देवभूमि डेवलपर्स : विकास की गति धीमी करने की अनुशंसा
प्रयाग जोशी
शराब नहीं रोजगार दो। शराब माफियाओं के द्वारा की गई उमेश डोभाल की हत्याकांड की ईमानदारी से जांच कराओ। दोषियों पर मुकदमा चलाओ। अपराधियों को न्यायालयों से दंडित कराओ। हिमालय जैसे नाजुक पहाड़ पर टिहरी के जैसे विशाल बांधों की योजनाएं बंद करो। छोटी योजनाएं बनाओ। वनों की सुरक्षा के लिए ‘चिपको’ जैसा आंदोलन चलाने वाले पहाड़ के लोगों की अनसुनी मत करो। उनके जल, जंगल और जमीनों की बदहाली मत करवाओ। यातायात की सुविधा बढ़ाने के नाम पर चट्टानों को तोड़ने और बोल्डरों को फोड़ने के साथ-साथ सुरंगों के निर्माण की हद तय करो। इस तरह के दर्जनभर से भी ज्यादा आंदोलनों के सिलसिले से जुड़ा, देश की अन्य पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण के विरुद्ध शुरू हुआ आंदोलन।
बारहनाजा बीजों से अंकुरित दालों के खेत मानो जंगली घासों से लहलहा उठे हों, उसी भांति पहाड़ के हिस्से को उत्तर प्रदेश से पृथक कर ‘उत्तराखंड’ नाम के राज्य की शीघ्रातिशीघ्र गठन करने की मांग उठी थी जिसकी राजधानी गैरसैंण नामक स्थान में हो। उस के गठन की ना-नुकुर, हां-हांजी कई वर्ष लंबी खिंचती कि डेढ़ दर्जन के करीब नौ-जवानों ने अपनी जान की बलि दे दी।
उक्त आंदोलनों और ‘उत्तरांचल’ नाम से गठित कर दिए राज्य की, जिसकी राजधानी देहरादून घोषित की गई, की लगातार खबर लेते रहे कथाकार नवीन जोशी की किताब ‘देवभूमि डेवलपर्स’ विगत महीनों प्रकाशित हुई है। सहस्राब्दी वर्ष से पहले के आंदोलनों पर उनकी कृति ‘दावानल’ प्रकाशित हुई थी। राज्य गठित हो जाने के बाद के हालातों पर केंद्रित होने से प्रस्तुत कृति को उसी का दूसरा भाग माना जा सकता है। ये दोनों ही औपन्यासिक कृतियां हैं। दूसरे शब्दों में इसे दावानलों की ज्वालाओं से निकले देवभूमि के निरंतर अद्यतन होती जा रही व्यावसायिक परिणतियों की त्रासद पटकथा के रूप में भी देख सकते हैं। यह ऐसी पटकथा है जो उसके भौगोलिक ही नहीं, सांस्कृतिक खतरों की भी चेतावनी दे रही है।
शराब के विरुद्ध; उत्तराखंड का व्यवस्था के साथ चलने वाला दीर्घकालीन शीतयुद्ध सीजफायर हो गया है। दोनों दलों ने अब मान लिया है कि वह देवलोक की प्रजातंत्री सरकारों और प्रजावर्ग के तरक्की-पसंद माननीयों की कमाई का मजबूत जरिया बना रहेगा। इस अनुबंध के चलते जल-क्रीड़ा को सनातन स्वरूप दिया जाएगा। इस मसौदे का लिखित ‘राग दरबारी’ भी इस कृति में है। दो टूक शब्दों में कहा जा सकता है कि यह उपन्यास विगताख्यान तो है ही, उत्तराखंड के भावी इतिहास लेखन के लिए दस्तावेज और वहां के लोक-जीवन की शब्दचित्रों सहित गाथा-कथा भी है।
