प्रमोद साह
9 नवंबर 20 19 का दिन भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में वह महत्वपूर्ण दिन है जिस दिन सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1856-57 से लगातार भारत के समाज, राजनीति, और जनमानस को प्रभावित करने वाले सबसे संवेदनशील विषय पर एकमत से फैसला देकर सदियों से फैले कुहासे को साफ करने का काम किया है हालांकि 1045 पेज के इस निर्णय पर 1045 से अधिक बार समीक्षा लिखी जाएंगी और निर्णय आने के दिन से ही निर्णय के विरुद्ध आपत्तियां भी सार्वजनिक हो रही हैं. हांलाकि किसी भी निर्णय से असहमत होना न्यायिक अधिकार भी है.
इस निर्णय को लिखे जाने के वक्त स्वीकार किए गए दोनों पक्ष सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड सूट न० 4 और रामलला विराजमान सूट नम्बर 5 के विद्वान अधिवक्ता राजीव धवन व सहयोगी तथा अधिवक्ता के पाराशरन ने बहुत खूबसूरती से अपने-अपने पक्ष को साबित किया, परिणाम स्वरूप न्यायालय किसी भी पक्ष को पूरी तरह खारिज नही कर पाया.
दोनों पक्षों के हितों को सुरक्षित रखने के आशय से ही न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 में सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त विशेषाधिकार का पहली बार किसी दीवानी वाद में उपयोग किया. अपने निर्णय के दौरान न्यायालय जस्टिस, इक्विटी गुड कंसेशंस के न्यायिक सिद्धांतों पर गंभीर चर्चा करता भी दिखा. यह सब माननीय न्यायालय के द्वन्द को भी दर्शाता है.
न्याय क्या है ? आधुनिक विश्व में न्याय की अवधारणा का विस्तार यूनान से हुआ और यूनान में न्याय को लेकर दो मत प्रचलित हैं एक जस्टिनयन का मत है “let justice be done though heaven fall” अर्थात न्याय किया ही जाए, चाहे आसमान जमीन पर आ जाए.
दूसरा मत सिसरो का है “सेल्स पापुलाइ सुप्रीमलाइ” अर्थात “लोकहित में जो है वही न्याय है”. लोक हित और समाज हित की अवधारणा को प्लेटो का भी समर्थन प्राप्त हुआ. दोनों पक्षों के साबित होने की स्थिति को देखते हुए रामलला विराजमान के अधिवक्ता के. पाराशरन ने सामाजिक शांति एवं सौहार्द के मद्देनजर नजर “पूर्ण-न्याय” की अपील की जिसे माननीय न्यायालय द्वारा इस तर्क के आधार पर स्वीकार किया गया कि “1856-57 से ही मुख्य गुंबद के अंदर जन्म स्थान के रूप पर पूजा होती रही और बाहर प्रतीकात्मक रूप से राम चबूतरे पर निर्वाध रूप से पूजा-अर्चना जारी रही.
जबकि मस्जिद में निर्विवाद रूप से लगातार नमाज अदा किए जाने के साक्ष्य प्रस्तुत नही हुए. मस्जिद में वर्ष 1934 तक लगातार नमाज पढ़े जाने और 1934 से 16 दिसंबर 1949 तक जुम्मे के दिन नमाज पढ़े जाने के साक्ष्य प्रस्तुत हुए.
माननीय न्यायालय द्वारा मस्जिद का भी दावा खारिज नहीं किया गया लेकिन पूर्ण न्याय Public Peace and Tranquility के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 का उपयोग कर अयोध्या में किसी अन्य स्थान पर मस्जिद निर्माण के लिए 5 एकड़ भूमि सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिए जाने तथा विवादित स्थान पर राम मंदिर बनाए जाने हेतु ट्रस्ट बनाने के आदेश भी न्यायालय द्वारा दिए गए.
हालांकि इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में ही पुनर्विचार याचिका दाखिल किए जाने का कानूनी अधिकार पक्षकारों के पास है. लेकिन वाद के तथ्य और निर्णय को पढ़ने के बाद यह साफ होता है कि अयोध्या का फैसला समाज हित में दोनों ही संप्रदायों के हक में है. इस फैसले से किसी एक पक्ष की हार नहीं हुई बस नजर साफ और दिल बड़ा कर अयोध्या के फैसले का इस्तेमाल आगे बड़ने के लिए किए जाने की दरकार है.
अयोध्या विवाद के ऐतिहासिक पड़ाव :
1- वर्ष 1857 आजादी के पहले संग्राम में देश के अधिकांश हिस्सों में हिंदू और मुस्लिम ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध एक होकर लड़े, उसी वर्ष 1856-57 में बाबरी मस्जिद के मुख्य गुंबद के भीतर नमाज पढ़ने और राम लला की पूजा अर्चना को लेकर हिंदू और मुसलमान दोनों पक्षों के बीच गंभीर साम्प्रदायिक तनाव देखा गया, 15 मार्च 1858 में लॉर्ड कैनिंग ने मस्जिद में रेलिंग लगवाकर दोनों संप्रदायों की पूजा अर्चना की व्यवस्था सुनिश्चित की. 1877 में मस्जिद परिसर के उत्तरी छोर पर एक दूसरा दरवाजा खोला गया जिसका उपयोग हिंदू धर्मावलंबियों द्वारा किया गया, 28 नवंबर 1858 को अवध के थानेदार शीतल दुबे की रिपोर्ट के आधार पर राम चबूतरा प्रतीकात्मक रूप से पूजा का स्थान पाया गया.
