मृगेश पांडे
सधे हुए शब्दों के साथ बजट के पीछे बहुत सारी आवाजें छुपी होती हैं. चेहरे भी. आत्मनिर्भर भारत के भाव ताल विलम्बित होते गाँव और किसान की खुशहाली के राग से झंकृत होते हैं. जान और जहान को बनाये रखने के स्वर यथार्थ में भोगी जा रही अवनति को स्वम स्फूर्ति द्वारा प्राप्त विकास के विश्वास से तरंगित करते हैं. लाल रंग के मखमली लिफाफे में सुनहरा अशोक चिन्ह खुबा है जिससे मेड इन इंडिया टेबलेट निकलती है. एक घंटे पचास मिनट तक वित्त मंत्री की उँगलियाँ टेबलेट पर थिरकतीं हैं. पश्चिमी बंगाल की लाल पाड़ की साड़ी में सुसज्जित शांत सहज सौम्य निर्मला माई डिजिटल फॉर्मेट में उभरी टेगोर की कविता के बोल से शुभारम्भ करतीं हैं,”विश्वास वह पक्षी है जो प्रकाश को महसूस करता है और जब भोर अंधेरा होता है तो गाता है “.यह पिछले साल से कितने तनाव दबाव कसाव झेल रही अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ते जाने का सन्देश है . सड़ गल चुकी जी डी पी के माइनस हो गए आंकड़े को फिर से धनात्मक करने के लिए भौतिक पूंजी की जरुरत व इसके लिए विनिवेश का विकल्प हो चुकी आपदा को अवसर बनाने की संकल्पना है . जटिल कानून हटें, अनुसन्धान व शोध को स्फूर्ति मिले , मानव पूंजी में नवजीवन आए , स्वास्थय और कल्याण की बेहतरी हो , बड़े पैमाने पर उत्पादन आधारित योजना के लिए भौतिक और वित्तीय पूंजी का प्रबंधन हो तभी समवेशी विकास संभव बनेगा. पिछले कई रिवाज छोड़ने होंगे नये विकल्प रखने होंगे .
इस बार कोई नया कर या उपकर नहीं लगा.माना गया कि खेती किसानी वाला प्राथमिक क्षेत्र ही अर्थव्यवस्था का वह मजबूत आधार रहा जिसने भोगी जा रही आपदा में देश की रीढ़ टिकाये रखी. इसलिए जरुरी माना गया कि किसानों का कल्याण हो. पर उनकी आय बढ़ाने के लिए फौरी तौर पर बजट में कोई व्यवस्था नहीं दिखती. पर किसान जहां अपनी फसल बेचते हैं उन सरकारी मंडियों के बुनियादी ढांचे को मजबूत और सबल बनाया जाएगा. हज़ार मंडियां पोर्टल से जोड़ने के लिए ऑनलाइन की जाएंगी.किसानों को आसान और सस्ती दर पर मिलने वाले कर्ज की राशि भी बढ़ा दी गई. पशु पालन, डेरी और मतस्य पालन में भी ज्यादा उधार मिलेगा. धान, गेहूं, दाल और कपास की सरकारी खरीद कई गुना बढ़ी तो सभी जिंसों के लिए उत्पादन की लागत से कम से कम डेढ़ गुना कीमत मिले किसान को तो एम एम पी में बदलाव किए गए. साथ ही ऑपरेशन ग्रीन योजना का दायरा बढ़ा निर्यात किए जाने वाले आलू, प्याज, टिमाटर के संग बाईस नये उत्पादों को शामिल किया गया. सूक्ष्म सिंचाई योजना में अधिक बजट तो ग्रामीण अवसंरचना कोष को भी. कृषि और किसान मंत्रालय को भी अधिक राशि मिलेगी जिसका आधा हिस्सा प्रधान मंत्री किसान योजना पर खर्च होगा. बजट के दिनों में एक ओर किसानों के लिए कील कांटे बिछ रहे थे तो कृषि विकास के लिए, कृषि निर्यात के लिए नई नवेली योजनाओं की लड़ियाँ बजट में भरपूर पिरोई गईं थीं . आखिर कार उन्हें आत्मनिर्भर बनाना है. ये जानते हुए भी कि खेती का रकबा धीरे धीरे सिमट रहा. लागत बढ़ रहीं.विदेशों से अनाज आयात हो तो उससे लागत का मुकाबला नहीं हो सकता. तमाम विकसित देश अपने फार्मर्स को भारी अनुदान दे रहे ताकि कीमतें नीची रहें.देश में भी ऐसी एकाधिरात्मक प्रतियोगिता खेती में पसर गई है जिनका शुद्ध मुनाफा कुछ गिने चुने कारटेल उठा पाने में समर्थ हैं तो साथ ही वह खेतिहर भी जिनके हल बैल, उधारी के दलदल और आत्म घात के दृष्टान्त कहीं हाशिये में सिमट गए हैं.
