कमलेश अटवाल
पिछले 5 दशकों से उत्तराखंड में पूरब से पश्चिम तक के 1150 किलोमीटर के रास्ते को 45 दिनों में पहाड़ों, बुग्यालों, नदियों, पुलों, झरनों और जंगलों को पैरों से नाप देने वाली अस्कोट-आराकोट यात्रा अपने स्वर्ण जयंती वर्ष में कुछ नए और कुछ पुराने साथियों के साथ आगे बढ़ने की तैयारी कर रही है।
चिपको आंदोलन के 50 साल पूरे हो जाने के मौके पर इस साल यह यात्रा आंदोलन के उन सभी रास्तों से भी गुज़रेगी जहां प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय हक को लेकर उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों की घसियारिनें कही जाने वाली महिलाओं ने दुनिया के सामने लोकतंत्र और अधिकारों को लेकर नया व्याकरण रचा।
इसी तरह की यात्रा मध्यकाल में गुरु नानक जी ने की थी जिसमें उन्होंने एशिया महाद्वीप के अलग-अलग क्षेत्रों में जाकर सामाजिक बनावट को समझा। उत्तराखंड में नानकमत्ता से रीठा साहिब, हेमकुंड साहिब से मध्य एशिया से होते हुए अरब में मक्का मदीना तक गुरु नानक जी गए थे। भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के बाद एक बड़े विस्थापन से हुई बसावट, जिससे हिमालय के तराई में सिखों का बसना शुरू हुआ, से एक नया कस्बा नानकमत्ता अपना रूप ले रहा था। इसी दौरान पहाड़ों में आजीविका के संकट के बीच धीरे-धीरे लोग भाभर की तरफ़ कदम बढ़ाने लगे। 1971 में बंगाल में हिंसा और विभाजन के बीच बड़ी संख्या में बंगालियों का भी नानकमत्ता की तरफ़ आगमन हुआ और एक नया कॉस्मापॉलिटन कस्बा नानकमत्ता अपना खास रूप लेने लगा।
कल इसी कस्बे में एक दशक से ग्रामीण परिवेश में शिक्षा को संदर्भित बनाने का प्रयास कर रहे नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में अस्कोट-आराकोट यात्रा के महत्वपूर्ण स्तंभ पद्मश्री डॉ शेखर पाठक जी ने सीनियर स्टुडेंट्स के साथ मई 2024 में शुरू हो रही छठी अस्कोट-आराकोट यात्रा से पहले पिछले 5 दशक की यात्रा के बारे में एक विस्तृत प्रेजेंटेशन रखी। अपनी 3 घंटे की प्रस्तुति के दौरान शेखर पाठक जी ने इस यात्रा की शुरुआत, उद्देश्य, तुलनात्मक अध्ययन और भविष्य की योजनाओं के बारे में छात्रों के साथ विचार साझा किये। उन्होंने बताया कि कैसे सुंदरलाल बहुगुणा जी के साथ काम करते हुए यात्रा पर एक समझ बनी। इस यात्रा का आयोजन PAHAR नामक संस्था करती है। इस यात्रा के लिए एक ज़रूरी शर्त गांव वालों के साथ रहना, बिना किसी पैसे के यात्रा को करना और पैदल चलना है।
शेखर जी मानते हैं कि यात्राएं हमें जीवन अनुभव सिखाने के लिए स्कूल और विश्वविद्यालय से ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। 1974 की पहली अस्कोट-आराकोट यात्रा को याद करते हुए वह कहते हैं कि “हम लोगों को उस समय यह अहसास नहीं था कि यह यात्रा हमारे जीवन को बदल देगी”। इस यात्रा के दौरान शुरुआत से लेकर अब तक बहुत सारे बदलाव हुए हैं। जहां पहले अमूमन रिपोर्ट से इस यात्रा को डॉक्यूमेंट किया जाता था अब जीपीएस की मदद से यात्रा के ट्रैक की ऊंचाई और कैमरे की मदद से इसे कुछ ज्यादा प्रभावी तरीके से इसका दस्तावेज़ीकरण किया गया है।
हर दशक की यात्रा पहली यात्रा की तुलना में अपने रास्ते में आने वाले गांव और ग्रामीण ज़िंदगी में बहुत सारे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और पर्यावरण बदलावों को स्पष्ट रूप से देख पा रही है। शेखर जी बताते हैं कि कैसे इस यात्रा के रास्ते में शताब्दियों से विकसित हुआ भारत-तिब्बत व्यापार धीरे-धीरे खत्म हो गया। उसके ख़त्म होने से सांस्कृतिक संबंध पर भी असर पड़ा।