2- महंत रघुवर दास द्वारा जनवरी 1885 राम चबूतरा जो की मस्जिद के बाद ही गलियारे में स्थित स्थित है के 17× 21 वर्ग फीट क्षेत्र में राम मंदिर बनाए जाने का वाद सब जज हैदराबाद की अदालत में दायर किया, खारिज होने पर जिसकी अपील जिला जज फैजाबाद के न्यायालय में की गई जिसे भी खारिज कर दिया गया और दोनों संप्रदायों के बीच सांप्रदायिक टकराव की रिपोर्ट दी गई.
3- 1934 के प्रारंभ में अयोध्या में फिर सांप्रदायिक टकराव हुआ मस्जिद की एक गुम्बद को आंशिक नुकसान पहुंचाया गया जिसकी भरपाई के लिए अयोध्या के हिंदू धर्मावलंबी से 15000 का जुर्माना वसूल किया गया और गुंबद की मरम्मत एक मुस्लिम ठेकेदार द्वारा करवाई गई. 12 मई 1934 के उपरांत मस्जिद में इबादत की अनुमति मुस्लिम को दी गई.
4- 22—23 दिसंबर 1949 को गर्भ गृह गुंबद में मूर्तियां स्थापित कर भजन कीर्तन प्रारंभ किया जिस पर कोतवाली अयोध्या में अभियोग पंजीकृत किया गया, इस विवाद पर 29 दिसंबर 1949 को विवादित गुंबद को सिटी मजिस्ट्रेट फैजाबाद द्वारा विवादित घोषित कर 5 जनवरी 1950 को प्रिय दत्त राम चेयरमैन फैजाबाद मुंसिपल कमिश्नर को रिसीवर नियुक्त किया गया जहां मूर्तियों की पूजा के लिए 2-3 पुजारियों को अन्दर जाने की अनुमति थी. इस मामले में श्री शिव शंकर लाल को कोर्ट कमिशन नियुक्त किया गया जिसने 25 जून 1950 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जहां गलियारे में 17 × 21 फीट पर राम चबूतरे का अस्तित्व स्वीकार किया गया, सीता की रसोई भी स्वीकार की गई. यह कमीशन रिपोर्ट लगातार एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में पूरे विवाद के दौरान देखी गई.
5- 17 दिसम्बर 1959 को निर्मोही अखाडा जन्म स्थान प्रबन्धन एंव देख रेख के लिए आगे आया सूट 3.
6- 18 दिसम्बर 1961 सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड की याचिका समस्त जन्मभूमि परिसर पर मालिकाना हक और गर्भ ग्रह से मूर्तियों को हटाने का वाद दायर किया. सूट नंबर 4 पक्षकार बना.
7- 25 जनवरी 1985 उमेश चंद्र द्वारा गर्भ ग्रह का ताला खोल पूजा-अर्चना प्रारंभ करने के लिए प्रार्थना पत्र जिला जज फैजाबाद की अदालत में प्रस्तुत, 1 फरवरी 1986 को जिला जज फैजाबाद द्वारा गर्भ ग्रह के ताले खोलने के आदेश इस आदेश पर 3 फरवरी 1986 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा स्थगन आदेश पारित किया गया।
8- 1 जुलाई 1989 को रिटायर्ड जज देवकीनंदन अग्रवाल द्वारा रामलला विराजमान को पक्षकार सिविल जज फैजाबाद के अदालत में बनाया गया.
9- 10 जुलाई 1989 को राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद उच्च न्यायालय इलाहाबाद को स्थानांतरित 14 अगस्त 1989 को 3 जज की पीठ द्वारा मामले में यथास्थिति बनाए रखने के आदेश.
10- 7 अक्टूबर 1991 को विवादास्पद 2.77 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कालांतर में वर्ष 1993 में इसके आसपास के समस्त क्षेत्र को मिलाकर 68 एकड़ भूमि का केंद्र सरकार द्वारा अधिग्रहण किया गया.
11- 6 दिसंबर 1992 को कार सेवकों द्वारा कथित मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया जिस पर एक आपराधिक अभियोग अलग से विचाराधीन है.
30 सितंबर 2009 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 2.77 एकड़ भूमि को तीन भागों में बांट कर एक तिहाई गुंबद का भाग सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड को एक तिहाई सीता की रसोई निर्मोही अखाड़ा तथा एक तिहाई भूमि राम चबूतरा रामलला विराजमान आपस में बांट दी इस फैसले के विरुद्ध सभी पक्ष कार सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे जहां कुल 5 सूट लंबित रहे जिसमें शिया वक्फ बोर्ड विश्व हिंदू परिषद और निर्मोही अखाड़े के सूट रद्द कर दिए.