प्रस्तुति में नवोन्मेष लिए स्वनिर्भरता की चाह भरे बजट से मांग और पूर्ति वाले ज़ालिम अर्थशास्त्र की वफ़ा देखिये कि बजट के आने की हेड लाइन के बाद आयकर में कोई छूट न मिलने पर लोगों के बड़े समूह वाला मध्य वर्ग जो सबसे ज्यादा कर दान क्षमता वाली केटेगरी में आता प्रदर्शन प्रभाव उपजाता उदासीनता ओढ़ सर्दी में दुबक गया .उनकी उम्मीदें ख़ाक थीं तो खाली पीली बहस कर बजट का प्रचार क्योँ करें की टोन लिए उनकी मुद्रा भी भावशून्य हो गईं . इस बार सोशियल मीडिया में समर्थन और विरोध की खिचड़ी भी जल्दी ही पक गई. बस पिचहतर साल से ऊपर वालों की वल्ले वल्ले थी वो भी तब तक जब वह बचत एक सीमा तक ही करें. तभी बुजुर्गों को आय कर पर समूची माफ़ी मिले.
बजट ने सबसे ज्यादा खींचा शेयर बाजार को जो अम्मा के वचनों से ऐसा सम्मोहित हुआ कि लगातार तीसरे दिन पचास हज़ार की सीमा को छू गया. ज्ञानी ध्यानियों ने माना कि बजट बाजार के लिए अच्छा है क्योंकि कोई नया कर भी न लगा. इससे यह साफ हो गया कि बाजार पै कब्ज़ा- दखल आम से बढ़ कर खास का होगा. बाजार की यही रवायत है. रिलायंस के साथ एच् डी एफ सी बैंक, इंडसइण्ड बैंक, एक्सिस बैंक,एयरटेल, पावर ग्रिड, डॉ रेड्डी, सन फार्मा, एन टी पी सी ने दम दिखा दी.वहीं कोटक बैंक, आई टी सी और मारुती झटक गए. कोरोना झेलने के बाद इधर के तीन महीनों में कंपनियों के मुनाफे खूब बढ़े. घरेलू बाजार को वैश्विक बाजार की बढ़त का भी खूब सहारा मिला. यूरोप, अमेरिका, कोरिया और जापान के शेयर भी तेज रहे.
