सुपर्णा शर्मा
(अल ज़ज़ीरा में प्रकाशित रिपोर्ट का रमदा द्वारा अनुवाद)
‘‘एक यात्री-वायुयान में कुल कितनी टेनिस की कितनी गेंदें बॉल समा सकती हैं ?’’ आई. आई. टी. के युवा अर्थशास्त्र-स्नातक नीरज को ‘नेशन विद नमो’ (सत्ताधारी भाजपा का एक अन्दरूनी राजनैतिक-परामर्शक संगठन) की साक्षात्कार-प्रक्रिया के दौरान इस सवाल को हल करने के लिए 15 मिनट दिए गए।
नीरज की गणनायें सही निकलीं और वह भारत के शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों के स्नातकों के उस छोटे से दल का सदस्य बन गया, जिसे भारत के पूर्वी राज्य त्रिपुरा में, पिछले साल फरवरी में, संभावित चुनावों के लिए सर्वेक्षणों, मतदाताओं से सम्बंधित आंकड़ों के संग्रहण तथा विश्लेषण के लिए भेजा गया।
इस दल को भाजपा को वोट न देने वाले मतदाताओं की पहचान करने, उन्हें आयु, लिंग, जाति, जनजाति, धर्म आधारित जनांकिकीय-समूहों में बांटने और उनकी सामान्य चिंताओं, मुद्दों, भय आदि के आधार पर एक ऐसी रणनीति की खोज करना था, जिससे उन्हें भाजपा के पक्ष में लाया जा सके। यह सब काम उन्हें चुपचाप, लुके-छिपे रहकर करना था।
‘‘हम सभी जो संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जे.ई.ई.) के दौर से गुजरते हैं, समस्या-समाधान (प्रॉब्लम-सॉल्विंग) में निपुण होते हैं,’’ नीरजने अपना असली नाम बदल दिए जाने की शर्त के साथ बताया, क्योंकि उसे मीडिया से बात करने की अनुमति नहीं है।
सरकारी फंडिंग प्राप्त भारत के अधिकांश इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट और लॉ कॉलेजों में प्रवेश अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षाओं के माध्यम से होता है। तेईस आई. आई. टी. के लिए आयोजित जे. ई. ई. को इनमें जोड़ते हुए लाखों विद्यार्थी इनमें हिस्सेदारी करते हैं, किन्तु केवल दो-तीन प्रतिशत ही इन प्रतिष्ठित संस्थानों तक पहुँच पाते हैं। ऐसा कर सकने वाले कुछ में नीरज भी है और अब वह भारत के इन शीर्षस्थ इंजीनियरिंग और प्रबंधन संस्थानों से निकले उन विशेष सैकड़ों स्नातकों में शामिल है, जिन्होंने हाल के वर्षों में कमाऊ-कॉरपोरेट नौकरियों की प्रतीक्षा-अवधि के दौरान अल्पावधि के लिए चुनावी मुहिमों में हिस्सेदारी की है।
किसी आई. आई. टी., जिसके पूर्व-छात्रों में गूगल के सी. ई. ओ. सुंदर पिचाई और ट्वीटर के पूर्व सी. ई.ओ, पराग अग्रवाल शामिल हों और आई. आई. एम., जो पेप्सीको की पूर्व सी.ई. ओ. इन्द्रा नूई की मातृ-संस्था रहा हो, से प्राप्त उपाधियाँ उत्कृष्टता की मानक हैं और विशेष दायित्वों, नौकरियों, सेवाओं की निश्चित गारंटी.किन्तु पिछले कुछ सालों से कैम्पस-रिक्रूटमेंट के सूखे और विशेषतः तकनीकी-कंपनियों की छँटनियों के कारण यह गारंटी कमजोर हो गयी है।