लेकिन उन्हीं रास्तों में पनप रहे कीड़ा जड़ी के नए व्यापार ने एक अलग तरह के आर्थिक और अपराधी नेटवर्क को विकसित किया है। कीड़ा जड़ी नामक एक फंगस, जो कि उम्र रोधी और बहुत सारी बीमारियों में दवाई के रूप में काम आती है, की अवैध तस्करी से नई तरह की सामाजिक बनावट भी देखने को मिल रही है। विज़ुअल्स के माध्यम से बहुत ही चुलबुले अंदाज़ में शेखर पाठक जी यह दर्शाते हैं कि कीड़ा जड़ी से आए पैसों ने जहां कुछ नए तरह के धंधे विकसित किए हैं वहीं जब वह एक महिला के पास पैसे के रूप में आता है तो मां के गले का गहना, बेटे के पास मोबाइल या गाड़ी के रूप में उसका प्रतिबिंब हो रहा है।
कमल जोशी जैसे शानदार फ़ोटोग्राफ़र द्वारा गई खींची गई और पहाड़ के अन्य साथियों द्वारा ली गई फ़ोटो के माध्यम से शेखर जी हर फोटो की कहानी बताते हैं और 5 दशकों की इस यात्रा में अपने उन साथियों को याद करते हैं जिनके कारण यह यात्रा इस रूप में आगे बढ़ पाई। हर स्लाइड में यात्रा के रास्ते में आगे बढ़ते हुए शेखर जी के पास बताने को बहुत सारी कहानियां, ऐतिहासिक वृतांत और फसक हैं जो किसी भी छात्र को उस माहौल से कनेक्ट करने में मदद करती हैं।
जहां एक तरफ़ हिमालय के गांव में बने घरों की बनावट, उनका वास्तु शिल्प, अलग-अलग मंदिरों की कहानी, मंदिर के पुजारी और नगाड़ियों के बीच के रिश्ते हैं, तो दूसरी तरफ़ बग्वालों और नदियों की बहुत सारी कहानियां भी उनके पिटारे में हैं। उस पुल की कहानी भी जो लॉर्ड कर्जन को गाड़ पार कराने के लिए 1904 में बना। बीच-बीच में उत्तराखंड के उन बग्वालों की कहानी भी आ जाती है जिनकी घास को खाकर भैंस का दूध इतना गाड़ा हो जाता है कि पूरी उंगली सफेद हो जाती है। और रास्ते में एक आमा का यह कहना कि बाबू अगर 1 किलो दूध में 1 किलो पानी मिलाए बिना खीर बनाई तो तुम्हारा पेट खराब हो जाएगा। यह सभी कहानियां सुनते हुए बात आगे बढ़ रही थी।
अस्कोट-आराकोट यात्रा रूट पर पिंडारी ग्लेशियर मोटर मार्ग विनायक धार में शेखर जी एक मलयाली महिला और पहाड़ी फौजी पुरुष के प्रेम विवाह की कहानी को मलयाली भौजी के नाम से बच्चों के साथ साझा करते हैं तो वहां बैठे सभी छात्रों के चेहरों पर मुस्कान आ जाती है।
2014 की यात्रा रेखांकित करते हुए शेखर पाठक जी 2013 की आपदा, जिसने 24 घंटों की भयानक बारिश के कारण पूरे उत्तराखंड की नदियों में तबाही मचाई, को विज़ुअल्स के माध्यम से छात्रों को दिखाया। इस पूरे प्रस्तुतीकरण के दौरान लगभग 35 छोटी-बड़ी नदियों, अनेकों बुग्यालों-दर्रों, भूकंप-भूस्खलन और बाढ़ से प्रभावित अनेक घाटियों, उत्तराखंड के तीर्थयात्राओं के मार्ग में उजड़ती चोटियों, जनजातीय इलाकों और तीर्थयात्रा मार्गों का भी जिक्र आया।
इस कार्यक्रम का संचालन हमारे मैंटर और बाल विज्ञान खोजशाला (बेरीनाग) के आशुतोष उपाध्याय जी ने किया। आशुतोष जी इस साल की अस्कोट-आराकोट यात्रा के समानांतर छोटी-छोटी यात्राओं में विज्ञान यात्रा का प्रस्ताव बच्चों के साथ साझा करते हैं और बताते हैं कि इस बार एलाइंस फ़ॉर साइंस तराई क्षेत्र में अलग-अलग स्कूलों में विज्ञान यात्रा करेगा।
शेखर पाठक जी इस यात्रा को सामाजिक यात्रा बताते हुए इसका मकसद व्यापक सामाजिक हित बताते हैं। वे भी ज़ोर देकर इस बात को बच्चों के सामने रखते हैं कि इस साल हम चाहते हैं कि आप स्टूडेंट्स यानी अगली पीढ़ी के नागरिक इस यात्रा में शामिल हों क्योंकि आप लोगों को ही आगे की दुनिया बनानी है। आप ही सजग नागरिक बनकर अपने पेरेंट्स से लेकर सरकारों पर दबाव डालेंगे ताकि हमारे समाज में सकारात्मक बदलाव हो सकें।
उन्होंने सभी छात्रों को सुझाव दिया कि उन्हें भी किसी नदी के किनारे नानकमत्ता पब्लिक स्कूल की यात्रा करनी चाहिए। उस यात्रा का दस्तावेज़ीकरण भी होना चाहिए जिसे ‘PAHAR’ संस्था प्रकाशित कर ज़्यादा लोगों तक पहुंचाएगी। इन सभी बातों से छात्र प्रभावित होते नज़र आए। इंतज़ार है एक नयी शुरुआत का।