‘देवभूमि’ नामक एक सांस्कृतिक शब्द का अपकर्ष, पर्यटन के अर्थ में किस तरह व्यावसायिक होता गया, उसका सामुदायिक प्रत्यक्षीकरण तो किताब कराती ही है, वहां जाकर देखने की पर्यत्सुकता भी बढ़ाती है। खासकर उन स्थानों को जहां लोक जीवन की मौलिक यथार्थता तथा-कथित विकासवाद की विडंबनाओं के बावजूद अभी भी बची हुई है।
विवेचित किताब नौ परिच्छेदों में है। प्रारंभिक परिच्छेदों के शीर्षक वहां के जनान्दोलनों अथवा उनमें बढ़ते गए ‘नारों’ के नाम है। गांवों के विस्थापन से बंजर हुए घरों के, बहने से रोक दी गई नदियों के, बांधों के सैलाबों में डूबा दी गई जनाकांक्षाओं के, राजधानी लखनऊ के पंजों से एक राज्य को जिंदा छुड़ा लाने की गुत्थम-गुत्था और शांति के लिए धधकते हिमालय के नाम से भी शीर्षक हैं।
छठे परिच्छेद में आते हैं अपनी देवभूमि के ‘डेवलपर्स’। उनके कारखाने लगाने के लिए रियायती दामों पर भू-खंडों की खरीद, होटल, रिजॉर्ट, गेस्ट हाउसेज, अपार्टमेंट्स बनाकर पर्यटकों के ठहरने के ठिकानों को विकसित किए रहने की फटाफट पास हुई बहुत सी योजनाएं पिछले दो दशकों में पूरी कर ली गई हैं। जिससे वहां की ट्रिकल डाउन इकोनॉमी की आधारभूत नींव पुख्ता कर ली गई है, ऐसा मान लिया गया है। यह इकोनॉमी निवेशकों की खुशहाली के ग्राफ को काफी ऊपर पहुंचाने में सफल हुई है। ऊपर से बूंद-बूंद चू कर गिरा हुआ उसका जूस नीचे आ रहा है। पहाड़ की चोटियों की तरफ नहीं जा रहा तो किस विधि से पहुंचाया जाए इसकी जद्दोजहद में निरंतर प्रयास जारी है। जो लोग ऊपर ले जाने वाली सीढ़ी के पहले ही पायदान पर पैर रखने की जगह पाने की लाइन में धक्के मुक्के खा रहे हैं, अपने औपन्यासिक कालखंड में उनके पास ‘नेचर हट्स’ और ‘होम स्टे’ आवासों के चेन प्रोजेक्ट हाथ में है, जिन्हें धरातल पर उतारने के लिए उन्हें ऐसे भूखंडों की तलाश है जो उस राज्य के सीमांतीय जिलों में बांज, बुरांश, काफल-कंटूज जैसे सदाहरित वनों के आच्छादनों से ओझल हों। हिमालय सामने दिखते हां। जाड़ों में बर्फ और गर्मियों में शीतल हवा के झोंके चलते हां। नजदीक में गांव भी हां। भू-खंड, पहाड़ों के माथों की तरह आयत्त हां। उनका लुक कुंच-कपाल मनखियों की तरह का न हो। ऐसे स्थानों में उनके संज्ञान में पिथौरागढ़ जिले के सिमाला और सिमल्ता गांव लाए गए हैं। सिमाला जाने के लिए अल्मोड़ा से दनिया होकर पिथौरागढ़ जाने वाली सड़क पर घाट के पहले ही बाकुड़ के पास बस से उतर जाना होता है। उसके बाद तीखी पहाड़ी पर बसे उस गांव तक जाने के लिए पैदल रास्ता है।
वह गांव रूखी, दोयम (कम उर्वर) असिंचित उपराऊ पहाड़ी पर बसी हुई पुरानी बसासत का है। वहां मक्का, मडुवा, झंगोरा, चुवा-कौंणी, बाजरा आदि मोटे नाज उगाए जाते हैं। कहीं-कहीं जहां चौड़े खेत हैं, लोग खाकी के धान, उचखल, जौ और ऊवा भी उगाते हैं। मौसम माकूल होने पर कुछ हो जाता है अन्यथा पशुओं का चारा ही सही। दलहनी-तिलहनी फसलों में गहत, भट, फांफरा, रैसी, राजमा, भांगा-भंगीरा होता है पर हर