकरण का उनका अपना तरीका था।जाहिर है कि मां की छत्रछाया में रहने वाले बालक चंद्रलाल पर इन सब का गहरा असर पड़ता रहा और इसी कारण उम्र के अगले पड़ावों में वे प्रकृति के प्रति अधिकाधिक संवेदनशील एवम समर्पित होते चले गए।
मां से अंतरंगता का एक कारण यह भी था जब बुज्यु लगभग 4 वर्ष के थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया । इसके बाद उनकी मां देवकी देवी ही उनके लिए मां और पिता दोनों की भूमिका निभाती रहीं । यह वो समय था जब चंद्र लाल साह कैशौर्य की दहलीज पर पहुंच रहे थे।इकलौते पुत्र होने के कारण उन पर अचानक बहुत जिम्मेदारियों का भार आ गया था। और यह कहना गलत नहीं होगा कि मां के मार्गदर्शन में उन्होंने बहुत कम उम्र में ही बहुत कुछ सीख लिया। बुज्यू के सबसे बड़े पुत्र और विश्व प्रसिद्ध फोटोग्राफर अनूप साह बताते हैं कि आजादी से कुछ पहले नैनीताल में रहने वाले प्रसिद्ध वन्य जीव प्रेमी जिम कार्बेट और उनकी बहन नैनीताल छोड़ कर जाने वाले अंग्रेजों की संपत्तियों को खरीदने और फिर उन्हें स्थानीय व्यक्तियों को बेचने का काम कर रहे थे। ऐसी ही संपत्तियों में एक हटन हॉल भी था। इस हटन हॉल को बेचने का प्रस्ताव जिम कॉर्बेट स्वयं लेकर बुज्यु के पास आए थे और कहा था कि मेरी दृष्टि में इसको खरीदने के सबसे सुयोग्य पात्र आप ही हैं। बुज्यु ने यह प्रस्ताव तत्काल स्वीकार कर लिया और इस तरह इस तरह हटन हॉल बुज्यु का हो गया। उल्लेखनीय है कि बुज्यु उस वक्त नाबालिग ही थे और इस संपत्ति की रजिस्ट्री के कागजातों में भी बुज्यु को माइनर ही लिखा गया है। इसी तरह का वाकया ज्योली कोट स्टेट का भी है। इस स्टेट के बिकने की खबर पाकर बुज्यु स्वयं ज्योली कोट पहुंचे और जमीन का सौदा कर लिया। उनके बाद नैनीताल के एक और संपन्न व्यक्ति परमा शिवलाल साह भी ज्योली कोट पहुंचे और उन्होंने ज्यादा रकम देकर संपत्ति खरीदने का प्रस्ताव दिया। लेकिन यह बुज्यु की शख्सियत का ही कमाल था कि ज्यादा रकम देने के लालच के बावजूद भी परमा शिवलाल साह का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि पहले सौदा बुज्यु के साथ हो चुका था । गौरतलब है कि 1938 में हुए इस सौदे के वक्त भी बुज्यु माइनर ही थे।
स्कूली दिनों में वे अच्छे खिलाड़ी रहे। क्रिकेट भी खूब खेली।नैनीताल में पहली बार ऑल इंडिया टेबल टेनिस टूर्नामेंट कराने का श्रेय भी उन्ही को है। सी आर एस टी से पढ़ाई पूरी करके वे अल्मोड़ा गए।हालांकि आगे की पढ़ाई के लिए वे इलाहाबाद भी जाना चाहते थे मगर परिस्थितियां नहीं बन पाई।
उनकी प्रतिभा को देखते हुए 30 वर्ष से कम उम्र होने के बावजूद उन्हें 1952 में सी आर एस टी का प्रबंधक बनाया गया और जीवन पर्यन्त वे इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाते रहे। सी आर एस टी उनके लिए एक बड़ी जिम्मेदारी के साथ साथ अपनी जिंदगी के बहुत सारे समय से आगे के अनूठे प्रयोगों की प्रयोगशाला भी बना और उनकी जिंदगी के सबसे बड़े सपने नैनीताल माउंटेनियरिंग क्लब यानी एन टी एम सी का आधार भी ।
हालांकि अपनी जिंदगी में आउट ऑफ बॉक्स सोचने और चीजों को समय से पहले कर डालने का जुनून उनमें सी आर एस टी की जिम्मेदारी संभालने से पहले से मौजूद था । आजादी से पूर्व ही उन्होंने ज्योलीकोट में फ्लोरीकल्चर का काम शुरू कर दिया था। उस जमाने में उनके पास 7 माली थे और वे वहां कई तरह के दुर्लभ फूल उगाते थे।इन फूलों को बिक्री के लिए नैनीताल लाया जाता था और शौकीन अंग्रेज इन फूलों को हाथों हाथ खरीद लेते थे। बुज्यु का यह शौक अपनी दूसरी पारी में फ्लोरिस्ट लीग के रूप में प्रकट हुआ।फ्लोरिस्ट लीग को उन्होंने कर्नल सूदन के साथ मिल कर गठित किया। इसका मकसद नैनीताल के लोगों में नई नई प्रजातियों के सुंदर फूलों को उगाने का शौक पैदा करना था।कई वषों तक फ्लोरिस्ट लीग की पुष्प प्रदर्शनी हम लोगों ने भी देखी थी।
प्रकृति से अंतरंगता उन्हे मौन पालन की ओर भी ले गई।अपने बचपन में उन्हें इस बात से बहुत तकलीफ पहुंचती कि पुरानी तरह के देशी छत्तों से शहद निकालने के परंपरागत तरीके में शहद निकालते वक्त बड़ी संख्या में मधुमक्खियों के अंडे और बच्चे भी मारे जाते हैं।लेकिन 1950 के आस पास जब उन्हें एक पुस्तिका के जरिए यह जानकारी मिली कि मौन पालन के आधुनिक तरीके में शहद निकालते वक्त मधुमक्खियों के अंडों और बच्चों को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंचती तो फिर उन पर मौन पालन का जुनून सवार हो गया । उन्होंने ज्योलीकोट के सरकारी मौन पालन केंद्र के समीप ही अपनी जमीन पर मधुमक्खियों का पालन शुरू कर दिया और एक वक्त में उनके पास 700 – 800 किलो तक शहद तैयार होने लगा था। उन्होंने शहद उत्पादन के साथ-साथ आसपास के ग्रामीणों को भी मधुमक्खी पालन के लिए प्रेरित करना शुरू किया और खुद आधुनिक किस्म के मधुमक्खियों के बक्से बनाने भी शुरू कर दिए , जिनमें मधुमक्खियों के रहने और शहद संग्रहित करने के लिए अलग-अलग हिस्से होते थे।