देवेश जोशी
सपनीली कथा
उत्तराखण्ड के पहले पीसीएस टॉपर ललित मोहन रयाल जी की कलम से निकली उपन्यासनुमा कथा है, अथश्री प्रयाग कथा। प्रयाग की कथा नहीं है प्रयागवासियों की भी नहीं। ये प्रयाग के उन उच्च-स्वप्नदर्शी युवाओं की कथा है जो पूर्व के ऑक्सफोर्ड के रूप में विख्यात विश्वविद्यालय इलाहाबाद (जो अब प्रयागराज हो गया है) वाले शहर में प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता प्राप्ति के सपनों को साकार करने के लिए अध्ययन-कल्पवास किया करते थे।
लेखक की यह दूसरी किताब आयी है। पहली किताब खड़कमाफी की स्मृतियों से भी पाठकों को आकर्षित करने में सफल रही थी पर अथश्री प्रयाग कथा में वे एक परिपक्व गद्य लेखक के रूप में सामने आए हैं। पीसीएस टॉपर होने से लेखक का बहुपठित होना तो स्वाभाविक है पर इस किताब से गुजरने के बाद ये साफ दिखता है कि वे सुपठित शब्दशिल्पी भी हैं। उन्होंने ज्ञान का अर्जन ही नहीं किया है बल्कि उसे जज़्ब भी किया है। इस बात का प्रमाण किताब में किये गए विभिन्न विषयों के शब्दों और वाक्यांशों के कुशल प्रयोग से परिलक्षित होता है, जो सटीक संदर्भ में भी मिलता है और संदर्भेतर भी, कलात्मक रूप में। किताब की सबसे बड़ी विशेषता उसका शिल्प है जो सर्वथा नवीन और पूरी तरह मौलिक है। विधाओं की पारंपरिक सीमाओं का स्पष्ट, सायास पारगमन किया गया है या कहें कि पड़ोसी-विधाओं में सर्जिकल-स्ट्राइक सा किया गया है। हास्य-व्यंग्य की सतह पर दिखने वाली मनमौजी लहरों के नीचे कई अंडरकरेंट्स हैं। सुपाच्य-ज्ञान है, ऐस्पिरेंट्स के मनोभावों उतार-चढ़ाव है और सर्वोपरि ये कि बिना किसी दावे के प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता के गुर भी हैं। संस्मरण और रेखाचित्र विधाओं में लेखक अक्सर अनावश्यक विस्तार की चपेट में आ जाते हैं और पाठकों के एंगल से महत्वहीन प्रसंगों को छोड़ने का लोभसंवरण भी नहीं कर पाते। समीक्ष्य पुस्तक के लेखक इस प्रवृती से सफलतापूर्वक बच कर निकले हैं और प्लॉट के राजमार्ग पर बिना हिचकोलों के स्मूद्ली-ड्राइव किए हैं।
अथश्री प्रयागकथा का कथ्य भी लाजवाब है और कहन भी। हिंदी जगत में इस तरह के अपारंपरिक विषय को प्लॉट बनाने का रिवाज़़ लगभग नहीं ही दिखता है। कथ्य उस दौर का है जिसमें गूगल, यू-ट्यूब और व्हाट्सएप्प का अस्तित्व नहीं था। आज के प्रतियोगी इनके बगैर तैयारी कर पाने की कल्पना से ही विचलित हो जाते हैं। फोटोकॉपी नोट्स सबसे प्रभावी हथियार हुआ करते थे। कथा में कोई एक नायक, नायिका नहीं है। ऐसा भी कह सकते हैं कि लेखक स्वयं ही नायक हैं जो साथियों के व्यवहार और मनोभावों को ऑब्जर्ब करते रहते हैं। कभी मिसिर, यादौ, पप्पू को अकेले तो कभी ओपी-पीके, गुप्ता-शर्मा….जैसे युगलों में। कथ्य, कट थ्रोट कंपीटीशन की दुनिया के ऐस्पिरेंट्स के उस दर्दनाक सच को भी उद्घाटित करता है जिसमें न प्रेम के लिए समय होता है न घर-परिवार के लिए। जहाँ रेस में पिछड़ते अभ्यर्थी भी अपनी क्षमता को स्वीकार नहीं कर पाते और जाने-अनजाने सामुद्रिक-तांत्रिक गुरूओं के शरणस्थ हो जाते हैं।