मतदाता संबंधी सूचनाओं के प्रबंध और विश्लेषण के लिए इन स्नातक प्रतिभाओं की सरल उपलब्धता ने राजनैतिक सलाहकार और परामर्शक संस्थाओं को एक बहुमूल्य स्रोत उपलब्ध कराया है। इन संस्थाओं का मौजूदा अनुमानित बाज़ार तकरीबन 30 करोड़ डॉलर का है और राष्ट्रीय, क्षेत्रीय दलों तथा प्रत्याशियों के निजी तौर पर इनकी विशेषज्ञता की ओर आकर्षित होने के साथ इसका और अधिक बड़ा होना तय है।
शीर्षस्थ संस्थाओं के इन स्नातकों को आकर्षित करने के लिए परामर्शक-संस्थाएं फैलोशिप या प्रायः तीन माह से तीन साल तक के जॉब-कॉन्ट्रैक्ट्स का सहारा लेती हैं। मोटे पैसे और सुविधाओं के साथ यह आश्वासन भी देती हैं कि उनका काम ‘भविष्य को आकार’ देगा। दिल्ली में ऐसी ही परामर्शक संस्था ‘पौलिटिक एडवाइजर्स’ चलाने वाले अंकित लाल कहते हैं कि ‘’शक्ति-केन्द्रों (पावर-सेंटर्स) से नजदीकियों का आकर्षण अतिरिक्त है।’’
छोटे से राज्य त्रिपुरा, जहां भाजपा दुबारा जीतने की इच्छा रखती थी, में मतदाताओं संबंधी आंकड़ों के विश्लेषण के बाद नीरज और ‘नेशन विद नमो’ टीम के सहयोगियों ने बताया कि भाजपा उत्तर में तो अच्छी स्थिति में है किन्तु अमरपुर चुनाव क्षेत्र, जहां चाबिमुरा को शामिल करते हुए कुछ जनजातीय इलाके हैं, में मतदाताओं का रुझान अन्य दलों की ओर है।
राजधानी अगरतला से चाबिमुरा का, पहले सड़क और फिर गोमती नदी पर मोटर-बोट से, लम्बा घुमावदार रास्ता शैवाल भरी पहाड़ियों, चट्टानों पर उकेरी गयी मूर्तियों और दंतकथाओं की सर्परक्षित खजानों वाली गुफाओं के साथ-साथ वर्षों से पसरी दरिद्रता और उपेक्षा से होकर गुजरता है। सदियों से कोकबोरोक भाषी जमातिया जनजाति वर्षा पर निर्भर, इस दूरदराज इलाके जिसे ‘त्रिपुरा का अमेज़न’ कहा जाता है, में रहती आई है.
नीरज के फील्ड सर्वे ने चाबिमुरा में एक ‘समूह’ और एक ‘समाधान’ पाया। कुछ प्रभावशाली जमातिया परिवारों के महत्त्व को समझते हुए उसे महसूस हुआ कि इलाके के जनजातीय परिवारों पर इन सशक्त परिवारों का अनुकरण-प्रभाव काम करेगा।
नीरज ने बताया कि वे बहुत गरीब हैं। उन्हें अगर कुछ चाहिये तो अपने घरों के चारों ओर एक चहारदीवारी। ‘‘भाजपा के राज्यस्तरीय नेतृत्व को ऐसा सुझाव दिए जाने के दो या तीन दिनों के भीतर बड़ी तेजी से जमातिया परिवारों के अस्सी घरों के चारों ओर मिट्टी की चार फीट ऊँची बाऊंड्री वॉल बना दी गयीं। अतिरिक्त प्रोत्साहन के लिए नर-मादा बकरियों के जोड़े भीतर ठेल दिए गए। चहारदीवारी पार्टी के प्रचार के उपयोग में भी आई। उस पर प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी, राज्य के मुख्यमंत्री और स्थानीय उम्मीदवार के चेहरे छाप दिए गए।
भाजपा के त्रिपुरा प्रवक्ता ने इस पर टिप्पणी करने के अल-जज़ीरा के अनुरोध पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। भाजपा, जो पाँच सालों से सत्ता पर है, कभी भी इन दीवारों को बनवा सकती थी। किन्तु एक ऐसे देश में जहां 80 करोड़ लोग मुफ्त या सब्सिडी के अनाज पर निर्भर हों, बकरियों का एक जोड़ा और चहारदीवारी ज़िन्दगी बदल देने वाले ऐसे अहसान हैं, जिनके बदले कृतज्ञता और वोट बनता ही है।