इन बक्सों की देशभर में बड़ी मांग हो गई थी। उन्होंने शहद निकालने की छोटी मशीन भी विकसित करके उसे मौन पालकों को उपलब्ध करवाया।मौन पालन को लोकप्रिय बनाने के लिए नैनीताल में वर्ग मोंट ऐपियरीज के नाम से एक दूकान भी खोली गई,जहां शहद के साथ शहद की टाफियां भी बिकती थीं। उस समय नैनीताल के बहुत सारे घरों में बुज्यू के बनवाए हुए मधु मक्खियों के आधुनिक बक्से दिखाई देते थे।अखिल भारतीय मौन पालन संगठन के वे आजीवन सदस्य नामित हुए और भारतीय मधु मक्खी पत्रिका की संपादकीय टीम के सदस्य भी रहे।इस काम में वे इस कदर डूब गए थे कि एक बार मुंबई में आयोजित प्रदर्शनी के लिए अपने खर्च पर बहुत सारा सामान लेकर पहुंच गए थे। सी आर एस टी के छात्रों के बीच भी वे मौन पालन को प्रतियोगिताएं करवाते थे।
लीक से हटकर नई सोच रखने वाले चंद्रलाल साह का खुद का जीवन भी एक बहुआयामी वर्कशॉप की तरह था जिसमें हमेशा नए-नए प्रयोग होते रहते थे और नए-नए नतीजे सामने आते रहते थे। अपने इन प्रयोगों से वे लोगों को चौंकाते रहते थे तथा कुछ न कुछ नया अनुभव करवाते रहते थे।नाटककार और ख्यात फोटोग्राफर प्रदीप पांडे ने लिखा है कि जब बर्ड वाचिंग इक्का-दुक्का लोग ही समझते या जानते थे , तब उन्होंने कलचुनिया नाम की एक संस्था गठित कर इसे प्रोत्साहित किया और लोगों को पक्षियों के संसार के करीब आने का अवसर दिया । बंगाल में पहली फिल्म सोसाइटी बनने के चंद सालों बाद उन्होंने सीआरएसटी में पहली फिल्म सोसाइटी की स्थापना की शहर में पहला टेप रिकॉर्डर भी वही लेकर आए।सी आर एस टी में कापियों की रूलिंग मशीन वे ही लेकर आए ताकि छात्रों को सस्ती कापियां मिल सकें। नैनीताल की मनोरा पीक में 1961 में उत्तर प्रदेश राजकीय वेधशाला के रूप में ऑब्जर्वेटरी स्थापित होने से पहले ही बुज्यु सीआरएसटी में बच्चों को प्लेनेटोरियम के दर्शन करा चुके थे।
बुज्यु के अनन्य सहयोगी रहे अक्षोभ सिंह ने बुज्यु के नैनीताल में पहली बार टेलीविजन लाने के ऐसे ही एक प्रयोग के बारे में लिखा है कि बुज्यु के करीब आने का मेरा एक अवसर तब आया जब 1958 में बुज्यु ने सी आर एस टी स्कूल में एक बड़ी प्रदर्शनी आयोजित की थी और मैंने पहली बार अचानक अपने को क्लोज सर्किट टीवी में देखा । मेरी जिंदगी में यह पहला अवसर था जब मैंने टेलीविजन सेट देखा था । यह अनुभव मेरे लिए एक ऐसा लम्हा रहा जिसे मैं कभी भुला नहीं सका । ऐसी थी बुज्यु की दूरदृष्टि और समय से कहीं आगे की सोच !
युवाओं की ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में ले जाने के लिए उन्होंने नैनीताल झील में बच्चों और युवाओं को तैराकी सिखाने का कार्य भी किया।इसी तरह स्काउटिंग के माध्यम से छात्रों की रचनात्मकता विकसित करने के लिए भी उन्होंने बहुत काम किया वे लगभग 50 वर्ष तक स्काउटिंग कमिश्नर रहे और नैनीताल में पहली बार स्काउटिंग की अखिल भारतीय जंबूरी का आयोजन कराने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है । नैनीताल में पाइंस के पास उन्होंने स्काउटिंग के लिए भूमि भी आवंटित करवाई थी। बुज्यु के प्रयासों के कारण उन दिनों स्काउट बनने वाले छात्र नंदा देवी के मेले में और अनेक अन्य आयोजनों में जिम्मेदारी निभाते हुए देखे जा सकते थे। कोई दुर्घटना होने पर अथवा किसी अन्य आपात स्थिति में मल्लीताल अस्पताल में खून देने वाले वॉलिंटियर्स में स्काउट सबसे आगे दिखाई देते थे।
अनूप साह अपने पिता के व्यक्तित्व को कुछ इस तरह रेखांकित करते हैं कि उनको हर समय नए-नए चैलेंज चाहिए होते थे । चैलेंज मिल जाए और कोई साथ चलने वाला मिल जाए तो वे किसी भी हद तक जा सकते थे। लोगों को तराशने का कोई भी अवसर वे नहीं छोड़ते थे ।1964 में उन्होंने सी आर एस टी का एक ग्रुप पिंडारी ग्लेशियर भेजा ।13 – 14 साल के अनूप को भी इस ग्रुप के साथ जाने के लिए कहा गया । बुज्यु ने अनूप के लिए आग्फा आइसोली कैमरा खरीदा और उनसे खूब तस्वीरें खींचने को कहा। उस कैमरे से खींची एक तस्वीर आज भी अनूप के घर में लगी है और अनूप उसी को अपनी फोटोग्राफी की शुरुआत मानते हैं। आज दुनिया भर में अपनी फोटोग्राफी का डंका बजा चुके अनूप कैमरे के साथ अपने उस पहले परिचय को कभी भूलना नहीं चाहते और इस बात को भी हमेशा याद रखना चाहते हैं कि किस तरह उनके पिता ने उनको फोटोग्राफी में हाथ साफ करने का पहला मौका दिया था।इस मामले में अनूप अकेले उदाहरण नहीं है बल्कि ऐसे उदाहरणों की संख्या सैकड़ों में है। बुज्यु इस बात में बहुत यकीन रखते थे कि हर मनुष्य के जीवन में अवसर जरूर आते हैं। मगर अवसरों का लाभ वही उठा पाता है जो इसके लिए प्रयास करता है और अपने अंदर क्षमताओं को विकसित करता है।उनकी पूरी कोशिश यही रहती थी कि युवाओं को क्षमताओं के विकास के लिए नए नए अवसर मिलते रहें।
समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास उन्हे लड़कपन से ही होने लगा था।पढ़ाई के लिए दूर दराज के गांवों से नैनीताल आने वाले गरीब युवाओं की मदद के लिए वे हमेशा तत्पर रहते थे। रिश्ते में बुज्यु के भतीजे सेवानिवृत्त लेफ्टीनेंट कर्नल शंभू लाल साह के अनुसार देश के विभाजन के समय नैनीताल में भी इस बात की आशंका थी कि कहीं उपद्रवी लोग लोगों के घरों में आग न लगा दें इसलिए चंद्र लाल साह अपने साथी युवाओं के साथ रात को बाजार और अंयार पाटा इलाके में गश्त करते रहते थे। उसी दौर में जब वेलवेडियर होटल आग लग गई तो बुज्यु और उनके साथियों ने जनधन को बचाने में बहुत मदद की । होली या अन्य किसी मौके पर शहर में कोई अभद्र पोस्टर या नारे लिखे नजर आते तो बुज्यु उसे मिटाने में लग जाते । यह कार्य तो वे बाद के वर्षों में भी करते हुए देखे जाते थे।अत्यधिक संपन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि के बावजूद बुज्यू की रूचि कभी भी पैसा कमाने की नहीं रही , उल्टे वे लोगों की मदद करने और अन्य सामाजिक कार्यों में घर की जमा पूंजी तक खर्च कर देते थे। परेशानियों के वक्त दूसरों की मदद करने के उनके अनेक किस्से हैं जिनमें उनसे मदद पाने वाले सामान्य व्यक्तियों से लेकर नैनीताल के संपन्न व्यवसाई भी शामिल रहे थे। किसी नए काम की शुरुआत करते वक्त वे इस बात की कतई परवाह नहीं करते थे इसके लिए पैसा कहां से आएगा।
युवाओं को साहसिक गतिविधियों में आगे बढ़ाने के लिए वे हरदम तत्पर रहते थे और यह कोशिश करते थे कि किसी को भी अगर कोई अवसर मिला है तो वह किसी छोटी बड़ी बाधा के चलते छूटने न पाए। अनूप जब बी एससी में थे तब उनका चयन उत्तरकाशी स्थित नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में एडवांस कोर्स के लिए हो गया लेकिन समस्या यह थी ऐन उसी वक्त उनकी प्रैक्टिकल परीक्षाएं भी होनी थीं। बुज्यु ने तुरंत इसका समाधान निकाल लिया और कहा कि प्रैक्टिकल तो अगले वर्ष भी हो जाएंगे लेकिन ऐसे मौके बार-बार नहीं आते। इस तरह बुज्यु की पहल पर अनूप को भविष्य के श्रेष्ठ पर्वतारोही के रूप में संवरने का अवसर मिल पाया। अपने संस्मरणों में ऐसा ही कुछ अनुभव एस एस बी अकादमी में उच्च पद पर रहे जेसी ढौंढियाल ने भी लिखा है। ढौंढियाल ने एन टी एम सी से ही पहला प्रशिक्षण लिया था। बुज्यु के प्रयासों से उन्हें उत्तरकाशी में बेसिक कोर्स करने के लिए स्पॉन्सरशिप मिल गई।मगर उसी दौरान उनकी पत्नी गांव में गंभीर रूप से मेनिनजाइटिस से पीड़ित हो गईं।कोर्स में जाने का सपना धूल दूसरी होता इससे पहले ही बुज्यु सामने आ गए और जेसी से कहा के तुम बिना सोच विचार किए उत्तरकाशी चले जाओ तुम्हारी पत्नी का इलाज मैं करवा लूंगा और इसके बाद बुज्यु उनकी पत्नी को उनके गांव बेतालघाट से नैनीताल लेकर आए और उनका पूरा इलाज करवा कर उन्हें सही सलामत वापस भिजवा दिया।
बुज्यु की सोच हमेशा अग्रगामी रहती थी और वे अपने वक्त से बहुत आगे की सोच रखते थे। जिस समय शेरवुड में पढ़ना बहुत बड़ी बात समझा जाता था उस वक्त उन्होंने शेरवुड छोड़कर अपने सीआरएसटी स्कूल में पढ़ाई करने का हैरतअंगेज फैसला किया था।ऐसे ही बाद में उन्होंने अपने दो बड़े पुत्रों अनूप और निर्मल को भी सी आर एस टी में ही पढ़वाया। बेटी सी आर एस एस टी में पढ़ नहीं सकती थी । सबसे छोटे बेटे राजेश के वक्त तक सी आर एस टी की परिस्थितियां बदल चुकी थीं इसलिए उनकी पढ़ाई सेंट जोसफ और शेरवुड में हुई।
रॉकक्लाइंबिंग के लिए लड़कों की तरह ही लड़कियों को आगे लाने के लिए उन्होंने आज से 60 – 70 वर्ष पहले घर घर जाकर परिवार के बड़ों से लड़कियों को साहसिक गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए भेजने का अनुरोध किया था।इस कार्य में उनकी मां भी साथ देती थीं। रूढ़ियों को तोड़ने और समाज की प्रचलित मान्यताओं को अस्वीकार कर सत्य की राह पर चलने की उनकी जो जिद थी वह उनके पर्वतारोही मंझले पुत्र निर्मल शाह की असमय मृत्यु के बाद सामने आई। 1 दर्जन से अधिक पर्वतारोहण अभियानों में भागीदारी कर चुके निर्मल और उनके एक साथी प्रतिमान सिंह की उत्तरकाशी में भागीरथी दो शिखर आरोहण के दौरान एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। कुछ समय पहले ही उनका विवाह हुआ था। इस हादसे के बाद बुज्यु ने निर्मल की पत्नी सुषमा के सामने अपने छोटे बेटे राजेश से विवाह का प्रस्ताव रखा और इस प्रकार एक बड़ी सामाजिक रूढ़ि के खिलाफ जाकर एक अग्रगामी कार्य पूरा कर दिखाया।