भाषा तो गजबै है, चरित्र और देशानुकूल, पूर्वांचली फ्लैवर वाली। मैटरवा, मेंसुवा, बुकलेटिया, जीयसौ, एडिसनै,….। अंग्रेजी और उर्दू की ऐसी-तैसी करता हुआ गंगा-जमनी शब्द पिक्चरबाज का सृजन प्रयागवासी हटयोगियों के ही बूते की बात है। पुस्तक के कुछ अंश देखकर भी पुस्तक की रेंज और प्रभाव को सम-हजया जा सकता है। परीक्षा-कक्ष में पर्चा मिलने से पहले के दृश्य का जींवत चित्रण देखने लायक है लड़के परीक्षा हॉल में बैठ चुके थे। अभी तीन-चार मिनट शेष थे।
स्टार्ट बेल′ की व्यग्रता से प्रतीक्षा की जा रही थी। इन्विजलेटर ‘स्टार्ट लाइन’ पर तैयार थे, गोली दगे तो पर्चा बाँटें। सील्ड क्वेशचन पेपर, हाथों में तैयार करके सजाए हुए थे। जिस तरह से जुआरीवृंद अंगुलियों के बीच, करीने से सजाए रहते हैं, साथ ही साथ, सजायँए-ंछुपाए भी रखते हैं।
विशुद्ध साहित्यिक विमर्श में भी वे व्यंग्य की गुंजाइश -सजयूँ-सजय ही लेते हैं हालाँकि भ्रमरगीत और पद्मावत में भी भ्रमर महाशय चर्चा के काबिल रहे हैं, लेकिन मात्र विरह के दृश्यों में। अन्य भाषाओं में रेख़्ता जैसा नतीज़ा क्यों नहीं निकला, यह सवाल जिज्ञासा पैदा करता है। संभवतः कीटनाशकों के प्रयोग से इस प्रवृति को खासा नुकसान पहुँचा। या फिर इतिहासप्रेमी की एकछोरीय प्रेमिका का हाल -ंउचय क्या बताएँ गुरू, दुर्गावती, दुर्गीकृत हो गई है।..
…विरही भाई सरकारी बंदा बनने की चाह रखते थे सरकारी बंदी होने की नहीं। पहली बार स्वदेशी का सार-ंउचयतत्व ग्रहण किए हुए मित्र का आँखों देखा वर्णन भी द्रष्टव्य है एक पैर से, खट्-खट् पैडल मारते हुए, दूसरी टाँग, सीट के उस पार हवा में उछाली ही थी कि अकस्मात उन्हें दिव्य-अनुभव होने लगा। जैसे अभी-अभी -हजयूला, -हजयूला हो। थोड़ी ही देर में कनपटी के पास, जुगनुओं की सी चमक महसूस होने लगी। फिर आँखों के आगे दिया टिमटिमाने लगा। उन्होंने हैंडल कसकर पकड़ा और आँखें मिचमिचाई। असफल-हताश ऐस्पिरेंट का अंतर्द्वंद्व भी लेखक के व्यंग्य-ंउचयबाणों से नहीं बच सका है। उनकी बातों का कौन यकीन करेगा? अब वे नादान नहीं रहे, समझदार—जिम्मेदार प्राणी हैं। जिम्मेदार ओहदों के ऐस्पिरेंट रह चुके हैं। अथश्री प्रयाग कथा की इतिश्री पॉजिटिव-ंउचयनोट पर किया जाना भी प्रेरणादायक-अर्थपूर्ण है। गुबार निकालनेवाले ने सौगंध उठाई, “गुरू, एक बार, बस एक बार, फुल टॉस मिल जाए, एतना लम्बा छक्का मारेंगे कि बॉल स्टेडियम से बाहरे पहुँचाएँगे।” उन्होंने पहुँचाकर, विनिंग शॉट खेला भी……
अमित श्रीवास्तव जी ने पुस्तक की सारगर्भित और खूबसूरत भूमिका लिखी है। 24 और 31 मार्च को क्रमशः हल्द्वानी और देहरादून में हुए पुस्तक के लोकार्पण समारोहों के अवसर पर वक्ताओं की उत्साहजनक टिप्पणियों से भी पुस्तक की लोकप्रियता सम-हजयी जा सकती है। देहरादून के
समारोह में ये साफ देखा जा सकता था कि वक्ता पुस्तक पर कुछ बोलने के बजाय उसके अंशों का वाचन करने के लिए अधिक उत्साहित थे। मानो कह रहे हों गूंगे का गुड़ है भाई, स्वाद खुद ही चख कर देख लो। मैं भी यही कहूंगा सुधी पाठकों से कि पुस्तक का पूरा आनंद तो
खुद प-सजय़ के ही उठाया जा सकता है।
प्रभात पेपरबैक्स द्वारा प्रकाशित इस बहुमूल्य पुस्तक का मूल्य मात्र रु. 200 है।
कृति -अथश्री प्रयाग कथा
लेखक – ललित मोहन रयाल
प्रकाशक – प्रभात पेपरबैक्स, नई दिल्ली
मूल्य – रु0 200/-ंउचय
समीक्षक – देवेश जोशी