‘नेशन विद नमो’ के साथ काम कर चुके एक और आई. आई. टी. स्नातक ने, नाम ज़ाहिर न किये जाने की शर्त पर, अल जज़ीरा को बताया कि राजनीति में केवल वोट का ही सिक्का चलता है। पूरे देश में हर एक के पास केवल एक वोट है और हमारा पूरा ध्यान इसी बात पर केन्द्रित रहता है कि वह किस तरह अपने वोट का इस्तेमाल करता है। मतदाताओं को रिश्वत देना अपराध और आचार संहिता का उल्लंघन है। किन्तु राजनैतिक दलों द्वारा किसी बाहरी एजेंसी को किराये पर लेने की स्थिति में चुनाव-प्रक्रिया में उसके प्रत्यक्षतः शामिल न होने के आधार पर अस्वीकरण और आरोपित किये जा सकने की संभावनाएं जाँच का ही विषय रह जाती हैं।
19 अप्रैल से शुरू होने वाली, 44 दिनों तक फैली, भारतीय आम चुनाव की शुरूआत के महीनों पहले से तकनीक निपुण आई. आई. टी.और प्रबंधन संस्थानों से निकले मेधावी युवाओं, क़ानूनविदों और शोधकर्ताओं की फौैज वोटर सम्बन्धी आंकड़ों को खंगालने, समझने और विश्लेषित करने में लग रही है, ताकि प्रचार की रणनीति और मुद्दों को रेखांकित किया जा सके। तय किया जा सके कि कहाँ उपहार दिए जाने हैं और कहाँ ध्रुवीकरण में मदद करने वाले भाषण खोजे जा सकें। भारतीय लोकतंत्र के ये अदृश्य विशेषज्ञ, जिनका इस खेल से अपनी मोटी कमाई और जीत के रोमांच से इतर कोई सीधा मतलब नहीं है, अपने आप को ‘राजनीति-तटस्थ समस्या-मोचक’ मात्र मानते हैं। अल-जज़ीरा से बातचीत में उन्होंने माना कि उनके सुझाये और उनसे सम्बंधित दलों के वोट जुटाने के तरीके एक लोकतंत्र के लिए संभवतः अच्छे न हों, किन्तु बिना किसी का पक्ष लिए उनका ध्यान केवल समस्या के तोड़ पर केन्द्रित रहता है।
आई.आई.टी. से इंजीनियर राजेश ने बिना झिझक बोल सकने के लिए अपना नाम बदल दिए जाने की शर्त पर बताया कि वह दक्षिणी राज्य तेलंगाना में भारत के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के राजनैतिक परामर्शक ‘इंक्लूसिव माइंड्स’ की 12 सदस्यीय टीम का हिस्सा है। इन दिनों उसकी ज़िन्दगी आंकड़ों से ही चलती है जो उसके और बाकी तमाम परामर्शकों, जो कुकुरमुत्तों की तरह पूरे भारत में उग आये हैं, के दिमाग और ऑफिस के कम्प्यूटरों पर छा गए हैं। देश भर में फैले हज़ारों फील्ड-एसोसियेट्स राजेश और उसकी टीम को मतदाताओं के जनांकिकीय विवरणों के साथ उनके पसंदीदा उम्मीदवारों और सम्बंधित मुद्दों पर जानकारियों के पुलिंदे भेजते हैं। दूरभाष पर किये गए सर्वेक्षणों और विज्ञापनों से सम्बंधित आंकड़े अतिरिक्त हैं।
अन्य अनेक परामर्शकों की तरह ‘इंक्लूसिव माइंड्स’ भी फेसबुक और इन्स्टाग्राम पर, पार्टी-समर्थक कृत्रिम पटलों के माध्यम से, विज्ञापनों द्वारा मतदाताओं के पसंदीदा दल, विचारधारा, रुचियों एवं चिंताओं से जुड़े रुझानों का मूल्यांकन करता है। मेटा-प्लेटफार्म से उन्हें मतदाताओं की आयु, समूह, लिंग और संभव होने पर चुनाव क्षेत्र विशेष से जुड़े आंकड़े थोक में प्राप्त होते हैं। राजेश की टीम का कोई सहयोगी प्रत्येक राजनैतिक बयान, रैली, रोड शो और पार्टी मनिफैस्टो से जुड़ी खबरों और सोशल-मीडिया की पड़ताल करता है।