निर्मल की असामयिक मृत्यु ने बुज्यु को बहुत झकझोर दिया था।कोई भी इस हादसे से टूट जाता लेकिन वे किसी और ही मिट्टी के बने हुए थे। मैं उस क्षण को कभी भूल नहीं पाता हूं जब निर्मल की दुर्घटना के बाद वे उत्तरकाशी आए थे।काली कमली धर्मशाला में जब हम उनसे मिलने पहुंचे तो वे अंतिम संस्कार के बाद की किसी तैयारी में जुटे थे।पंडित जी उन्हे कुछ समझा रहे थे। हमारी ओर मुखातिब होने के साथ ही उन्होंने अभी अभी बनाई एक रुई की बत्ती हमें दिखाकर कहा देखो आज एक और काम सीख लिया।असीम दुख और वेदना के उन क्षणों में भी उनके भीतर का प्रयोगधर्मी मानस अपना काम कर रहा था।
बुज्यु इस बात पर बहुत जोर देते थे कि मनुष्य को तरह तरह की हॉबीज जरूर पालनी चाहिए। युवाओं को वे अक्सर इस बात के लिए प्रेरित करते रहते थे।अपने बच्चों को भी उन्होंने इस बात के संस्कार दिए थे। उनके छोटे बेटे राजेश कहते हैं कि वे अक्सर हम लोगों से कहते थे कि हॉबी जरूर होनी चाहिए। हॉबी को व्यवसाय में बदल लोगे तो बहुत सुखी रहोगे।
खुद अपनी जिंदगी में भी उन्होंने लगातार नए नए शौक पाले।50 के दशक में उन्होंने डेयरी शुरू करने का भी प्रयास किया। हरियाणा से 10 अच्छी नस्ल को भैंसें मंगवाई गईं।कुछ रास्ते में मर गईं और बची भैंसों से काम बन नहीं पाया।
उन्हे पढ़ने, फोटोग्राफी करने,संगीत सुनने आदि का बेहद शौक था। एक जमाने में उन्होंने अपने घर पर ही फोटोग्राफी के लिए डार्क रूम बनवा रखा था। जब वे गांवों की तरफ जाते तो उनके पास एक कैमरा और एक टेप रिकॉर्डर जरूर होता। वे लोगों की तस्वीरें खींचते और बाद में उनके प्रिंट बनवाकर लोगों को तोहफे के रूप में दे देते। उनकी खींची हुई हजारों तस्वीरों के नेगेटिव रखरखाव के अभाव में खराब हो गए। ऐसा ही कुछ उनकी रिकार्डिंग्स और उनकी किताबों के संग्रह का भी हुआ। संगीत का उनका शौक कुछ ऐसा था कि उन्होंने 50 और 60 के दशक में नैनीताल में डागर बंधुओं से लेकर चंद्रशेखर पंत जैसे कलाकारों के कार्यक्रम करवाए थे और उनकी रिकॉर्डिंग भी की थी। दुर्भाग्य से संरक्षण के अभाव में वह सब दुर्लभ सामग्री बर्बाद हो गई।
मूंगफली और ककड़ी खाने के उनके शौक भी गजब थे। वे एक जेब में मूंगफलियां रखते तो दूसरी जेब में उनके छिलके रखते जाते। अल्मोड़ा के एक बुजुर्ग ने एक बार मूंगफली को लेकर बुज्यु का एक किस्सा सुनाया था कि एक बार जब वे माल रोड में बुज्यु के साथ जा रहे थे तो बुज्यु ने अपनी जेब से कुछ मूंगफलियां निकाल कर उन्हें भी खाने के लिए दीं।बुजुर्ग ने जैसे ही मूंगफली तोड़कर उसका छिलका अपनी आदत के मुताबिक जमीन पर फेंक दिया तो बुज्यु ने उन्हें इस बात के लिए तत्काल टोक दिया। इसके बाद उनकी अच्छी खासी क्लास ली गई।लेकिन इसका असर यह हुआ कि इसके बाद उन्होंने कभी भी मूंगफली के छिलके कहीं बिखराए नहीं। जिन दिनों उन पर ककड़ी खाने का चर्राया था , उन दिनों उनके झोले में हमेशा अलग अलग तरह के घर के पिसे नमक और एक चाकू जरूर रहता था।जहां कहीं वे बैठते ककड़ी की लंबी लंबी फांकें काट कर नमक लगाकर सामने वालों को जरुर खिलाते थे। नैनीताल समाचार के कार्यालय में बुज्यु के साथ ककड़ी खाने का अवसर मुझे भी कई बार मिला है।
उस दौर के अन्य लोगों की तरह बुज्यु भी गांधीवादी और एक तरह से कांग्रेसी थे लेकिन सक्रिय राजनीति में उन्होंने कभी रुचि नहीं दिखाई। राजनेताओं ने अपने चुनाव जीतने के लिए बुज्यु का बहुत उपयोग किया । उनके परिजन बताते हैं कि चुनाव के मौकों पर कई बार बुज्यु कई कई दिन तक घर वापस नहीं लौटते थे और के सी पंत या एनडी तिवारी जैसे बड़े नेताओं के लिए मतदाताओं के बीच ही रहा करते थे। पर इन नेताओं से इतने निकट संबंध होने के बावजूद बुज्यु ने कभी इसका व्यक्तिगत फायदा नहीं उठाया।अपनी छवि के कारण वे ज्योलिकोट से दो बार सभापति बने तो ग्रामसमाज के लिए उन्होंने कई काम करवाए।
इसी तरह नैनीताल नगर पालिका में भी वे कई बार सदस्य रहे। स्नो व्यू जाने वाला जो रोपवे अब नैनीताल का बड़ा पर्यटक आकर्षण है उसकी कल्पना और योजना बुज्यु ने बरसों पहले बना ली थी। नैनीताल नगर पालिका की बैठक में उन्होंने यह प्रस्ताव प्रस्तुत भी किया था लेकिन नगर पालिका ने प्रस्ताव पर हामी नहीं भरी ।नगरपालिका के रिकार्ड्स में बुज्यु का वह प्रस्ताव अभी भी कहीं धूल खा रहा होगा।
उनकी जिंदगी के पन्नों पर नजर डालें तो दिखता है कि उन्होंने हजारों सपने देखे थे । कुछ सपने मूर्त रूप लेने से पहले ही बिखर गए , कुछ सपने शुरू हुए लेकिन ज्यादा नहीं चल सके। मगर उनके ऐसे सपनों की तादाद भी कम नहीं है जो न सिर्फ पूरे हुए बल्कि उन्होंने लंबा सफर भी तय किया और हजारों दूसरे लोगों को भी के सपनों को भी मूर्त रूप देने में अहम रोल निभाया। बुज्यु का ऐसा ही एक बड़ा या यों कहें सबसे बड़ा सपना एनटीएमसी यानी नैनीताल पर्वतारोहण क्लब था।
बुज्यु कहा करते थे , अगर मुझसे यह पूछा जाए कि मैं क्या हूं तो मैं कहना चाहूंगा कि मैं प्रकृति प्रेमी हूं , प्रकृति का उपासक हूं।