परिवार के पास खेत कम हैं। तीस-पैंतीस मवासों का गांव है। हर खेत की किस्मत अलग-अलग होने से पैदावार सब जगह एक जैसी नहीं होती। खेतों के साथ एक झमेला यह है कि छितरे हुए हैं। इकट्ठे नहीं है। एक यहां है तो दूसरा दूर, पहाड़ी या रौले-रौखड़ की दूसरी तरफ। मवासे बंटने पर हर हिस्सेदार, हर किस्मत के खेत में अपना हिस्सा लेना चाहता है। इससे खेती की जोत छोटे होते-होते बाड़े भर की हो जाती है। उसमें बैलों की जोड़ी भी नहीं जुत सकती। कमर टेढ़ी होने तक फिर भी लोग खोद कर कुछ बोते ही हैं। वहां चकबंदी की व्यवस्था लागू करने की, आजादी के बाद भी सरकार ने नहीं सोची। ईस्ट इंडिया कंपनी ने आठ आना, रुपया पर भी राजस्व की गुंजाइश न खोने के लिए ‘बंदोबस्त’ के नाम से जितने मगजपच्ची गांव की सीमाओं के निर्धारण, फील्ड सर्वे और हर खेत का नक्शा बनवाने का सन 1816-17 से लेकर 60-65 तक और शिकायतों की सुनवाई में न्यायालय के अंसवरी फैसलों के आने तक 1999 तक जो नजीर हमारे सामने रखी, वह न हमारे व्यवहार में आई न सरकारी नीति में। भाई-बांटों के लोक रीतियों में वह कहां से झलकती ? परिणाम यह हुआ कि पहाड़ी खेती जिये का जंजाल हो गई। फिर भी सिमाला जैसे गांव लोगों ने छोड़े नहीं हैं।
लोगों की समझ में वह बकरी पालन के लिए अच्छी जगह है। वे गाय-भैंसें भी पालते हैं। आधुनिक सुविधायें वहां बहुत देर से, वह भी नाम मात्र को ही पहुंची। फिर भी लोगों को सरकारी इमदाद का भरोसा है। जैसे-जैसे आर्थिक तंत्र की सेहत सुधरती रही, कमोबेश उन्हें भी लगा कि उनके गांव को भी कुछ मिला ही है। जिन सोतों पर पोखर थे, नौले, डिग्गियां बनाई गईं। गाड़-गधेरों से गूलें निकालकर खेतों तक पहुंचाने की योजनाएं बनी। पैदल बाटों में खड़ंजे का काम खुला तो मजूरी गांव तक आई। शनैः-शनैः नलों के जरिए गांव तक सार्वजनिक पानी पहुंचाने का काम आया। सस्ते-गल्ले की दुकान खुलने से अधिकृत दुकानदारी और मोटर मार्ग से गांव तक ढुलान करने वालों को काम मिला। बकरी, गाय, मुर्गी, सुअर पालन के लिए अनुदान मिलने लगे। शिक्षा गांव के करीब आई। 4-6 मील दूर जाकर हाईस्कूल इंटर तक पढ़ लेना कठिन नहीं माना जाने लगा। ठीक-ठाक कद काठी के मेहनती लड़के फौज में भर्ती होकर परिवार की आर्थिकी में भी सुधार करने लगे। लड़कियों में शिक्षा का प्रसार होने से खेती व पशुपालन पर उनका सहकार कम जरूर हुआ पर उनमें आत्मबल बढ़ा और नौकरियों में जाने की चाहत बढ़ी। उसके दूरगामी परिणाम आश्वस्त करने वाले थे।