राजेश कहता है कि ‘इंक्लूसिव माइंड्स’ से कार्मिकों का 20 से 30 प्रतिशत आई. आई. टी. और 5 फीसदी आई. आई. एम. से है। इन सबका आंकड़ों में अटल विश्वास है और ये प्रायः ‘‘आंकड़े सम्राट हैं’’ का मन्त्र जपते रहते हैं।
आंकड़ों की छंटाई होती है, वे विशिष्ट समूहों में वर्गीकृत किये जाते हैं और उन्हें तकरीबन पचास डैशबोर्डों, परस्पर जुड़े विशाल कम्पूटर पटलों, पर प्रदर्शित किया जाता है। तमाम तरह के सांख्यिकीय आरेखों, उपकरणों आदि की मदद से यह जानने की कोशिश होती है कि किस चुनाव क्षेत्र विशेष के अलग-अलग मतदान केन्द्रों पर किस तरह का मतदान संभावित है। कुछ बूथ ‘सुरक्षित’ होते हैं तो कुछ निश्चित रूप में दूसरे दलों के पक्ष में। किन्तु किसी भी तरफ जा सकने वाले बूथों पर सारा ध्यान होता है और इन्हीं के लिए सारी लड़ाई होती है।
प्रधानमंत्री मोदी के लिए गत दो चुनावों में काम कर चुके, तेजतर्रार, सीधी-सपाट बात करने वाले, पूर्व चुनाव-रणनीतिज्ञ अभिमन्यु भारती का कहना है कि ‘‘जहां चुनाव मुकाबले का हो, हम बढ़त लेने के लिए प्रायः ध्रुवीकरण की बात करते हैं। क्योंकि ऐसा नहीं कर पाने पर हम फँस जायेंगे। पार्टी तब आर. एस. एस. के लोगों को जमीन पर यह बात फैलाने, बढ़ाने को कहेगी कि ये लोग (मुसलमान) हम पर छा जायेंगे और इन्हें काबू में नहीं रखा गया तो अपराध बढ़ेंगे।’’
एक तथ्यान्वेषी वैबसाइट ‘ऑल्ट-न्यूज़’ के सह संस्थापक प्रतीक सिन्हा पॅालिटिकल कंसल्टेंसीज को नैतिक उत्तरदायित्वविहीन, नितांत अपारदर्शी क्रियाओं में संलग्न संगठनों के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि राजनैतिक दलों ने झूठे प्रचार, गलत सूचनाओं और ऑनलाइन नफरत फैलाने के लिए इन्हें काम पर रखा है। वह आगे जोड़ते हैं कि चुनावों के नजदीक आने के साथ झूठी-ख़बरें और नफरत फैलाने वाली पोस्ट्स बढ़ रही हैं। फेस-बुक पर भाड़े के बिचैलियों के माध्यम से गलत सूचनाओं और नफरत फैलाने वाली बातों आदि पर लाखों रुपये खर्च किये जा रहे हैं और यह सब इन्हीं परामर्शकों के माध्यम से किया जा रहा है।
हैदराबाद में एक छोटी राजनैतिक-परामर्श संस्था ‘एफजैक’ चलाने वाले मुहम्मद इरफ़ान बाशा बताते हैं कि एक चुनाव क्षेत्र में युवा मतदाता जितने ज्यादा होते हैं, धार्मिक वैमनस्य पैदा करना उतना ही आसान होता है। बाशा का कहना है कि “ज्यादातर युवा मतदाता किसी एक राजनैतिक विचारधारा विशेष से बँधे नहीं होते, नए चिंतन और विचारों के लिए खुले होते हैं और इसीलिये उन्हें भ्रमित कर ध्रुवीकरण की ओर ठेला जा सकता है।
बाशा, जो दक्षिणी राज्य तेलंगाना के पिछले साल के चुनाव में भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे एक पूर्व कांग्रेसी की चुनाव रणनीति और प्रचार का हिस्सा थे, का कहना था कि ‘‘आंकड़ों ने जब दिखाया कि कहीं अधिक नौजवान हमसे जुड़ रहे हैं तो हमने अपने उम्मीदवार के भाषणों में धार्मिक रंग डालना शुरू कर दिया।’’
