प्रीति बिष्ट
( लेखिका न्यूज 18 में एंकर रहीं हैं)
बात आज से करीब 8-10 साल पहले की है. शाम 7 बजे का वक्त रहा होगा, न्यूज़ रूम में गहमागहमी थी उत्तरप्रदेश की खबरों का बुलेटिन Hit प्रारम्भ हो चुका था और उत्तराखंड की टीम 7.30 बजे की तैयारी में जुटी हुई थी। मैं भी अपना make up ठीक करा कर स्टूडियो जाने से पहले न्यूज़ रूम में पहुंची और वहां मौजूद अपने एक वरिष्ठ सर से पूछा कि सर उत्तराखंड की आज की Headlines क्या हैं… उन्होंने थोड़ा गंभीर होने की अदाकारी करते हुए, मुझे चिढ़ाने के अंदाज़ में कहा तुम्हारे उत्तराखंड में कोई खबर होती भी है, चुनाव हों तो ठीक वरना गुलदार की ही headline बनानी पड़ती है। आज सोचती हूं काश उत्तराखंड में तथाकथित headlines का अकाल ही पड़ जाता तो अच्छा था… चैनलों और समाचार पत्रों में आज जिस वजह से उत्तराखंड सुर्खियों में बना हुआ है, उसने अंदर तक हिला कर रख दिया है। गुस्सा, बेचैनी और डर का गुबार दिमाग़ को घेरे हुए है। मैं खुद को अंकिता से अलग ही नहीं कर पा रही हूं, उसकी कई सारी वजह भी हैं.. लेकिन जो सबसे बड़ा कारण है वो है अंकिता और मेरा एक जैसा भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश। अंकिता के माता -पिता का बेटी पर भरोसा रखना, उसे सपने देखने और उन्हें पूरा करने की आज़ादी देना, पहाड़ों की सीधी सरल लेकिन बहुत ही सुकून भरी दुनिया से निकल कर चुनौती और कामयाबी के खुले आसमान में पंख फैलाने का हौसला देना। सोचती हूं जब अंकिता पहली बार घर से दूर निकल रही होगी तब उसके माता-पिता के कैसे ख़ुशी और चिंता के मिले -जुले भाव रहे होंगे। उसकी ईजा ( माँ ) ने भी सर पर हाथ रखकर “जी रये, जाग रये” कहा होगा। इस बात से अनजान कि ये हाथ बेटी के सर पर आखिरी आशीष दे रहे हैं। अंकिता की माँ बेटी से किसी त्यार-ब्यार ( त्योहार ) में जल्द ही आने का वादा ले रही होगी। शायद दीपावली का करार रहा होगा। लेकिन ये आशीष वचन, कौल-करार ( वादा ), सपने सब के सब एक ही झटके में अंकिता के साथ इस दुनिया से विदा हो गए। आखिर ऐसा क्या अपराध था अंकिता और उसके परिवार का जिसकी सज़ा वो ताउम्र भुगतेंगे?
दरअसल दोष उस सोच का है जो ये दुस्साहस जगाती है कि राजनैतिक और आर्थिक रसूख के साथ आपको स्वतः ही कमज़ोर और ज़रूरतमंदो के हर तरह के दोहन का अधिकार मिल गया है। और अगर वो लड़की है तब तो वो पक्का ‘खुले’ विचारों वाली होगी, जिसे इन सबसे कोई आपत्ति ही नहीं होनी चाहिए। वर्ना किसी भी पुलकित, सौरभ या अंकित की मजाल की वो ऐसा सोच भी सके। फिलहाल यहां आरोपियों ने अपने तथाकथित अधिकार का खूब उपयोग किया, बार-बार किया। आगे भी शायद करते लेकिन बदकिस्मती से अंकिता के सपने और ज़िम्मेदारी उसे वन्नतरा रिसोर्ट तक ले आई। 19 साल की उम्र होती ही कितनी है, उस पर परिवार की ज़िम्मेदारी कंधों पर हो तो हर कदम जीवन के गणित में उलझ जाता है। शायद ऐसे ही कुछ उलझे हालत रहे होंगे अंकिता के। वो ज़िम्मेदारी तो निभाना चाहती थी लेकिन आत्मसम्मान की कीमत पर नहीं । जब तक अंकिता रिसोर्ट के घिनौने खेल को समझ पाती, उसे मौत के घाट उतार दिया गया। मामला सत्तासीन बीजेपी के नेता से जुड़ा था सो लीपापोती का पूरा प्रयास हुआ। आक्रोषित भीड़ सड़क पर उतरी तो शासन-प्रशासन जागा। आरोपी पुलकित आर्या के पिता और भाई को बीजेपी ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और पटवारी से मामला पुलिस तक पंहुचा। तीन लोग गिरफ्तार हुए आरोपियों की निशानदेही पर अंकिता के शव को भी ढूंढ लिया गया। इन कार्रवाईयों के साथ -साथ रिसोर्ट में तोड़फोड़ और आगजनी की जो घटना हुई उससे लोगों के मन में शंकाएं हैं। क्या ऐसे हालत में धनबल और बाहुबल के गठजोड़ के आगे एक गरीब मज़दूर की बेटी को न्याय मिल पायेगा? क्या ये गारंटी दी जा सकती है कि कुर्बानी देने वाली ये आखिरी अंकिता है? क्या इस घटना के बाद सत्ता और पैसे का तांडव बंद हो जाएगा? सवाल बहुत सारे हैं अंकिता मामले को लेकर भी और बेटियों के भविष्य को लेकर भी, क्योंकि ऐसी घटना किसी एक परिवार से उसकी बेटी ही नहीं छीनती बल्कि कई बेटियों के सपने छीन लेती है। इसलिए मैं तो बस देवभूमि के द्याप्तों ( देवताओं ) से हाथ जोड़कर ये प्रार्थना करती हूं कि मेरे उत्तराखंड में ऐसी Headlines का अकाल पड़ जाए।
One Comment
बटरोही
अब तक की अनेक रपटों में प्रीति की टिप्पणी सबसे आत्मीय, भावनात्मक और सच्चे पत्रकार की वस्तुनिष्ठता से युक्त है। वह अनुभवी पत्रकार है, लड़की है, शायद इसलिए।