उपन्यास में आए सिमाली गांव को धीमी गति से सतत चलते आर्थिक विकास के मॉडल के रूप में देखें तो वहां जीने के संसाधन आज भी गुजर-बसर भर के ही हैं। उनका सब्सटेंटिव आर्थिकी है लेकिन प्रकीर्ण धंधों को और संस्कृति के सनातन को लोग भूले नहीं हैं। फलों के पेड़, शाकभाजी, जंगली फल वगैरह को वे सहेजे रहते हैं। दूध बेचने ऊपर के गांव से चलकर मोटर सड़क के किनारे की स्थानीय बाजार तक आते हैं। पुराने धंधों के साथ नजदीक में छोटी-मोटी नौकरी भी मिल जाती है तो पारिवारिक स्थिति को बेहतर बना लेते हैं। वैकल्पिक प्रबंधन के नाम पर रेहड़-रोखड़, धुर गांव के इर्द-गिर्द मोटर सड़क से लगे में दुकानदारी करने, छोटे वाहन खरीद कर सड़क पर मात्र ढोने या अनतिदूर सिंचित भूमि उपलब्ध हो जाने पर, इस गांव के बदले वहां जाकर किसानी से ही भावी संततियों के लिए कुछ विरासत जुटा जाने का मंसूबा ही उनके मन में होता है। पहाड़ से पलायन का ख्याल उनके मन में नहीं आता। वे पुराने गांव से संबंध बनाए रखना चाहते हैं। देवी-देवताओं और बिरादरियों से रिश्ता अटूट होने से वे अपने भाषा-भूगोल और सांस्कृतिक परिसर को खोना नहीं चाहते।
सिमालगांव के पूरनचंद के माध्यम से उपन्यासकार के छाया-नायक पुष्कर ने उसे अपना भीना बनाकर उक्त सोच को दृष्टांत स्वरूप प्रस्तुत किया है। पूरनचंद के पिता की जमीन के पांच हिस्से हुए क्योंकि वह पांच भाई थे। हर खेत में ‘वोड़ा’ पड़ा तो वे खेत नहीं सगवाड़े हो गए। पूरन फ़ौज में थे तो देश की रक्षा में भी तैनाती रही और माहवारी तनख्वाह भी घर आती रही। दो लड़कियां और एक लड़का था। पत्नी गाय पालती थी। चाहे कितना ही छोटा खेत, कहीं भी हो कुछ ना कुछ उगाती थी। लड़के ने पिता की लाइन में जाने के लिए कमर कसी। शरीर श्रम भी किया। स्कूल अर्हता के साथ दैहिक सौष्ठव पर भी ध्यान बनाए रखा। कामयाबी मिली। फौज में भर्ती हो गया तो कमाने वाले दो हो गए। पिता के सेना से रिटायर होने पर गांव से दो-तीन मील दूर सरयू के किनारे ‘रस्यून बजेती’ मैं उन्हें सिंचाई वाली सेरे की जमीन मिल गई तो खरीद ली। सिमाला की जमीन गांव वालों को बेच दी। रस्यून में उन्होंने नया घर बनाया।
बेटे कमल को प्रमोशन मिला तो कैप्टन बन गया। विवाह के लिए पढ़ी-लिखी लड़की भी अच्छे रिश्ते में मिल गई। पुष्कर का सपत्नीक दीदी-भीना के पास आना जाना होता था। भांजे के ब्याह में भी शामिल होने के लिए गया था। सड़क पर नाचने वाली शादियां पहाड़ में पहले भी नहीं होती थी उस दिन भी नहीं हुई। दीदी के घर से चाची बैजंती के लिए मिठाई का पैकेट और धोती-ब्लाउज की भेंट लेकर अपने गांव सुमकोट लौटते हैं पुष्कर दंपति।
उपन्यास में वर्तमान दौर में सरकारी व्यवसायिक नीतियों के तहत ईको-टूरिज्म के नाम पर फटाफट विकसित किए गए ‘नेचर हट’ और ‘होम स्टे’ के लिए प्रतिदर्श के बतौर सुमकोट के धरातल में उतारी जा रही उस योजना का इतिवृत्त प्रस्तुत किया गया है जिसमें ग्रामीण अपने गोचर, पनघट, ग्राम पंचायत आदि के लिये इस्तेमाल करते हैं। यह बेनाप-बंजर क्षेत्र पंचायतों के ही अधीन माने जाते रहे हैं।