एक हिन्दू धार्मिक उद्घोष, जिसे भाजपा ने मुस्लिमों के खिलाफ हिन्दू एकता का हथियार बनाया, की ओर इशारा करते हुए बाशा कहते हैं कि ‘‘कांग्रेस में यह प्रत्याशी सेक्युलर था और अब कहता है ‘जय श्रीराम’। बाशा का उम्मीदवार चुनाव जीत गया।
पूर्व राजनैतिक परामर्शक भारती, जो अब भावी नेताओं और कंसल्टेंट्स के लिए कई पाठ्यक्रमों वाला ऑनलाइन स्कूल चलाते हैं, कहते हैं कि प्यार और युद्ध में सब जायज है और यह (चुनाव) युद्ध ही है। उनके शिष्यों में से अनेक आई. आई. टी. स्नातक हैं।
नए आज़ाद भारत में 50 और 60 के दशक में स्थापित किये गए प्रौद्योगिकी और प्रबंधन संस्थानों (आई.आई. टी.व आई. आई. एम.) पर एक आधुनिक, आत्मनिर्भर, औद्योगिक राष्ट्र के निर्माण में सहायक होने का दायित्व था। भारतीय अर्थव्यवस्था के बदलने के साथ इन संस्थानों में भी बदलाव आया। इनकी तादाद बढ़ी, नए पाठ्यक्रम जुड़े, नवाचार को बढ़ावा दिया गया और नये शुरूआती उद्यमों (स्टार्ट अप्स) के लिए सहायक संस्थाएं विकसित की गयीं। भारतीय प्रौद्योगिक संस्थाओं के पदानुक्रम में आई. आई. टी. मुंबई के कम्प्यूटर इंजीनियर सर्वोपरि हैं। कम्पनियां और कंसल्टेंट्स सीधे कैंपस से ही उन्हें उठा लेते हैं। कैमिकल, मैकैनिकल, एरोनौटिकल, माइनिंग और मैटैलर्जी-इंजीनियरों की मांग अपेक्षाकृत कम है।
भारत के थके हुए जॉब मार्केट, जहां स्नातकों की बेरोजगारी दर अशिक्षितों की बेरोजगारी दर से नौ गुना अधिक है, पेशेवर और बड़ी कंपनियों की तरह काम करने वाले पॉलिटिकल कंसल्टेंट्स सीधे आई.आई.टी. एवं अन्य संस्थानों से युवाओं को पांच-छह साल पहले से ही काम पर लेने लगे थे और अब तो ऐसा हर साल होता है।
पूर्वी राज्य उड़ीसा, जहां लोकसभा के साथ ही राज्य स्तरीय चुनाव भी होने हैं, में कांग्रेस का प्रचार अभियान सँभाल रही टीम के एक सदस्य ने, गुमनामी की शर्त पर सीधे कॅालेजों से भरती की पार्टी की नीति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह सस्ती और नौजवान प्रतिभा है, उत्साही और काम करने के लिए आतुर। इससे हमें मिलते हैं नए दिमाग और मज़बूत पैर।
राजनैतिक-दलों को चुनाव-परामर्श देने वाली ये संस्थाएं किसी डिग्री विशेष की ओर नहीं देखतीं। उन्हें तकनीक निपुण, उच्च गणितीय योग्यता रखाने वाले, समस्या-मोचक, कोडिंग जानने वाले और भाग दौड़ कर सकने वाले तेज-तर्रार लोग चाहिए।
एम.बी.ए. ज्यादातर आंकड़ों के विश्लेषण, प्रबंधन, संगठन, संसाधनों के वितरण संबंधी दायित्वों के निर्वहन और नेताओं को प्रेजेंन्टेशन देने के लिए रखे जाते हैं.तकनीक सम्बन्धी दायित्व और आंकड़ों के तुलनात्मक अध्ययन, विश्लेषण की जिम्मेदारी आई.आई.टी. स्नातकों पर होती है।