जिस तरह वृक्ष, घने जंगल,वनस्पतियां और फूल पौंधे,बहता पानी तथा पशु पक्षी उन्हें जीवंत करते थे उसी तरह पहाड़ भी उनके लिए किसी सम्मोहन से कम नहीं थे। ऊंचे शिखरों का आकर्षण उन्हें हमेशा अपनी ओर खींचता था। 29 मई 1953 को तेनजिंग और एडमंड हिलेरी ने जब पहली बार दुनिया के सर्वोच्च शिखर माउंट एवरेस्ट पर आरोहण किया तो उसके बाद भारत में भी पर्वतारोहण को लोकप्रियता मिलनी आरंभ हो गई। पत्र पत्रिकाओं के बेहद शौकीन बुज्यु एवरेस्ट अभियान के बारे में छपने वाली हर एक सामग्री को बहुत गौर से पढ़ते थे उनके पास उस दौर की पत्र-पत्रिकाओं की बहुत सारी कटिंग भी जमा थीं। बुज्यु के युवा मन में भी एवरेस्ट जाने के सपने हिलोरें लेने लगे थे।जब इकलौते पुत्र होने के कारण इस तरह की अनुमति मिलने की कोई सूरत बनती नजर नहीं आई तो उन्होने दूसरे लोगों को इस काम के लिए तैयार करने का स्वप्न देखना शुरू कर दिया। बुज्यु का यही सपना 1968 में एन टी एम सी के रूप में फलीभूत हुआ। नैनीताल पर्वतारोहण क्लब अब तक लगभग 600 से अधिक विभिन्न कोर्सों के जरिए 40,000 से ज्यादा लोगों को शिलारोहण, पथारोहण और पर्वतारोहण के लिए प्रशिक्षित कर चुका है। क्लब दर्जनों पर्वतारोहण अभियानों का आयोजन और भागीदारी कर चुका है। क्लब से प्रशिक्षित और प्रेरित लोग दुनिया के सर्वोच्च शिखर एवरेस्ट से लेकर पृथ्वी के दोनों छोरों तक पहुंच चुके हैं। एन टी एम सी ने लोगों को साहसिक गतिविधियों के लिए ही तैयार नहीं किया बल्कि उन्हें प्रकृति प्रेम व सामाजिक सरोकारों का संस्कार भी दिया और जीवन में अनेक ऊंचाइयों तक भी पहुंचाया है।
क्लब के मौजूदा सचिव राजेश साह ने लिखा है कि जब चंद्र लाल साह ने एन टी एम सी जैसा सपना देखा तब देश में कहीं भी इस बारे में बात तक नहीं होती थी। लेकिन चंद्र लाल साह युवाओं के भीतर एडवेंचर की भावना कूट कूट कर भर देना और उनकी ऊर्जा को सही दिशा देना चाहते थे। उनकी फलसफा था , ’ कैच देम यंग।’ और उन्होंने इसे पूरा करके भी दिखा दिया।
हालांकि यह इतना आसान भी नहीं था। क्लब के कार्यालय के लिए तो सी आर एस टी में स्थान उपलब्ध हो गया लेकिन प्रशिक्षण के लिए बारा पत्थर इलाके में अनुमति मिलने में कई तरह के पापड़ बेलने पड़े। फिर समस्या आई कि प्रशिक्षण के लिए युवाओं को कैसे तैयार किया जाए। इसके लिए बुज्यु खुद नैनीताल के तमाम परिचित लोगों के घर घर में गए और अभिभावकों को इस काम के लिए राजी करने का प्रयास किया।इसी तरह वे सभी स्कूलों में भी गए और यह समझाने की कोशिश की कि बच्चों को एन टी एम सी भेजने से उनके व्यक्तित्व का किस तरह का सकारात्मक विकास होगा।धीरे धीरे उनकी कोशिश रंग लाने लगी और एन टी एम सी के एक दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम से लेकर तीन दिवसीय इंट्रोडक्टरी ,पांच दिवसीय एलिमेंट्री और सात दिवसीय स्टैंडर्ड प्रशिक्षण कोर्सों में भीड़ बढ़ने लगी।
कई बार क्लब की प्रशिक्षण गतिविधियों को देखने बड़ी बड़ी हस्तियां भी आती थीं ।राज्यपाल व मुख्यमंत्री आदि का आना तो सामान्य बात थी।कभी कभार जब बुज्यु खुद वहां पहुंच चाहते तो सब लोग एकदम सतर्क हो जाते । ऐसे ही एक मौके पर जब नैनीताल ए टी आई के ट्रेनी अधिकारी शिला रोहण का प्रशिक्षण ले रहे थे तो बुज्यु वहां पहुंच गए और हम लोगों से कहा कि ये भविष्य के अफसर हैं इन्हें कुछ और सिखा पाओ या न सिखा पाओ लेकिन प्रकृति से प्यार करना जरूर सिखाना।
बुज्यु ने नैनीताल के लोगों और पर्यटकों में पर्वतारोहण के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए काफी लड़ भिड़ कर नैनीताल फ्लैट्स में बने जीमखाना भवन के निचले हिस्से में एक स्थाई प्रदर्शनी भी लगवाई थी, जिसमें पर्वतारोहण की पोशाक, विभिन्न प्रकार की नौट्स और उपकरणों के साथ-साथ अनेक पर्वतारोहियों और पर्वत शिखरों की तस्वीरें भी लगी हुई थीं।यह प्रदर्शनी कई सालों तक देखने वालों को रोमांचित और प्रेरित करती रही।
एन टी एम सी के जरिए बुज्यु ने एक महत्वपूर्ण कार्य और भी किया था और वह था क्लब की पत्रिका नंदा न्यूज बुलेटिन का प्रकाशन। अक्षोभ सिंह इसके संपादक थे और एक दौर में इसको हिमालयन क्लब मुंबई के हिमालयन जर्नल तथा आई एम एफ की पत्रिका इंडियन मांउटेनियर जैसा रुतबा हासिल था। क्लब की लाइब्रेरी में पर्वतारोहण और साहसिक गतिविधियों से जुड़ी अनेक महत्वपूर्ण तथा दुर्लभ किताबें भी बुज्यु ने जुटाई थीं।
