राजीव लोचन साह
74वाँ गणतंत्र दिवस! इनमें कम से कम साठ तो ऐसे रहे ही होगे, जो हमने पूरे होशोहवाश, हौसले और हर्ष के साथ मनाये होगे।
इधर लगने लगा है कि जन जोशीमठ में छूट गया है और गण गली नंबर दो, आजादनगर, बनभूलपुरा, हल्द्वानी में। मन जो है वह सिर्फ हर महीने के आखिरी इतवार को रेडियो-टी.वी. पर सुनाई देता है। एक सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान अधिनायक है, जिसकी जय-जय कार करते हुए वक्त बीता जा रहा है।
फिर भी अच्छा लगता है जब जाड़ों में प्रायः श्लथ और अदृश्य रहने वाली पुलिस फोर्स एकाएक चुस्त हो जाती है। रह-रह कर सीटियों की आवाजें सुनाई देने लगती है। ओने-कोनों में ‘‘नन्हा-मुन्ना राही हूँ, देश का सिपाही हूँ’’ जैसे देशभक्ति के भूले-बिसरे गाने बजने लगते हैं। अपनी कर्तव्यनिष्ठता को साबित करने की कोशिश करते हुए सरकारी कर्मचारी झंडारोहण के लिये जल्दी-जल्दी पाँव बढ़ाते हुए दफ्तरों की ओर जाते दिखाई देते हैं। घरों में लोग टी.वी. के पर्दे पर राजपथ (अब कर्तव्य पथ) पर चल रही परेड देखने में व्यस्त हो जाते हैं।
राष्ट्रीय पर्व मनाने का हमारा हौसला कमजोर नहीं हुआ है। यही लोकतंत्र की शक्ति है। लेकिन यह सिर्फ एक दिन की बात न होकर हमारा स्थायी भाव होना चाहिये। संविधान के प्रति हमारी निष्ठा बनी रहनी चाहिये। यह हमेशा याद रखा जाना चाहिये कि अपने घरों और उपासना गृहों में हम जो भी हों, कुल मिला कर देश तो संविधान के अनुसार ही चलेगा। इधर देश में एक ऐसा बहुत बड़ा वर्ग तैयार हो गया है, जो भूल गया है कि भारत ‘एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य’’ है। इस वर्ग के लिये ‘सेकुलर’ और ‘समाजवादी’ शब्द एक तरह से गालियाँ बन गये हैं। दुर्भाग्य यह है कि इस वर्ग में अनपढ़, अज्ञानी ही नहीं हैं, ज्यादातर बेहद पढ़े-लिखे, खाते-पीते, अच्छे-भले पदों पर काम करने वाले लोग हैं। देश के महत्वपूर्ण सांवैधानिक पदों पर बैठे लोग जब अपने लैटरहैड पर ‘सेकुलर’ शब्द को असम्मानजनक रूप में इस्तेमाल करने लगें तो यह निश्चय ही चिन्ता की बात है।
इस तरह के खतरे और चुनौतियाँ हाल के सालों में बहुत बढ़ गये हैं और इन्हें रेखांकित करना बहुत कठिन हो गया है। कुछ अलिखित सिद्धान्त बना दिये गये हैं, जिन्हें न मानने पर आप देशद्रोही करार दिये जा सकते हैं, आप पर ई.डी. और इन्कम टैक्स के छापे पड़ सकते हैं या आपको सीधे जेल भेजा जा सकता है। आजादी के प्रारम्भिक सालों में, विभाजन की चोट खाने के बावजूद, देश में सहिष्णुता थी। फीरोज गांधी खुली संसद में अपने ससुर जवाहरलाल नेहरू की बखिया उधेड़ सकते थे। शंकर्स वीकली में नेहरू के कार्टून छप सकते थे और नेहरू, इस सलाह को दरकिनार करते हुए कि शंकर पर कार्रवाही करनी चाहिये, खुल कर इन कार्टूनों पर हँस सकते थे। आज के डर और नफरत के माहौल में ऐसी बातों पर विश्वास करना कठिन है।
फिर चीजें बिगडनी शुरू हुईं। जयप्रकाश आन्दोलन के दौर में जब इलाहाबाद की एक अदालत ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित किया तो उन्होंने देश में आपात्काल लगा कर उस वक्त के सभी बड़े नेताओं को जेल में ठूँस दिया था। उस आपात्काल से भी हमारा लोकतंत्र सुरक्षित निकल आया। मगर अब एक अघोषित आपात्काल से हमारा साबका पड़ा है, जहाँ मीडिया समेत सभी संस्थाओं को नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है।
मीडिया तो खैर अपने कॉरपोरेट मालिकों के हित के लिये सत्ता प्रतिष्ठान के आगे घुटने टेक रहा है। मगर जब केन्द्रीय कानून मंत्री जजों की नियुक्ति के मामले में बार-बार सर्वोच्च न्यायालय को हड़काते हुए अपनी सर्वाच्चता स्थापित करने की कोशिश करते दिखते हैं, तो डर बहुत बढ़ जाता है।
इसलिये इस दौर को हमें बहुत सावधानी से पार करना है। आज के युग की सच्चाई को मीडिया के नजरिये से नहीं, बल्कि बहुत गहराई तक जाकर अपनी बुद्धि, तर्क और विवेक से पहचानना है। फिर बहुत धैर्य और सहिष्णुता से उसे अपने परिचितों तक पहुँचाना है। इस काम में वक्त लगेगा, मगर इसका कोई शॉर्टकट भी नहीं है। अफवाहों से बहुत जल्दी नफरत और हिंसा फैलायी जा सकती है, मगर सत्य को स्थापित करने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है।
पिछले लगभग पाँच महीनों से कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पदयात्रा कर रहे कांग्रेसी सांसद राहुल गांधी अपने वक्तव्य में एक महत्वपूर्ण बात कह रहे हैं। वह यह कि पिछले 75 साल में हमने वोटर तो तैयार कर लिये, मगर नागरिक तैयार नहीं कर सके। यह तथ्य है। हम चुनाव द्वारा बहुत आसानी के साथ सत्ता परिवर्तन तो कर देते हैं, मगर उसके बाद पाँच साल तक अप्रासंगिक हो जाते हैं। यह शायद इसलिये क्यांकि हम अपने सामान्य नागरिक कर्तव्यों का भी पालन नहीं कर पाते। एक बार हम साफ-सफाई से लेकर हैलमेट पहनने तक के तमाम मामूली दायित्वों का निर्वाह करना अपनी जिन्दगी का हिस्सा बना लेंगे तो संविधान की सर्वोच्चता भी हमारे हृदय में समा जायेगी।
बस धीरज रखना है और काम करना है। हमारा गणतंत्र अमर रहेगा।