‘पॅालिटिकल-एड्वाइजर्स’ के अंकित लाल का कहना है कि ये संक्रमणकालीन अल्पकालिक काम हैं और आई.आई.टी., आई.आई.एम. के स्नातक मात्र दो-तीन सालों तक ही इन्हें करते हैं। इन्हीं में लगे रहने वालों के लिए तो यह अस्तित्व का ही मामला होता है।
भाजपा की अपनी चुनाव-रणनीति एवं प्रचार इकाई ‘ए.बी.एम.’(एशोसियेशन ऑफ बिलियन माइंड्स) के साथ काम कर चुका एक इंजीनियर एम.बी.ए. मोहन कहता है कि अल्पावधि की यह संलग्नता भावी नियोक्ताओं की नज़र में भले ही नकारात्मक हो मगर राजनैतिक खेल में संलग्न होने की इन नजदीकियों का रोमांच अनूठा होता है। 2020-2023 के अनेक राज्यस्तरीय चुनावों में ‘ए.एम.बी.’ के साथ काम करने के अपने दिनों को शिद्दत से याद करते हुए उसका कहना था कि उन दिनों जैसे वह आई.आई.टी.के स्नातकों की एक टीम का सी.ई.ओ. था।
मोहन ने उसका और सम्बंधित राज्य का नाम जाहिर न करते हुए बताया कि उसने जानकारियाँ जाहिर न करने के एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किये हैं। ‘‘हमारे फ़ोन आज भी टैप किये जाते हैं,’’ उसने कहा।
‘‘यहाँ नशा शीर्षस्थ लोगों के साथ काम करने और बड़े से बजट पर अपने नियंत्रण का है। राज्यस्तरीय चुनावों में 10-20 लाख डॉलर तक की परियोजनाओं पर हम सीधे फैसला ले सकते थे। 10 करोड़ डॉलर या अधिक के प्रस्ताव पार्टी नेतृत्व की ओर बढ़ा दिए जाते थे।’’
अनुमानतः 16 अरब डॉलर की लागत वाला यह भारतीय आम चुनाव दुनिया का सबसे महंगा आम चुनाव साबित होने जा रहा है। राजनैतिक दलों द्वारा पॅालिटिकल कंसल्टेंट्स, हज़ारों सर्वेक्षकों और आंकड़ा-विशेषज्ञों, जिनका काम चुनाव के नतीजों पर असर डालने वाले कारकों की तलाश है, पर किया जा रहा खर्च इसमें शामिल है।
पूर्व राजनैतिक-रणनीतिकार भारती कहते हैं कि चुनाव जीतने के दो मंत्र हैं तौलना और नज़र रखना (ट्रैकिंग)। वे कहते हैं कि ट्रैकिंग आपको वास्तविक फीडबैक और छिद्र भरने का अवसर देती है। चुनाव में वही नेता या पार्टी विजयी होते हंै जो सबसे कम गलतियां करते हंै। इसीलिये छिद्रों को भरना जरूरी है।
प्रत्याशियों के चयन से लेकर प्रचार की रणनीति तक सभी कुछ पर ध्यान दिया जाना होता है। किन उपलब्धियों और नारों पर बल दिया जाना है, किन मुद्दों को लेकर विरोधियों पर हमला करना है, वोटरों को प्रभावित कर सकने वाले किस व्यक्ति को साक्षात्कार देना है, किस मंदिर में दर्शन करने हैं यहाँ तक कि कब और कहाँ किस दलित परिवार के घर पर भोजन करना है, यह सब आंकड़ों पर आधारित ऐसे निर्णय हैं जो मतदाताओं को अपने पाले में खींच लाने के इरादे से लिये जाते हैं।
मतदान के दिनों के निकटतर आते जाने के साथ पॅालिटिकल-कंसल्टेंट्स अपनी गतिविधियां तेज़ करते हुएजमीनी स्तर पर सक्रियता बढ़ाते हैं। बड़ी तादाद में कार्मिक न केवल जमीनी असलियत पर कान लगाने के लिए रखे जाते हैं वरन् उनसे अपने और विरोधी दलों के नेताओं की सभी गतिविधियों पर नज़र रखने और रपट देने के लिए कहा जाता है, ताकि यह पता लग सके कि कौन नाराज है और किसे अपनी ओर लाया या खरीदा जा सकता है। कभी एक पर्यटक, पत्रकार या शोधकर्ता के छùवेश में राजनैतिक खुफिया जानकारी की तलाश के काम में लगा नीरज कहता है कि यह सब इतना अधिक ढँका-छुपा है कि आपकी अपनी पहचान खोने लगती है।