एन टी एम सी को बड़ी ऊंचाइयों तक ले जाना बुज्यु का सबसे बड़ा मिशन था। क्लब की स्थापना का पांचवा वर्ष 30 सितंबर 1972 को पड़ रहा था । इस मौके को यादगार बनाने के लिए बुज्यु ने योजना बनाई कि ठीक उसी दिन पिंडारी ग्लेशियर के इलाके में पड़ने वाले और तब तक के अविजित शिखर नंदा खाट पर सफल आरोहण किया जाए।6611 मीटर ऊंचा नंदाखाट 1932 से शुरू हुए अनेक अभियानों के बावजूद खतरनाक ग्लेशियर तथा तकनीकी कठिनाइयों के कारण तब तक अजेय था । 1970 के एक अभियान में वहां दो आरोहियों की जान भी जा चुकी थी। बेस केंप स्थापित करने के बाद यह तय हुआ कि मौसम बहुत खराब होने के कारण 30 सितंबर को नंदा खाट आरोहण संभव नहीं हो पाएगा इसलिए अभियान दल ने समीप दिखने वाले 5922 मीटर ऊंचे बलजोड़ी शिखर पर सफल आरोहण करके पांचवा स्थापना दिवस मनाया । इसके बाद फिर से नंदा खाट आरोहण की योजना बनाई गई और अंततः कड़ी मशक्कत के बाद 16अक्टूबर को नंदा खाट पर एन टी एम सी का झंडा गढ़ चुका था। अभियान में बुज्यु भी सहायक सदस्य के रूप में शामिल हुए थे। इसी प्रकार क्लब के रजत जयंती वर्ष 1994 में अनूप साह के नेतृत्व में एन टी एम सी ने 53 वर्ष बाद, बेहद खतरनाक और चुनौतीपूर्ण माने जाने वाले 5312 मीटर ऊंचे ट्रेल्स पास को पार करने में सफलता हासिल की। बुज्यु का सपना था कि क्लब लगातार इस प्रकार की उपलब्धियां हासिल करता रहे और वे इस बात में काफी हद तक सफल भी हुए।
हालांकि बाद में एक वक्त ऐसा भी आया जब एनटीएमसी की गतिविधियां थोड़ा शिथिल पड़ने लगी। लेकिन आज भी इस बात को बहुत दावे के साथ कहा जा सकता है कि एन टी एम सी हमारे नैनीताल के विलक्षण स्वप्नदर्शी चंद्र लाल साह बुज्यु के ताज का सबसे खास नगीना है और हमेशा रहेगा।
मां से मिले संस्कारों और उस जमाने के नैनीताल के प्राकृतिक परिवेश ने उनके अंदर प्रकृति के प्रति गहरी अंतरंगता भर दी थी। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है, एक हवादार सुबह मैंने बांज के घने जंगल में बने अपने अयांरपाटा स्थित घर की खिड़की से बाहर देखा तो ऐसा लगा कि पेड़ झूम झूम कर नाच रहे हैं,मानो वे अपने रचनाकार के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित कर रहे हों।फिर सब कुछ थम गया और गहरी शांति छा गई। उस क्षण मेरे मन में विचार आया कि क्या होगा अगर यहां एक भी पेड़ न रहे,अपने लालच में इंसान सारे पेड़ काट डाले ? क्या होगा अगर वृक्षों से मिलने वाला आनंद और सम्मोहन खत्म हो जाए ? क्या होगा अगर हमारा वन आवरण खत्म हो जाए? तब पक्षी कहां गाएंगे,हमें उनकी चहचहाट कैसे सुनाई देगी ,कैसे हम उनका कलरव सुन पाएंगे ,कैसे उनका नृत्य दिखेगा और कौन हमें इस प्रकृति को रचने वाले का अहसास करवाएगा? तब हमारा जीवन कितना आनंद विहीन और अस्तित्वहीन हो जायेगा ?
इस अनुभूति ने उनके भीतर एक खास तरह की संवेदना पैदा कर दी ।इसीलिए वे लोगों को पेड़ न काटने,हरियाली न उजाड़ने और हर शुभ अवसर पर पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करते थे। अपने निजी जीवन में भी उन्होंने इस फलसफे का पूरा पालन करने का प्रयास किया। अंयार पाटा इलाके में जहां उनकी कई संपत्तियां थीं, अंग्रेजों के जमाने में यह नियम था कि चार एकड़ से कम भूमि में बंगले नहीं बन सकते थे। इसमें से भी तीन एकड़ में पेड़ लगे होने जरूरी थे। जिन दिनों परिवार का हाथ जरा तंग था उन दिनों एक बड़े बिल्डर ने उनके एक बंगले को मुंहमांगे दाम में खरीदने का प्रस्ताव दिया। परिवार के कुछ सदस्य इससे सहमत भी थे लेकिन बुज्यु ने सबको साथ बिठा कर कहा जो पैसे मिलेंगे वह तो कुछ समय में खत्म हो जाएंगे।लेकिन वहां पर जो पेड़ लगे हैं वह सब काट डाले जाएंगे ।उसकी भरपाई कैसे होगी ? इसलिए बेचने की बात यहीं खत्म। आज उस संपत्ति में बांज,बुरांश और देवदार के जंगल के बीच परिवार का अंयार जंगल केंप चल रहा है और तमाम पेड़ पौधे व पशु पक्षी आनंद से रह रहे हैं।
इसी प्रकार लोअर डांडा के जिस घर में उनका परिवार पहले रहता था उस इलाके में हाउसिंग बोर्ड कालोनी बनवाना चाहता था । बुज्यु को जब इसकी जानकारी हुई और पता चला कि इसमें बड़ी संख्या में पेड़ काटे जायेंगे। तो इस मामले को लेकर बुज्यु कोर्ट चले गए ।दस साल तक उन्होंने मुकदमा लड़ा।
बाद में 1984 में दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने नारायण दत्त तिवारी उनके पास आए और उनसे कहा कि वे यहां पर हाई अल्टीट्यूट जू बनवाना चाहते हैं , जिसमें पेड़ भी नहीं काटे जायेंगे और प्राकृतिक परिवेश भी जस का तस बना रहेगा।अपने सहपाठी का यह पर्यावरण अनुकूल प्रस्ताव बुज्यु को पसंद आ गया और मात्र तीन लाख रूपए मुआवजे पर बुज्यु ने कई एकड़ की वह सम्पत्ति छोड़ दी।आज वहां पर गोविंद वल्लभ पंत हिमालयन हाई अल्टीट्यूट जू बना हुआ है।
उम्र के तीसरे पड़ाव तक पहुंचते पहुंचते उनकी सामाजिक सक्रियता और अधिक निखर कर सामने आने लगी । रिजर्व बैंक के नियम बदल जाने की वजह से जब नैनीताल के बहुत पुराने दुर्गा मोहन लाल साह बैंक के बन्द हो जाने की नौबत आ गई तो उन्होंने बैंक को बचाने में बहुत सक्रिय भूमिका निभाई । इसका परिणाम कुर्मांचल नगर सहकारी बैंक के रूप में सामने आया । बुज्यु कूर्मांचल नगर सहकारी बैंक के संस्थापक अध्यक्ष बनाए गए।आज उत्तराखंड के शहरी और ग्रामीण सहकारी बैंकों में कूर्मांचल नगर सहकारी बैंक सबसे अच्छा काम कर रहा है।