देसी विदेशी बाजार की तेजी है तो है तो देश में असंगठित क्षेत्र और विशेष कर शहरी श्रमिकों की अनगिनत समस्याओं को सुलझाने में विकास नीतियों के मंद पड़ जाने के संकेत भी साफ दिखे. कई लोक कल्याण कारी योजनाओं के आवंटन को खुरच -छील कम कर दिया गया .खाद्यान्न सब्सिडी और मनरेगा को मिली रकम भी सापेक्षिकतः कटौती की शिकार बनी . खाद्यान्न सब्सिडी में “ऑफ बजट कर्ज” के रिवाज को वित्त मंत्री ने झटके से तोड़ घाटे के आंकड़े को साफगोई से सामने रख दिया . ये ऐसे उधार होते थे जिन्हें सरकार खुद न ले किसी सरकारी संस्था से लेने के लिए दबाव बनाती थी. निश्चय ही ऐसे उधारों से तौबा कर सरकार के खर्चे पूरे करने की परंपरा भी तोड़ी गई . अब सरकार मनरेगा जैसी कुछ ही योजनाओं में खर्च की सोच रही और कई अन्य योजनाओं का खर्च तो घटा भी दिया गया . वह चाहती है कि राज्य बाजार से उधार लें. इसका तर्क यह बनाया गया है कि केंद्र के करों में राज्य की हिस्सेदारी बहुत कम हो गई है .स्वाभाविक है कि राज्यों के बजट अब कुछ समय बाद यानी दीर्घायु में प्रभावित होंगे. सरकार ने जो खर्च में वृद्धि की वह सब्सिडी और मनरेगा के द्वारा फौरी राहत जैसी थी.लॉक डाउन के दौर में अनेक जनकल्याण कारी योजनाओं पर खर्च की राशि बढ़ाई गई थी.रियायती दरों पर कमजोर वर्ग को खाद्यान्न वितरित हुआ और चालीस करोड़ से ज्यादा आबादी को प्रत्यक्ष नकद स्थान्तरण किया गया. पर इसे अब इस साल स्थगित कर दिया गया . अब सरकार की मंशा है कि कल्याण कारी योजनाओं पर व्यय न बढ़ा पूंजीगत व्यय और वृद्धि दर बढ़ाने वाली योजनाओं पर निवेश हो.जॉर्ज मेनार्ड केन्स ने प्रभाव पूर्ण मांग को बढ़ाने के लिए विनाशकारी मंदी से निबटने का ऐसा ही फार्मूला दिया था. इसमें सुधार कर हैरोड डोमर मॉडल ने भी पूंजी गत व्यय बढ़ाने पर जोर दिया और वारेंटेड रेट ऑफ ग्रोथ का फलसफा समझाया. पर ये पूर्ण रोजगार की मान्यता लेते थे. जबकि भारत तो अल्प रोजगार संतुलन की दशा है. पूंजी के प्रबंध के लिए विनिवेश का औजार है और आई पी ओ की मज़बूरी. इस तरह किए गए पूंजीगत प्रबंध से विनियोग के लिए व्यय को समंजित करना है. संकल्पना ली गई है कि ऐसे समायोजन से विकास की गति बढ़ेगी और अगर विकास गति पकड़ गया तो वह सारी अन्य समस्याओं का उन्मूलन कर देगा.यहाँ इस बात का तनाव तो उभरता ही है कि श्रम बाजार के अनगिनत संकटो के दौर में जब निर्धन वर्ग अपनी आय के सिकुड़ जाने और काम के लगातार धटते अवसरों से परेशान हैं तभी कल्याणकारी योजनाओं के खर्चे कम कर देना उनकी क्रय शक्ति को समेट देगा जिससे उनकी जेबों के छेद और बढ़ेंगे. इससे कुल प्रभाव पूर्ण मांग भी सिमटेगी.साथ ही पूर्ति की हर क्षेत्र में अपनी समस्याएं हैं. खाद्यान्न क्षेत्र तो सबल है पर निर्माण व सेवा में अतिरंजित उतार चढ़ाव. इनका सम बनाये रखना ही सर्वाधिक कुशलता की चाहत रखता है.
सो अब केंद्र प्रायोजित योजनाओं पर खर्च बढ़ा है. इधर जो भी आर्थिक सुधार हुए वह असमानता को बढ़ाते रहे .वैसे भी इधर छोटी कंपनियों और असंगठित क्षेत्र के बूते बड़ी कंपनियों ने मुनाफे वसूले थे . कोरोना काल के असमंजस और आपाधापी से अब असंगठित क्षेत्र में श्रम का संकट और गहराया है. सामाजिक कल्याण और विषमता का समर्थक अर्थशास्त्र तो यही कहता है कि बहुसंख्यक आबादी की क्रय शक्ति बढ़े तभी वह बाजार में मांग पैदा करेंगे पर यहाँ तो चाल रिवर्स गेयेर की दिख रही . लॉकडाउन के बाद से असमानता गहरातीं गईं, रोजगार छिने, छोटी इकाइयां या तो बंद पड़ गईं या क्षमता से कहीं नीचे काम करने पर मजबूर हुईं.
