योगेश भट्ट
‘त्रिवेंद्र सिंह रावत हटने वाले हैं’, ‘बहुत जल्द उत्तराखंड की सरकार को नया मुख्यमंत्री मिलेगा’, ‘त्रिवेंद्र के जाने की तारीख तक तय हो चुकी है’, पिछले काफी दिनों से सियासी गलियारों में यही सब सुनने में आ रहा है । त्रिवेंद्र के सियासी और व्यक्तिगत विरोधी व ‘विघ्नसंतोषी’ खुलकर कहने लगे हैं कि ‘कुछ दिन इंतजार करो, सीएम बदलने वाला है’। इन चर्चाओं में कितना दम है यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन दून से दिल्ली तक कोई ‘खिचड़ी’ पक जरूर रही है ।
यह सही है कि त्रिवेंद्र सरकार से जिस ‘तेजी’ की अपेक्षा की जा रही थी उस पर वह खरी नहीं उतरी । सरकार बहुत सुस्त है, प्रदेश के भविष्य को लेकर उसका दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है, प्रशासन पर पकड़ ढीली है । राज्य हित में फैसले लेने के लिए मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव है, सरकार के फैसलों में दूरदर्शिता नहीं है और चंद नौकरशाह पूरे सिस्टम पर हावी हैं । लेकिन जब हर छोटे-बड़े फैसले में सीधे ‘दिल्ली दरबार’ का दखल हो तो त्रिवेंद्र को हटाने के लिए क्या यह आधार तार्किक है ?
सच्चाई तो यह भी है कि त्रिवेंद्र सरकार की तमाम नाकामियों के बाद भी नगर निकायों से लेकर पंचायत और लोकसभा चुनाव में सियासी मोर्चे पर भाजपा का दबदबा बरकरार है । फिर भी मान लिया जाए कि त्रिवेंद्र को हटाया जाता है तो सवाल यह है कि उसका वाजिब आधार क्या होगा ? सरकार को लेकर अगर वाकई असंतोष विस्फोटक हो रहा है तो क्या त्रिवेंद्र को हटाने से वह खत्म हो जाएगा ?
त्रिवेंद्र सिंह रावत को ‘घेरना’ ही है तो तमाम मुद्दे हैं, जिन पर उन्हें घेरा जा सकता है। तमाम नाकामियां उनके खाते में गिनायी जा सकती हैं । मसलन, त्रिवेंद्र का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली व व्यवहारिक नहीं हैं, न वे करिश्माई जननेता हैं । उनके तीन साल के कार्यकाल में कोई बड़ा बदलाव सिस्टम में नहीं आया । न कार्य संस्कृति बदली है और न राज्य को लेकर राजनैतिक और प्रशासनिक नेतृत्व का नजरिया बदला है । नियोजन और विकास के लिहाज से भी कोई उल्लेखनीय काम प्रदेश में नहीं हुआ, सब कुछ ठहरा सा नजर आता है । चुनाव के वक्त किए सौ दिन के वायदे भी वे पूरे नहीं कर पाए ।
केंद्र की आल वेदर सड़क परियोजना, ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेल परियोजना, अटल आयुष्मान योजना के अलावा ऐसा गिनाने के लिए भी कुछ नहीं है जो उन्होंने अपने दम पर शुरू किया हो । राज्य की रिस्पना और कोसी नदियों को पुनर्जीवित करे जाने की उनकी अनूठी पहल भी परवान चढ़ती नजर नहीं आ रही है । राज्य के साधन संसाधन बढ़ाने की दिशा में भी कुछ नहीं हुआ । विकास दर तो घट ही रही है रोजगार की संभावनाएं भी लगातार कम हो रही हैं ।
महीनों तक धरने पर बैठे रहे 108 सेवा से हटाए गए सैकड़ों युवाओं को वे न्याय नहीं दिला पाए। राज्य के भू-कानून में संशोधन कर खरीद फरोख्त की सीमा समाप्त करना और पंचायत अधिनियम में संशोधन कर दो से अधिक बच्चों वालों को पंचायत चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराए जाने जैसे निर्णयों पर भी वे कटघरे में हैं । और भी बहुत कुछ है जिस पर त्रिवेंद्र को घेरा जा सकता है, मगर इनमें एक भी मुद्दा ऐसा नहीं जिस पर उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़े । तो आखिर त्रिवेंद्र को फिर क्यों हटाया जाएगा ?