उत्तराखंड में दूसरी विधानसभा के चुनाव के बाद नई औद्योगिक नीति बनाई गई। उस नीति में बेनाप-बंजर भूमि को कुछ शर्तों के साथ उद्यमियों को देने का निर्णय हुआ था। उद्यमियों के समूह ने कुंदन शाह को उत्तराखंड इंडस्ट्रीज एसोसिएशन का सचिव बना दिया था। सबसे पहले उसी ने यह बताया था कि उत्तराखंड अकेला राज्य है जहां उत्तर प्रदेश के समय से ही गांव की संजायत भूमि सरकार के अधीन है। पंचायतों के अधीन नहीं है।
बिल्डर्स ग्रुप को सिमल्ता के इलाके में सुमकोट की बनाली के भीतर ऐसे भूखंडों की सूचना माधव तिवारी नामक लड़का देता है। वह नौकरी करने के नाम पर घर से भागा, यही एकमात्र अर्हता है उसके पास। सुमकोट के मूल निवासी तिलुवा लाटे का एकलौता लड़का। लाटा नाम तो उत्तराखंड की भाषाओं में लोक विश्रुत शब्द है। ऐसा मनखी कहीं भी किसी भी जिले में हो सकता है। उस नाम को सार्थक करने वाले बहुतेरे हो सकते हैं। इस लाटे का राशि नाम है त्रिलोकचंद्र तिवारी। माधव जीप की कंडक्टरी में नौकरी पाकर हल्द्वानी से देहरादून पहुंचता है। कुछ संयोग और कुछ बुद्धि से ‘देवभूमि डेवलपर्स’ में दिन का चपरासी और गार्ड, सुबह शाम घरेलू नौकर की नौकरी में रख लिया जाता है। ढाई वर्ष बाद गांव लौटता है। नए जमाने की लाल टी शर्ट, जींस की पैंट, पीठ में भूगोलक में ब्रांड रूप में धार्यमाण पिट्ठू और गरारियों के सहारे सड़क पर खींचे जाने वाले बैग को अटैची की तरह हाथ में झुलाए माधव को सवयस लड़कों का चहेता बनने में, देखने भर की देरी होती है। देहरादून को लौटता है तो अपनी ही बिरादरी के रामी, केदार और कमलेश को नौकरी दिलाने का वायदा दिला कर उनको भी साथ ले जाता है।
उत्तराखंड के सीमांत जिले पिथौरागढ़ की ही सीमा के भीतर आने वाले ‘सुमकोट’ नाम के उसके गांव तक पहुंचने के लिए अल्मोड़ा से सेराघाट होकर गणाईं से बेरीनाग को निकलने वाली सड़क पर सिंमल्ता में उतरना पड़ता है। वहां से पहाड़ी पर जाने के लिए एक मील की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। उसके बाद कम चढ़ाई का तिरछौटा है सुमकोट जाने के लिए। जंगल के बीच खड़िया की खानें हैं। सुमकोट के ही गोवर्धन तिवारी के दो बेटों को खनन का ठेका मिला हुआ है। खानों और गोचर की जगहों के बीच ‘नेचर हट्स’ के निर्माण के लिए ‘देवभूमि डेवलपर्स’ चड्ढा ग्रुप के साथ मिलकर वहां जमीन खरीदते हैं। ‘चड्ढा ग्रुप’ क्या है ? कांतिबल्लभ तिवारी के बेटे महेश, लाटा के लड़के माधव और मथुरा दत्त के बेटे कमलेश नाम के, बिरादरी के ही तीन लड़कों का ज्यॉइंट वैंचर है यह ग्रुप। माधव ही मुखिया है जो रफ्ता-रफ्ता तरक्की कर के प्रधानी का चुनाव भी जीत चुका है। देहरादून में पकड़ होने से सुमकोट तक सड़क की योजना की स्वीकृति भी ले आया है। कांति बल्लभ तिवारी का लड़का महेश जीप खरीदने की जिद पर अड़ा हुआ है। बाप के लिए उसे गांव में रोकना मुश्किल हुआ है। कहता है जीप खरीदवाते हो तो रहता हूं