अब अंतर्संरचना निर्माण पर जोर है.साथ ही पुरानी के साथ नई रणनीति का घालमेल इसमें शामिल है.इसमें विदेशी विनियोग भी बढ़ाया जाना है.अंतर्संरचना निर्माण के इस कार्यक्रम में राजमार्ग के साथ पब्लिक ट्रांसपोर्ट, मेट्रो, रेल, शहरी परिवहन और जलमार्ग जैसे क्षेत्रों के लिए भी लक्ष्य तय किए गए हैं. अब एक विकास वित्त संस्थान बनाये जाने की बात कही गई है. इसे एक महत्वपूर्ण, निर्णायक व गेम चेंजर की तरह देखा जा रहा है. वस्तुतः नयापन सिर्फ यह कि आधारभूत क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी रहेगी. यह संकल्पना रहेगी कि निजी कंपनी सड़क, रेल, एयरपोर्ट, बंदरगाह व माल ढुलाई के गलियारों को संचालित करेगा. यह विकास वित्त संस्थान बीस हज़ार करोड़ रूपये के बजट आवंटन से शुरू होगा और अगले तीन वर्षों में पांच लाख करोड़ रुपये कि संपत्ति को बना लेने का लक्ष्य रखेगा.यह भी ध्यान रखा गया है कि विशेषकर जिन राज्यों में जल्द ही विधान सभा चुनाव होने हैं वहां इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के लिए अधिक आवंटन किया जाय.यह सब एक सौ ग्यारह लाख करोड़ रुपये की राष्ट्रीय अंतर्संरचना पाइप लाइन निर्माण के लक्ष्य से श्रृंखलाबद्ध की गईं हैं.
अंतर्संरचना में विनियोग एक दीर्घ समय अवधि अंतराल की अपेक्षा करता है तब जा कर इसके लाभ मिलते हैं जो जरुरी नहीं कि प्रत्यक्ष रूप से आय का सृजन करें. इस बजट में जिस पूंजी गत व्यय की प्रस्तावित वृद्धि की जाने वाली है वह गैर -पूंजीगत व्यय के बूते पर टिका दी गई है. सामान्य समय में इसको ठीक ठाक माना जा सकता है पर कोरोना संकट से उपजे असंतुलन में तो यह आजीविका के प्रश्न की उपेक्षा ही करता है.
अंतर्संरचना पर जो निवेश प्रस्तावित है उसके तीन पहलू हैं. सर्वप्रथम संस्थागत संरचना को बनाना, दूसरा मौद्रिक परिसंपत्तियों को जुटाना और तीसरा केंद्र व राज्य के पूंजी बजटों में पूंजीगत व्यय को बढ़ाना. पूंजी के प्रबंध के लिए विनिवेश और आई पी ओ पर निर्भर रहना तय है.इस मान्यता पर आश्रित रहा गया है कि विनिवेश से प्राप्त आगम से वह अपने महत्वाकांक्षी व्यय की भरपाई कर लेगी पर वह यह भूल गई कि ऐसी नीति अच्छे समय में भी खराब नीति समझी जाती है तो आसन्न संकट से तृस्त देश के आर्थिक वातावरण को गंभीर झटके दे सकती है.भारत के प्राचीन ऋषि चार्वाक ऋण ले कर घृत पियो के सूत्र से राजा को निर्विकल्प समाधि की अवस्था दे गए पर जोखिम से भरी है यह नीति. क्योंकि आर्थिक सुधार के साथ स्वास्थ्य पर भारी व्यय की भरपाई कर पाना बड़ी चुनौती बनी है. इस बजट में एल आई सी का आई पी ओ तो लाया ही गया है साथ में आई डी बी पी के साथ दो बैंकों और बीमा कंपनी जनरल इनस्योरेंस में हिस्सेदारी घटाने का एलान भी.विनिवेश के सामने ट्रेड यूनियन के प्रबल विरोध की स्थिति गहरा रही है तो यह असमंजस भी कि पूंजी संकटों में घिरे बैंक को विनिवेश करने से पहले कैसे साधा जाएगा.सरकार की बैंकों में हिस्सेदारी अब नब्बे प्रतिशत की सीमा तक बढ़ चुकी है.वह बैंकों में ढाई लाख करोड़ की पूंजी डाल चुकी है तो डेढ़ लाख करोड़ की पूंजी ये बैंक डुबा चुके हैं. बैंकों को अभी दो सालों में दो लाख करोड़ रूपये की जरुरत पड़ेगी. बैंक अभी पूंजी के संकटों से जूझ रहे हैं और बजट में बीस हज़ार करोड़ रूपए देने की घोषणा उनके लिए अपर्याप्त है. बैंकिंग क्षेत्र में सरकार की तगड़ी हिस्सेदारी है. इसे लम्बे समय तक चलाया जाना संभव भी नहीं. हिस्सेदारी बेचना सुधार की दृष्टि से बेहतर है पर विनिवेश से बैंकों की साख तो प्रभावित होगी ही सरकारी मदद भी कम मिलेगी.एक कमजोर बैंक का निबटारा, डी आई अफ़ के लिए प्रस्ताव और बैंक का पुनर्पूंजीकरण सही दिशा में उठाये फैसले तब होंगे जब इनका क्रियान्वयन कुशलता और सूझबूझ से हो.