नैनीताल में अरविंद आश्रम की स्थापना में भी उनका विशेष योगदान था। नैनीताल में अरविंद आश्रम बन जाने के बाद धर्म और अध्यात्म से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण लोगों का नैनीताल आना-जाना आरंभ हुआ और इसकी वजह से स्थानीय लोगों की आध्यात्मिक चेतना में भी काफी परिवर्तन हुआ । कर्मकांड की जटिलताओं में अधिक रूचि न रखने के बावजूद वे बहुत आस्थावान और आध्यात्मिक व्यक्ति थे। महर्षि अरविंद और मां के प्रति उनकी गहन आस्था थी ।इसी तरह स्वामी प्रकाशानंद जी महाराज से , जिन्हें टीट महाराज भी कहा जाता था , उनका अच्छा जुड़ाव था। अपनी इसी आध्यात्मिकता के चलते उन्होंने स्नो व्यू में स्नो व्यू मंदिर ट्रस्ट बनवाया । नंदा देवी मेले में नयना देवी मंदिर में बनने वाली नंदा और सुनंदा की प्रतिमाओं को मुख्य मंदिर के अंदर से बड़े हॉल में स्थापित करने के लिए भी उन्होंने पहल की और लोगों के विरोध के बावजूद इसमें सफलता पाई । इसके कारण लोगों को दर्शन करने में बहुत सुविधा होने लगी ।नैनीताल समाचार के संपादक राजीव लोचन साह मानते हैं कि इस क्षेत्र में बुज्यु का सबसे महत्वपूर्ण काम नैनीताल के नयना देवी मंदिर की व्यवस्था को सही करना था। नयना देवी मंदिर उस वक्त अनेक अव्यवस्थाओं से घिरा था और मंदिर की आय कुछ लोगों के निजी उपयोग में लाई जा रही थी । खर्च कोई हिसाब नहीं होता था । बुज्यु ने इस व्यवस्था को बदलने का बीड़ा उठाया और मंदिर की स्थापना से जुड़े नैनीताल के सबसे पुराने बाशिंदों में से एक मोती राम साह के परिजनों को प्रेरित करके और उनके बीच के मतभेद समाप्त करवा के 1984 में श्री मां नयना देवी मंदिर अमर उदय ट्रस्ट का गठन करवाया। इस कार्य को करने में उन्हें कई तरह की आलोचनाओं, व्यक्तिगत आरोपों और कटुताओं का भी सामना करना पड़ा। कुछ लोगों की नाराजगी भी उन्होंने झेली लेकिन आज उनके प्रयासों का यह सुफल है कि नैनीताल की पहचान का प्रतीक और सबसे प्रतिष्ठित यह मंदिर अब अत्यंत व्यवस्थित और भव्य रूप में दिखाई देता है।उन्हे संस्कृति और कला से भी खास लगाव था । नगर में होने वाले हर अच्छे सांस्कृतिक कार्यक्रम में वे मौजूद होते। युगमंच जैसी प्रसिद्ध रंग संस्था की सफलताओं के पीछे कहीं न कहीं सी आर एस टी और बुज्यु का भी थोड़ा हाथ है।
अपनी रचनात्मकता की वजह से वे अनेक सामाजिक संस्थाओं से जुड़े थे। परमा शिवलाल दुर्गा लाल साह धर्मशाला के वे ट्रस्टी थे । रोटरी क्लब की महिला शाखा इनर व्हील क्लब और बाल शाखा रोटरेक्ट क्लब को नैनीताल में सक्रिय करने में भी उनका हाथ था।रोटरेक्ट क्लब के लिए उन्होंने कई कार्यशालाएं आयोजित कराईं। मधुमक्खियों से मिलने वाले मोम के उपयोग के बारे में ऐसी ही एक कार्यशाला से प्रेरित होकर अनिल विरमानी ने नैनी कैंडल्स की स्थापना की तथा नैनीताल के मोम उत्पादों को नैनीताल के तोहफों में बदल दिया।
बुज्यु जिस तरह बने बनाए रास्तों पर चलने के बजाय खुद की बनाई राहों पर चलने में यकीन करते थे उसी तरह जिंदगी भी उनके साथ खेलती थी।जब वे डेढ़ – दो साल के थे तब एक बार परिवार के साथ जागेश्वर गए। जब उनके पिता पूजा में ध्यान मग्न थे तभी उनकी मां के हाथ से वे जमीन पर गिर गए। जमीन पर गिरते ही वह बेसुध हो गए और यह देख कर सारे लोग बेहद घबरा गए। उनके पिता को ध्यान से उठाने की हिम्मत भी किसी में नहीं हुई लेकिन कुछ देर बाद जैसे ही उनके पिता की आराधना पूरी हुई और उन्हें घटनाक्रम का पता लगा तो उन्होंने तत्काल बालक चंद्र लाल को अपनी गोद में उठा लिया। उनकी गोद में आते ही जैसे चमत्कार हुआ और काफी क्षणों से बेसुध पड़े बालक ने आंखें खोल दी और किलकारियां मारने लगा ।
उनके बुज्यु नामकरण की भी कहानी बड़ी अजीब है। कम उम्र में ही जिम्मेदारियों का बोझ पड़ जाने से उनको रोजाना के कामकाज के लिए अपने बड़े बुजुर्गों से बातचीत करनी पड़ती थी। इस बातचीत में उनके तर्क कुछ ऐसे होते थे जैसे कोई छोटा लड़का नहीं बल्कि कोई अनुभवी बुजुर्ग बोल रहा हो।इसी के चलते बड़े बुजुर्गों ने उन्हें उलाहने की तरह बुज्यु कहना शुरू कर दिया। बुज्यु कुमांऊनी का एक सम्मान सूचक शब्द है जो दादा नाना या ऐसे ही बुजुर्गों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। शुरू में उन्हें यह संबोधन बहुत अटपटा लगता था लेकिन धीरे-धीरे बुज्यु शब्द लोगों की जुबान में कुछ ऐसा चढ़ा कि चंद्र लाल शाह पूरी उम्र के लिए बुज्यु
बनकर रह गए।