त्रिवेंद्र को हटाए जाने की जिस तरह चर्चा उठी है उससे यह साफ है कि कहीं न कहीं बड़ी नाराजगी है । हालिया स्थिति में यह स्पष्ट होना बेहद जरूरी है कि नाराजगी किससे है, सिर्फ त्रिवेंद्र से या फिर सरकार से ? नाराजगी अगर सरकार से है तो उसे स्वाभाविक माना जा सकता है । मगर नाराजगी अगर त्रिवेंद्र से है तो कौन है वो जिसे त्रिवेंद्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी हटने या बने रहने से फर्क पड़ता है ? आम जनता या चंद वो सफेदपोश, नौकरशाह, ठेकेदार, कारोबारी और पत्रकार, जिनके मंसूबे इस सरकार में पूरे नहीं हो पा रहे हैं ।
यह खबर सही है कि सत्ताधारी विधायक नाराज हैं, मंत्री असहज हैं, सत्ता के बिचौलियों की दुकानें ठंडी हैं, नौकरशाही असमंजस में हैं, कारोबारी भी नाखुश नजर आ रहे हैं और आम जनता के कई तबकों में भी एक बेचैनी सी है । जाहिर है नाराजगी सरकार से नहीं अकेले त्रिवेंद्र से है, तभी मुख्यमंत्री बनने के बाद ही त्रिवेंद्र पर कभी उनके करीबियों के स्टिंग के जरिये तो कभी विभिन्न आरोपों के जरिए लगातार व्यक्तिगत हमले भी हो रहे हैं ।
मगर दाद देने वाली बात यह है कि त्रिवेंद्र पर इस सबका कोई दबाव नहीं है । यही खासियत त्रिवेंद्र को दूसरे राजनेताओं से अलग भी खड़ा करती है और मजबूती भी देती है । इसमें कोई दोराय नहीं कि ‘जीरो टालरेंस’ और ‘डबल इंजन’ सरकार महज जुमले साबित हुए हैं, मगर यह भी सच है कि त्रिवेंद्र सरकार को लेकर आज कोई यह दावा नहीं कर सकता कि वह सरकार से फलां काम करा सकता है ।
निसंदेह बहुत कमियां हैं । मुख्यमंत्री की टीम बहुत मजबूत और भरोसेमंद नहीं है । जिनका काम मुख्यमंत्री की छवि बनाने का है वही उनकी छवि को पलीता लगा रहे हैं । उनके सलाहकार और प्रबंधक काबिल नहीं हैं । यही कारण भी है कि कुछ ऐसे नौकरशाहों पर मुख्यमंत्री की निर्भरता है जिनकी राज्य के प्रति निष्ठा संदिग्ध है । मुख्यमंत्री पर व्यक्तिगत तौर पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हों, भाई भतीजावाद का आरोप लगाए जा रहे हों, फिर भी इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि त्रिवेंद्र साफ सुथरी छवि और सुशासन के हिमायती हैं ।
उदाहरण सामने हैं, उत्तराखंड अब राजधानी के चौराहों और दिल्ली के होटलों में बिकता नजर नहीं आता । जिलों में डीएम और कप्तानों की तैनाती में सरकार अब कोई खेल नहीं करती । ट्रांसफर पोस्टिंग का धंधा भी लगभग बंद हो चुका है । मुख्यमंत्री कार्यालय का डीएम और कप्तान के काम में दखल नहीं होता, न उनसे पहले की तरह वसूली होती है । सत्ता की दलाली करने वाली कई दुकानें बंद हुई हैं, सत्ता के गलियारों में फाइलें लेकर घूमने वाले अवांछितों की घुसपैठ बंद हुई या बहुत कम हो चुकी है । मंत्रियों की मनमानी पर भी सीधे मुख्यमंत्री का नियंत्रण है ।
इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि त्रिवेंद्र एक काबिल मुख्यमंत्री हैं। मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी नाकामियां अपनी जगह हैं। इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि त्रिवेंद्र जनता या निवार्चित विधायकों की पसंद के मुख्यमंत्री नहीं हैं । हमेशा की तरह वे भी दिल्ली में बैठे हाईकमान के ‘थोपे’ गए मुख्यमंत्री हैं । त्रिवेंद्र भाजपा सुप्रीमो अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पुराने रिश्तों के चलते मुख्यमंत्री हैं ।
त्रिवेंद्र राज्य की जनता की अपेक्षाओं पर भले ही खरे न उतरे हों लेकिन मोदी और शाह की हर अपेक्षा पर खरे उतरे हैं । अधिकांश मौकों पर वे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नहीं, केंद्र के ब्रांड मैनेजर के तौर पर काम करते नजर आए हैं । त्रिवेंद्र का कोई भी नीतिगत निर्णय केंद्र की सहमति के बिना नहीं लिया गया, तीन साल में व्यक्तिगत तौर पर उन्होंने ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया जिससे केंद्र को असहज होना पड़ा हो । इसलिए त्रिवेंद्र को हटाने का फिलवक्त कोई कारण नजर नहीं आता ।
जो हरियाणा के नतीजों को उत्तराखंड के लिए चुनौती बताते हुए त्रिवेंद्र के हटने की अटकलें लगा रहे हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि हरियाणा में उम्मीद के विपरीत नतीजे आने के बावजूद गठबंधन की सरकार में भी मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को ही बनाया गया । हरियाणा में ‘अबकी बार 75 पार’ के नारे के साथ आक्रामक अंदाज में मैदान में उतरी भाजपा बहुमत के आंकड़े 46 से दूर 40 पर ही अटक गयी । खट्टर सरकार के आठ मंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा । फिर भी खट्टर के नेतृत्व में हुई हार में भी भाजपा हाईकमान ने जीत ही देखी, क्योंकि त्रिवेंद्र की तरह ही मनोहर खट्टर भी मोदी और शाह की पसंद हैं ।
सवाल त्रिवेंद्र के हटने या रहने का नहीं है, सवाल नजरिये का है । सवाल एक प्रचंड बहुमत की सरकार में भी पूरी सियासत का मुख्यमंत्री की कुर्सी तक ही सिमटने की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का है । सवाल यह समझने का है कि बार-बार नेतृत्व परिवर्तन का नुकसान राज्य को उठाना पड़ा है । बहुत हुआ, बार-बार नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं अब बंद होनी चाहिए । नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं किसी भी राज्य में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करती है । राजनैतिक अस्थिरता राजकाज में अराजकता का माहौल पैदा करती है ।
राजनैतिक अस्थिरता में न तो व्यापक हितों की नीतियां बनती हैं न दूरगामी निर्णय होते । उत्तराखंड में 19 साल में दस बार नेतृत्व परिवर्तन हुआ, हर बार हासिल पाया सिफर । एक बार फिर किसी नाकामी के नाम पर त्रिवेंद्र हटा भी दिये गए तो क्या बदलेगा, कुछ नहीं । आखिरकार हमें उत्तराखंड की असल जरूरत को समझना ही होगा, उत्तराखंड की जरूरत नेतृत्व परिवर्तन की नहीं बल्कि उत्तराखंड को लेकर नजरिये में परिवर्तन की है ।