उनके कार्मिकों को जानकारी जाहिर न करने के एग्रीमेंट (एन.डी.ए) पर दस्तख़त करने होते हैं। एक ही टीम के सदस्यों के वेतन अलग-अलग स्रोतों से आते हैं। फील्ड कर्मियों के फोन और नेताओं की कारों पर जी.पी.एस. से नज़र रखी जाती है। अल-जज़ीरा ने जिनसे भी बात की, वह रोजाना 14 से 16 घंटे के काम, गड़बड़ा गए पारिवारिक जीवन, तनाव, थकान, जीत का नतीजा हासिल करने के दबाव और कभी भी निकाल दिए जाने के डर की बात करते हैं।
मोहन कहता है कि यह उत्तेजना से सराबोर परिस्थिति है और इसीलिये यहाँ मुश्किल से ही कोई महिला इन कामों के केन्द्र (कोर स्पेस) में होगी। हमने अन्य संस्थाओं से भी युवाओं को लेने की कोशिशें कीं, मगर वे बहुत ज़ल्दी टूट जाते हैं। केवल आई.आई.टी. और आई.आई.एम. से निकले लोगों के पास ही इस वातावरण में काम कर सकने और नतीजे देने की क्षमता है।
नीरज त्रिपुरा में भाजपा के पार्टी अध्यक्ष के साथ अपनी एक बैठक की याद करता है, जहां आंकड़ों और जमीनी रपटों के आधार पर ‘नेशन विद नमो’ की टीम का सुझाव था कि अपनी ओर मीडिया का ध्यान खींचने और शोरशराबे के लिए कुछ ‘हलचल’ की जानी ज़रूरी है।
‘‘उन्हें जिन्दगियों से कहीं अधिक वोटों से प्यार है,’’ नीरज बताता है। पार्टी-अध्यक्ष ने तत्काल कुछ भाजपा कार्यकर्ताओं को प्रतिद्वंद्वी पार्टी के प्रभाव-क्षेत्र में पोस्टर लगाने के लिए भेजने का प्रस्ताव किया। ‘‘वे हमारे कार्यकर्ताओं को पीटेंगे और तब हम (मीडिया) को बयान देंगे,’’ भाजपा के नेता ने कहा।
“तभी उनके पास कॉल आया कि एक पार्टी कार्यकत्र्ता की हत्या हो गयी है। उन्होंने हमारी ओर देखा, मुस्कुराए और कहा, ‘भाई ! मिल गया मुद्दा।’’
त्रिपुरा के पार्टी प्रवक्ता ने इस पर टिप्पणी करने के अल-जज़ीरा के अनुरोध पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की.
नीरज अब किसी चुनाव परामर्शक फर्म के लिए काम नहीं करता। किन्तु मोहन चुनावों के दौरान बहने वाले उस पैसे की बात करते हुए उत्तेजना से भर उठता है, जिससे वोटों और प्रतिद्वंद्वियों को खरीदा जाता है या अपने खास लोगों को चुनाव से जुड़े आयोजनों और पोस्टर छापने के ठेके दिए जाते हैं।
इस समय मोहन एक विवर्तन की प्रतीक्षा में है। एक ऐसा बदलाव जब चुनाव प्रचार आयोजन की शक्ति नेताओं से हट कर पॅालिटिकल कंसल्टेंट्स के हाथों में आयेगी। ‘‘अभी वह (राजनैतिक-परामर्शक) निर्णय ले सकने सम्बन्धी अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए संघर्षरत हैं। गो कि अभी यह मामला अनिश्चितता के घेरे में है, किन्तु एक बार ऐसा हो जाने पर मैं निश्चित तौर पर वापस जाना चाहूँगा,’’ मोहन ने अल-जज़ीरा से कहा।
फोटो इंटरनेट से साभार