सेवा, उदारता,दानशीलता तथा मानवीयता की भावनाओं से भरे मन के साथ नए-नए प्रयोग करने की धुन ,लीक से हट कर काम करने और लगातार समय से बहुत आगे की सोच रखने वाले बुज्यु को अनेक बार कड़ी आलोचनायें सहनी पड़ी ,कई बार कटुताओं को भी झेलना पड़ा। हालांकि हर बार अन्ततः वे ही सही पाए गए मगर उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी कमजोरियां भी थीं कि जिनके चलते कई बार लक्ष्य व सफलताएं उनसे दूर भी होती रहीं।जुनून की हद तक की जिद इनमें से एक थी। वो जो सोच लेते उसे शुरू करने में फिर आगा पीछा नहीं सोचते थे । काम शुरू होने के बाद जब बाधाओं से सामना होता तब उन्हे यह अहसास होता था कि कुछ गड़बड़ हो गई है। हालांकि पीछे हटने के बारे में वे तब भी नहीं सोचते थे। दूसरी समस्या उनकी अत्यधिक सक्रिय मानसिक ऊर्जा के कारण थी । वह जब तक एक काम शुरू करते तब तक उन्हें किसी दूसरे ,और अधिक उपयोगी काम को शुरू करने की धुन सवार हो जाती । इसके कारण पहले वाले काम से उनका ध्यान थोड़ा हट जाता और अगर उसमें जुड़े हुए लोग जरा भी भी ढीले ढ़ाले होते तो वह काम फिर वहीं ठप हो जाता। उनके मस्तिष्क में हर वक्त लगातार कुछ नया करने की योजना चल रही होती और अनेक बार बहुत जल्दबाजी में वह अपनी किसी नई योजना पर काम भी शुरू कर देते।
अचानक अपने किसी विचार से उनका अगर मोह भंग हो जाता तो फिर वह उस बारे में सोचना भी बंद कर देते। ऐसा एक वाकया हमारे साथ ही हुआ था । 1976 में बुज्यु ने नैनीताल से मिलम ग्लेशियर के इलाके में किलर माउंटेन ऑफ कुमाऊं कहे जाने वाले हरदेवल शिखर के आधार शिविर तक ट्रैकिंग की एक महत्वाकांक्षी योजना बनाई। इस योजना में कुछ जरूरी उपकरणों को छोड़कर सारा सामान ट्रैकिंग करने वाले लोगों को खुद उठाकर नैनीताल से पैदल मुनश्यारी और फिर हर देवल आधार शिविर तक ले जाना था। इस अभियान में शामिल होने वालों में हमारा भी नाम था। कई दिनों तक इस बारे में बैठकें होती रहीं, योजनाएं बनती रहीं, हम बेहद उत्साहित होकर तैयारी करते रहे लेकिन फिर न जाने क्या हुआ , अचानक बुज्यु ने इस योजना की फाइल ही बंद कर दी। हम लोगों के लिए , जो अभियान के लिए खुद को पूरी तरह तैयार किए बैठे थे ,यह बहुत बड़ा झटका था। एक-दो दिन तक तो हम कुछ सोच ही नहीं पाए फिर यह विचार आया कि एनटीएमसी अगर अब यह अभियान नहीं कर रहा है तो क्या हम लोग व्यक्तिगत रूप से इसे पूरा कर सकते हैं ? इसके लिए बुज्यु से अनुमति जरूरी थी। मगर सवाल यह था कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे तो बांधे कौन ? फिर बुज्यु बाहर चले गए। उन दिनों तकनीकी सामान तो दूर ट्रेकिंग के लिए जरूरी रकसैक और स्लीपिंग बैग तक मिलने मुश्किल होते थे। बड़ी मुश्किल से शेरवुड कालेज से किसी तरह सामान जुटाया गया और मैं, ओ पी ढौंढियाल,बहादुर सिंह बिष्ट तथा हरीश मेलकानी अभियान पर निकल पड़े।
लगभग 30 दिन बाद जब हम अभियान पूरा करके नैनीताल वापस लौटे तो रिक्शा स्टैंड के पास सीआरएसटी जाने वाले रास्ते में हमारे स्वागत का एक छोटा सा समारोह आयोजित किया गया था। उसके बाद हम लोग पास ही एक रेस्टोरेंट में बैठकर चाय नाश्ता कर रहे थे तभी अचानक बुज्यु वहां पहुंच गए। दरसल उनको बाजार में इस बात की जानकारी मिली थी । बुज्यु के वहां पहुंचते ही हम लोग किसी आशंका से अचंभित होकर हड़बड़ी में खड़े हो गए। लेकिन बुज्यु की सौम्य मुस्कुराहट भरी बधाइयों ने सब कुछ सामान्य कर दिया। बाद में उन्होंने हमें एनटीएमसी से प्रमाण पत्र भी दिए और सीआरसीटी में छात्रों के बीच अपने अनुभव सुनाने का अवसर भी।
बुज्यु के चरित्र की अपनी अलग विशेषताएं थीं या यह कहें कि वे किसी और ही मिट्टी से बने थे। वे हमेशा दूसरों के लिए सोचते थे ।उनकी कमजोरियों ने कभी भी किसी का अहित नहीं किया जो भी नुकसान हुआ वह स्वयं उन्हीं का हुआ। व्यक्तिगत अति संवेदनशीलता के चलते भी कई बार उन्हें परेशानियों और आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा था। उनके अभिन्न सहयोगी अक्षोभ सिंह का मानना है कि बुज्यु अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि उनका आत्मसम्मान कभी उनको सत्ता या अधिकार प्राप्त ऐसे लोगों के सामने झुकने नहीं देता था, जिन्हें अपने सामने झुकने वाले लोगों को ही पसंद करने की आदत थी।वे स्पष्टवादी थे । किसी की चापलूसी अथवा खुशामद तो वे कर ही नहीं सकते थे।
अस्सी के दशक की शुरुआत से बुज्यु प्रायः एक बात कहा करते थे कि 1980 के बाद पैदा होने वाले बच्चों में ईश्वरीय गुण होते हैं , उनका आई क्यू हम लोगों से बहुत ज्यादा होता है।
यही बात खुद बुज्यु के लिए भी कही जा सकती है कि 9 जून 1923 को पैदा हुए उस बच्चे को भी ईश्वर ने कुछ खास गुण देकर भेजा था । जीवन में कुछ नया करने के लिए और लोगों के बीच अपनी अमिट छाप छोड़ जाने के लिए।आज वे नहीं हैं परंतु उनकी रचनात्मकता और सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पण हम सब को उसी तरह प्रेरित कर रहा है जैसा उनके जीवन काल में करता रहा था। नैनीताल की हवाओं में उनके विचार और कार्य हमेशा लोगों के लिए एक प्रेरणादाई स्पर्श बनकर महकते रहेंगे।