बजट में स्वास्थ्य और अंतर्संरचना पर किए भारी व्यय को विस्तारवादी विकास नीति के ढांचे से सुसज्जित किया गया है. राजकोषीय घाटा तो बढ़ना ही है क्योंकि खाद्य सब्सिडी और उर्वरक सब्सिडी भारी भरकम हो गई.2021 के 9.5प्रतिशत राजकोषीय घाटे को 2022 के वित्तीय वर्ष में कम कर देने का लक्ष्य तय किया गया है. ऐसे ही राष्ट्रीय लघु बचत कोष को भी सीधे बजट में लाया गया है. अब भारतीय खाद्य निगम भी एन एस एफ से उधार नहीं लेगा. वित्त पोषण की यही तरकीब बनी है.इसे ही बेहतर और कारगर बनाया जाना है.
कोविड से जूझने के लिए स्वास्थ्य पर पेंतीस हज़ार करोड़ खर्च होना है.उम्मीद की जानी चहिये कि दवा और यंत्र उपकरण की खरीद के साथ तंत्र को आम जन के प्रति संवेदनशील बनाने की जिम्मेदारी का भी समुचित निर्वाह होगा. ऐसे ही विद्युत् उत्पादन और ट्रांसमिशन में सुधार के बावजूद वितरण की बाधाओं को दूर कर आम नागरिक तक बिजली की पहुँच पहुँचाना बड़ी जिम्मेदारी है.डिस्कॉम निवेश तीन लाख करोड़ रूपये होना है. नवाचार को बेहतर और कारगर बनाने में अगले पांच सालों में राष्ट्रीय अनुसन्धान फाउंडेशन पर पचास हज़ार करोड़ रूपये व्यय किए जाने हैं. जहां डिजिटल भुगतान, अंतरिक्ष व महासागरों के साथ देसी भाषाओं पर केंद्रित रह अन्य कई क्षेत्रों के साथ इसकी संलग्नता निश्चय ही सुधार करेगी. यह भी ध्यान रखा जाये कि इसका दायरा मात्र सार्वजनिक क्षेत्र तक ही सीमित न हो निजी क्षेत्र के लिए भी खुले.सरकार कर सुधारों के प्रति संवेदनशील दिखती है. वह इलेक्ट्रॉनिक निष्पादन के साथ अभिकरणों की स्थापना कर डिजिटल प्लेटफॉर्म स्थापित कर मापनीयता का लाभ उठा रही है. साथ ही किसानों को खाद्य, पानी, बिजली, उर्वरक के साथ प्रत्यक्ष धन स्थानांतरण जैसी मदों पर साढ़े सात लाख करोड़ रुपये भारी भरकम सब्सिडी मिलनी है. अब यह कितनी मात्रा में बड़े संपन्न किसानों तक जाती है या आम किसान को उसकी उपज का सही मूल्य प्रदान कर पाने में सक्षम होती है यह किसान आंदोलन की निरंतरता में सबसे महत्वपूर्ण कसौटी बनने वाली है.