यहां, नतर भागता हूं यहां से। सांसत में पड़ा कांति लड़के को गांव में रोकने हेतु जमीन बेच देता है और जमीन की कीमत से गाड़ी खरीदी जाती है। मथुरा दत्त के बेटे कमलेश तिवारी को लड़की ब्याहनी हो रही है। माया व मीना की तो येन-केन प्रकार हो ही गई थी। अब रेखा गले पड़ी हुई है। सिलसिला खेतों को व्यावसायिक बस्ती में तब्दील करने का चला है। खेती के बवाल से मुक्ति पाकर बेचारे पिता लड़की के बोझ से भी दुहरी मुक्तियों का लाभ ले लेते हैं। दाज्यू कमलेश, त्रिलोचन और कांति के खेतों का बैनामा गुंजनशाह एवं श्वेता शाह के नाम हो जाता है।
फटाफट अच्छा भरा सुमकोट गांव छः मकानों की ‘सुमकोट हट्स’ शाह-चड्ढा ग्रुप की मॉडर्न कॉलोनी के रूप में प्रचारित हो गया। सैलानी मेहमान आकर जंगल वॉक और जौगिंग का लुत्फ लेने लगे। वे खेतों में काम करती महिलाओं पर कैमरे फोकस करते। कोई-कोई तो बांज के पेड़ों के बीच अनुलोम विलोम, भस्त्रिका करने लग जाते। महेश हल्द्वानी से आने वाले सामानों की पेटियां जो सिमलता में उतरती थी, अपनी जीप में लादकर हट्स में पहुंचाता, जिनकी वह चौकीदारी और प्रबंध संभाले था। एक दिन माधव ने महेश को एक नई अतिरिक्त जिम्मेदारी के साथ कुछ और कमाई की तरकीब सुझाई कि क्या तुम्हारी घरवाली कभी-कभार मेहमानों के लिए पहाड़ी खाना बना देगी? खाली नहीं, पैसा मिलेगा।
महेश खुश क्यों न होता। माधव के सुझाए हुए रास्ते से ही तो वह ऐसी तरक्की के रास्ते में पहुंचा था। उसकी पत्नी राधा को ऐसी नौकरी रोमांचक लगनी ही थी। वह जब ऑर्डर मिलता, लकड़ी के चूल्हे में ‘रागी ब्रेड’ (मडुवे की रोटी), ‘सोयाबीन सूप’, ‘चुडकाणी रस’, ‘रोस्टेड गेठी विद धनिया चटनी’, ‘दाल गहत’, हेल्दी पहाड़ी ऑर्गेनिक फूड तैयार करती लेकिन उसकी दिलचस्पी वहां के कुक कम केयरटेकर सोहनलाल से मैगी, चाऊमीन मोमोज, ब्रेड आमलेट जैसी नई चीजें पकाना सीखने में अधिक रहती।
उक्त इतिवृत्त के चरम में लेखक ने सामाजिक उसूल पर आक्रमण के दृष्टांत स्वरूप जो सूचना देनी चाही है, वह आर्थिक डिवेलपमेंट की नहीं, आपराधिक वारदातों के डिवेलपमेंट की है।
भांजे की शादी से अपने गांव लौटने पर पुष्कर को सूचना मिलती है कि महेश ने अपनी पत्नी राधा की हत्या कर दी है। वजह कि उसने शराब के नशे में सोहन के साथ सोई राधा को देख लिया था। देखा कि खून खौल गया। वह उसे घसीटते हुए घर लाया और बाण्याठ से उसकी गर्दन छनका दी। गांव में पहली बार पुलिस आई। चादर में बंधी लाश और महेश को एक ही गाड़ी में ले गई।
कहानी पर कहानियां, अंतकहानियां, उत्तराखंड पर सुनी जाती, प्रकाशित होती, छपाई जाती, घटित होती, अघटित की संभावना झलकाती कितनी कहानियां हैं देवभूमि के डिवेलपमेंट से जुड़ी। पढ़कर देखें तो जानें विस्तार।
