अतुल सती
‘हंड्रेड इयर्स ऑफ साॅलिट्यूड’ अर्थात् ‘एकांत के सौ वर्ष’ गैब्रियल गार्सिया मार्खेज का एक विश्वप्रसिद्ध उपन्यास है। इस उपन्यास में कल्पित एक क्षेत्र मैकण्डो में वर्षों तक बारिश होती रहती है। बारिश बन्द ही नहीं होती। जिस वजह से जगह-जगह काई जम जाती है, बरसाती घास और बेलें इत्यादि उग आती हैं। मार्खेज बरसात का और उसके जरिये उदासी का, एकरसपने का ऐसा दृश्य रचते हैं कि आप उसको पढ़ते हुए खुद को भीगा हुआ सा महसूस करते हैं।
उत्तराखण्ड के जिस हिस्से में हम हैं, वहां पिछले 6 माह से इसी उपन्यास की कल्पना का बिम्ब सचमुच में वास्तविक होकर गुजर रहा है। लगता है यह कल्पना हमारे यहाँ आकर सजीव हो गई है। एक अंतहीन बरसात, जो बस कभी कभार जैसे सांस लेने भर को कुछ समय थमती है। या बोर हो जाती है तो अपनी दिनचर्या में थोड़ा फेरबदल भर करती है। वर्षा अपने मूड के अनुसार कभी दिन में, कभी दिन के बजाय रात में या रात के बजाय सुबह बरस जा रही है। बरसात एक मौसम न होकर जलवायु हो गयी है।
बरसात का न सिर्फ समय दीर्घ हुआ है बल्कि उसके पैटर्न में भी बदलाव हुआ है। अब बरसात झुटपुट-झुटपुट सी नहीं हो रही है। जब होती है पूरी तेजी के साथ। हर बार बारिश का होना एक आशंका पैदा करता है कि, जरूर कहीं कुछ घटा है। और यह हर बार सच भी हो जा रहा है। दो दिन पहले, 20 सितम्बर को सुबह जब बारिश हो रही थी तभी यह लग रहा था कहीं आसपास कोई विपदा आ गयी है। कुछ देर बाद खबर आई कि नारायण बगड़ के एक हिस्से में अतिवृष्टि से एक गधेरा (नाला) उफन आया जिसके चलते एक पूरी बस्ती में मलवा भर गया। मजदूरों का एक कैम्प बह गया, जिसमें सड़क निर्माण में लगे दो-एक सौ मजदूर रहते थे। प्रत्यक्षदर्शियों ने देखा कि पानी का बहाव इतना तेज था कि बच्चे उसमे बहने लगे जिन्हें स्थानीय लोगों ने किसी तरह बचाया। घरों में मलवा घुस गया। गाड़ियां उलट गयीं। ग्वालदम की ओर जाने वाली मुख्य सड़क (राजमार्ग) मलवे से पट कर बन्द हो गयी।
यही दृश्य दो माह पहले घाट बाजार, नन्दप्रयाग में दिखाई दिया। ऐसे ही अतिवृष्टि से एक गधेरा (नाला) उफन आया। घर, मकान, बाजार मलवे से भर गये। उसी के आसपास देवप्रयाग के एक मोहल्ले में यही दृश्य उत्पन्न हुआ। उत्तरकाशी में, रुद्रप्रयाग में, कर्णप्रयाग में, थराली में, जोशीमठ में बहुत से गांवों से अतिवृष्टि की खबरें पिछले दो-तीन माह में लगातार आयी हैं। पहाड़ का कोई भी जिला इससे नहीं बचा।
यह बरसात का नया स्वरूप, एक नई प्रवृत्ति देखने मे आयी है। पहले अतिवृष्टि अथवा बादल फटने की घटनाएं यदा-कदा ही सुनने को मिलती थीं। किसी एक बरसात में कहीं कोई एक घटना घटती थी तो वर्षों तक याद की जाती थी। अब ऐसी ही कई घटनाएं एक ही बरसात में एक के बाद एक इतनी जगहों पर हो रही हैं, कि उन्हें याद रखना भी मुश्किल है। जब तक एक जगह के लोगों तक कुछ सहायता पहुँचाने की सोचें, तब तक दूसरी जगह वैसी ही घटना हो जा रही है। बरसात का कहर आसपास के इलाकों में इतनी जगह व्याप्त है कि किसी एक जगह के आपदा में घिरे लोग भी सहायता के लिए कैसे कहें। जबकि टनों मलबा हटाना या मलबे में दबे जीवन को फिर से समेटना बड़ी मुसीबत है। पूरी क्षति न होने पर भी इससे उबरना सम्भव नहीं होता। किन्तु सरकार की दृष्टि में यह आंशिक क्षति की श्रेणी में ही आता है।
मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि यह ग्लोबल वार्मिंग के साइड इफेक्ट्स हैं अर्थात् धरती के तापमान में हो रही वृद्धि के कुपरिणाम। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से है तो एक सरकार या कोई स्थानीय सरकार क्या करेगी ? जबकि यदि यह ग्लोबल वार्मिग की वजह से भी है तो भी जिम्मेदार तो स्थानीय कारक ही हैं। कारण हमारी नीतियां ही हैं। अनियोजित और संवेदनहीन विकास का अगड़म बगड़म ढांचा ही इसके जिम्मेदार है। बहुत से लोगों का मत है कि उत्तराखण्ड में बनी जल विद्युत परियोजनाएं व उन परियोजनाओं के लिए बनी बड़ी पानी की झीलें भी अतिवृष्टि के लिए जिम्मेदार है। श्रीनगर बाँध की झील हो या टिहरी बांध की इसने स्थानीय मौसम को प्रभावित किया है, यह तो माना ही जा सकता है। भले ही इस पर विधिवत वैज्ञानिक अध्ययन अभी सामने न आये हों पर वहां बरसात के पैटर्न में बदलाव को व्यवहारिक तौर पर लोग देख ही रहे हैं, महसूस भी कर रहे हैं।
मौसम के इन बदलावों पर शीघ्र अध्ययन की आवश्यकता तो है ही उसके अनुरूप नीति निर्धारण की भी जरूरत है, जिससे लोगों के जान माल को बचाया जा सके। 2013 कि आपदा के बाद हुए वैज्ञानिक अध्ययन व उच्चाधिकारप्राप्त रवि चोपड़ा समिति की सिफारिशों को जिस तरह अनदेखा किया गया वह 7 फरवरी की रेणी तपोवन आपदा का कारण बना। उसी कमेटी ने मौसम के बदलाव व उसके अनुरूप नीतिगत बदलाव की भी सिफारिश की थी, किन्तु सरकारों पर इसका असर नहीं हुआ और अब इसकी कीमत आम जनता चुका रही है। यदि इन नए होते मौसमी बदलाव पर शीघ्र ध्यान देकर तदनुरूप एक्शन न लिया गया तो तय है हमें इसकी और बड़ी कीमत अदा करनी होगी।