सूट नंबर 4 सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड सूट नंबर 5 राम लला विराजमान के पक्ष पर विचार करते हुए लगातार 40 दिनों की सुनवाई के बाद यह महत्वपूर्ण निर्णय न्यायालय द्वारा सुनाया गया.
1045 पेज के निर्णय में लगभग 100 से अधिक पेजों पर एएसआई द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट उसके साक्ष्यों का विश्लेषण किया गया है.
ए.एस.आई रिपोर्ट से निम्न महत्वपूर्ण तथ्य स्थापित हुए.
1- विवादित ढांचे के नीचे बहुत बड़ी मात्रा में ध्वस्त मलवा पाया गया जो कई परतो में है जिसे नौ अलग-अलग सांस्कृतिक गतिविधियों के काल में बांटा जा सकता है जो शुंग काल की गतिविधियों को भी दर्शाता है साथ ही स्पष्ट रूप से इन निर्माण कार्यों की गतिविधि कुषाण काल से गुप्ता उत्तर गुप्त काल सल्तनत काल तक 12वी सदी तक के निर्माण हैं.
2- विवादित ढांचे के नीचे दक्षिण दिशा में 50 से अधिक पिलरो का समूह जो 17 पंक्तियों में है जिसमें पांच तक पिलर है पाए गए हैं यह सभी पिलर एक समय के नहीं हैं.
3- विवादित ढांचे के नीचे बहुत विशालकाय निर्माण का मलवा है लेकिन किसी मंदिर के अवशेष नहीं मिले हैं. अर्धचंद्राकार जो आकृति मिली है वह पूजा का स्थान हो सकती है. वहां कोई मूर्ति नहीं मिली है अलबत्ता पीलर्स पर पत्ते, कलर्स, बेल आदि की आकृतियां हैं.
4- मस्जिद में जिन काले रंग के कसूरी पीलर्स का इस्तेमाल किया गया है वह विवादित ढांचे के नीचे के स्तम्भों से भिन्न है.
5- मलबे की बुनियाद पर मस्जिद खड़ी है उसकी अलग से कोई बुनियाद नहीं है.
इस निर्णय में साक्ष्य के रूप में ब्रिटिश गैजेटियर्स, यात्रियों के यात्रा वृतांत और स्कंद पुराण तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों के उद्धवरणो का भी इस्तेमाल किया गया है.
न्यायालय की आपत्तियां एवं निष्कर्ष
1- मस्जिद के नीचे एक बड़ा ध्वस्त मलबे का ढेर है जिसमें 12 वी सदी तक के निर्माण अंश हैं मगर 12 वीं सदी से सोलवीं सदी के मध्य तथ्यों पर कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं है.
2- मलबे में मंदिर तोड़े जाने के साक्ष्य नहीं है मगर द्वारपाल, पत्तियां, गरुड़ आदि के उत्खनन अवशेषों से यहां धार्मिक गतिविधियों के संकेत हैं.
3- मलबे में पिलर पर आधारित निर्माण कार्य है मगर यह पिलर मस्जिद के काले रंग के कसौली पिलर से भिन्न हैं.
4- मस्जिद में अल्लाह शब्द खुदा हुआ है.
5- 1856-57 से पूर्व मस्जिद में नमाज अदा किए जाने के साक्ष्य नहीं हैं. गुंबद और राम चबूतरे के मध्य की गई तार बाढ़ प्रशासनिक दृष्टि से हैं न कि मालकियत के निर्धारण के लिए.
6- 1856-57 से ही हिंदू पूजा निर्बाध रूप से गर्भ ग्रह के प्रतीक राम चबूतरे पर जारी है जबकि मस्जिद में 1934 तक नमाज अदा किए जाने और 1934 से 16 दिसंबर 1949 तक जुम्मे के दिन नमाज अदा किए जाने के साक्ष्य प्रस्तुत हैं. उसके बाद मस्जिद जनवरी 1950 से रिसीवर के सुपुर्द रही और नमाज अदा नहीं हुई.
7- निर्मोही अखाड़े का यह दावा कि वहां मस्जिद थी ही नहीं खारिज कर दिया गया.
न्यायालय द्वारा समय-समय पर दिए गए विभिन्न निर्णय से भी मदद देने की कोशिश की गई है कुल मिलाकर इस निर्णय में न केवल तथ्यों के आधार पर न्याय देने की कोशिश की गई है बल्कि न्याय के सामाजिक प्रभाव और समाज पर दीर्घकालिक शांति बनाए रखने के उद्देश्य से भी न्याय को परिभाषित किया गया है इसलिए यह निर्णय दोनों पक्षों को राहत देता प्रतीत होता है और समाज के व्यापक हित में इसे स्वीकार किया जाना ज्यादा महत्वपूर्ण है.
यह निर्णय रामलला विराजमान के वरिष्ठ अधिवक्ता के. पारशरन और सुन्नी सेन्ट्रल वक्त बोर्ड के वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन के शानदार तथ्य और तर्कों के लिए भी जाना जाएगा.