धीमे परंतु सतत चलते, लोक जीवन के विकास और फटाफट ठिकाने लगाई जा रही डिवेलपमेंट की देवभूमी भी नीतियों के समानांतर कहानियों के जरियों को जोड़कर उपन्यासकार सांस्कृतिक यथातथ्य में प्रविष्ट कराता है।
उसके एयरोस्पेस में निर्मित हो रही इतनी बहुत जो कि गिनती में ही न समा सकने वाली हों, देवभूमि में चल रही नान्तमुखी और सर्वतोभद्र पुराण कथाओं की तरह आद्योपांतता में सुना और गुना जाए तो उनका पारायण जिस महानीराजन में होता है, उसके साथ गाए जाने वाली प्रार्थना के पाठ को कहना होगा ‘देवी के थान पतुरिया नाचे ता थैया ता थैया होत’। यह प्रस्तुत आख्यान का नवां अंतिम परिच्छेद का सार्थक शीर्षक ‘नवधा’ भक्ति के उपदेश जैसा है। इस महाकथा को लेखक ने पानी की घूंट पी-पीकर उसी भांति पाठकों को सुनाने की कोशिश की है, जैसे लहनासिंह ने अपने देश के भूगोल में नहीं फ्रांस के विरुद्ध ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से इंग्लैंड के लिए लड़ी जा रही लड़ाई में ‘उसने कहा था कहानी’ वजीरा को सुनाई थी।
प्रायोजित महाकथा के श्रीगणेश का मुहूर्त आठ नवंबर दो हजार सन की रात का ज्यों ही निर्धारित हुआ था, लखनऊ के विधान भवन के गलियारों में चर्चाएं चलनी शुरू हुई थी कि ‘उत्तरांचल जाओ, एक पद ऊपर पाओ। स्पेशल इंक्रीमेंट लो। नए राज्य में खाने-कमाने के प्रभूत अवसर हैं। कंस्ट्रक्शन…
इन्हीं चर्चाओं के बीच दून एक्सप्रेस से भर-भर कर आने लगे थे बिल्डर, ठेकेदार, भू-माफिया, सत्ता के गलियारों में चक्कर लगाने वाले फिक्सर। उन्हीं के साथ कुमाऊं के ही मूल के लखनऊ में जमे जमाए डिवेलपर कुंदन शाह। वे अपने गृह राज्य में भी कारोबार का विस्तार करने आते हैं। उनके ससुर वित्त मंत्री के विशेष सचिव होते हैं, कहीं अस्थाई तथापि निःसंदेह स्थाई होने वाली राजधानी देहरादून में। वे राजपुर रोड पर एक बंगला किराए पर लेते हैं। उस पर ‘देवभूमि डेवलपर्स’ का बोर्ड लगाते हैं जो उनका ऑफिस भी है और आवास भी। वे सहस्त्रधारा रोड पर दो एकड़ जमीन खरीदते हैं और ‘कूर्मांचल कॉटेज’ और ‘सहस्त्रधारा कॉटेज’ के निर्माण की शुरूआत करते हैं। यह बहुत लंबी कहानी महाकाव्यों के आधिकारिक कथा जैसी है जो अभी ‘सुमकोट’ तक ही पहुंची है।
रोजगाओं का सृजन होने लगता है। बूंद-बूंद टपकने वाली आर्थिकी के लिए मुंह बाए इंतजार में खडे पहाड़ी लड़कों की आवक होने लगती है। बढ़ते हुए कार्यालयों, कोठियों में झाड़ू, बुहारों, चौकीदारी, रिसेप्सनी, ग्राहकों की अटैंडी, निर्माण के साइडों की देख-रेख, ठेकेदारों की मुंशीगिरी, साहबों के कुत्तों की टहली, गाड़ियों की धुलाई, रोज के घरेलू जरूरतों के सामान की डायरेक्ट टू होम डिलीवरी जैसे जॉबों में रोजगार के लिए जिस भांति उत्तराखंड के नौजवान दिल्ली और लखनऊ की दौड़ा-दौड़ी करते थे, देहरादून आने लगते हैं। बहुआयामी उपन्यास रोचक है। उसके शिल्प और लौकिक अभिव्यक्ति पर फिर कभी के लिए इंतजार करें।