इस्लाम हुसैन
पत्रकार गुरु कुलदीप नैयर, विख्यात गांधीवादी निर्मला देशपाण्डे द्वारा आरम्भ की गई आगाज-ए-दोस्ती की इस बार की यात्रा बेहद तनाव भरे माहौल के होते हुए भी, जिस जोशोखरोश़ के साथ पूरी हुई वह आने वाले समय के लिए मिसाल बन गई है।
ऐसे में जबकि पिछले वर्ष की यात्रा को हरी झंडी दिखाकर शुभारंभ करने वाले कुलदीप नैयर जी इस यात्रा के बाद अनन्त यात्रा पर चले गए हों तो, यात्रा को अपने मुकाम तक पहुंचाना सचमुच एक चुनौती थी।
आगाज-ए-दोस्ती की यात्रा की तैयारी और यात्रा में करीब दो महीने का अन्तर रहा होगा, जब इस यात्रा का विचार चल रहा था और जब यात्रा हुई, दोनों स्थितियों में जमीन आससान का फर्क हो चुका था, शान्ति और अमन सामान्य दिन की और आम आदमी की ज़रूरत है पर उन्माद और नफरतों के दौर में शान्ति की बात करना उलटबासी भले ही है मगर यही इसका इलाज भी है।
राजघाट नई दिल्ली से 12 अगस्त से आरम्भ होने वाली आगाज-ए-दोस्ती यात्रा से ठीक एक हफ्ता पहले अचानक कश्मीर में हुए नए परिवर्तन से दक्षिण एशिया का राजनैतिक परिदृश्य बदल गया, पहले शान्ति की बात करना, शान्ति यात्रा निकालना हिन्द पाक और दक्षिण एशिया के लिए एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा थी, पर जब सारे सम्बन्ध और सम्पर्क टूट रहे हों तो शान्ति की बात करना, बहुत बड़ा खतरा मोल लेना था ।
लेकिन आयोजकों और प्रतिबद्ध यात्रियों का मन इस नई परिस्थितियों में विचलित नहीं हुआ, मैने यात्रा आरम्भ होने से पूर्व नई परिस्थितियों में यात्रा की रणनीति बदलने का जो आग्रह आयोजकों से किया था आयोजकों ने उस पर सकारात्मक निर्णय लेकर सभी संशय को हटा दिया, और जब हरिजन सेवक संघ से 13 अगस्त की सुबह आगाज़-ए-दोस्ती यात्रा आरम्भ हुई तो हर यात्री मानसिक रूप से तैयार था कि चाहे जो हो, यात्रा और उसका उद्देश्य तो पूरा करना है। यात्रियों की यह प्रतिबद्धता बाघा बार्डर पर अपनी शिद्दत के साथ दिखाई।
आगाज़-ए-दोस्ती यात्रा के पूरे रास्ते जगह-जगह जन संगठनों छात्र-छात्राओं ग्रामीण महिलाओं ने यात्रा के उद्देशों के प्रति जो एकजुटता दिखाई उससे पता चलता है कि देश की बहुसंख्यक आबादी शान्ति अमन और दोस्ती चाहते है।
अमृतसर में हिन्द-पाक दोस्ती मंच, आगाज़-ए-दोस्ती व फोक लोर रिसर्चर एक्जिम पंजाब सहित अनेक संगठनों द्वारा हिन्द-पाक दोस्ती पर आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार में जहां विद्वान वक्ताओं ने जहां दक्षिण एशिया में स्थाई शान्ति के लिए हिन्दी पाक दोस्ती की आवश्यकता को रेखांकित किया वहीं कश्मीर में वहाँ के निवासियों के संविधान प्रदत लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली की भी मांग की गई। यह सेमिनार गुरु नानक देव जी के सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर उनके 550वें प्रकाशोत्सव के क्रम में आयोजित किया गया था, जिसमें जहां श्री सिंह ने गुरु नानक देव द्वारा दी गई शिक्षाओं पर सामुदायिक व अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के मार्ग पर प्रकाश डाला वहीं प्रसिद्ध पत्रकार व हिन्दू के पूर्व सम्पादक सिद्धार्थ ने अपनी कश्मीर की यात्रा में वहां की दयनीय स्थिति की चर्चा की।
बाघा सीमा पर अर्धरात्री में जब आगाज़-ए-दोस्ती यात्रा के साथी अपने पंजाब के साथियों के साथ पहुंचे, तो देखा वहां का पूरा माहौल पिछले साल के विपरीत था। पिछले वर्षों की तुलना में सुरक्षा के अतिरिक्त और भारी इंतजाम थे। एक-एक यात्री को गिना गया जबकि पहले ऐसा नहीं था।
पिछले वर्ष अमन और दोस्ती चाहने वालों के लिए दोस्ती की शमा जलाने की अनुमति बीटिंग रिट्रीट के मंच से आगे करीब जीरो लाइन के पास मिल गई थी, इस बार जैसा आयोजकों ने बताया था कि मोमबत्ती जलाने की अनुमति बीटिंग रिट्रीट के मेन गेट से पहले सड़क तक ही थी। भारी सुरक्षा और दो-दो गेटों को पार करने के बाद सभी यात्री बीटिंग रिट्रीट के बाहर के गेट पर अपने अपने हाथों में मोमबत्ती लिए दोस्ती और अमन के नाम शमा रोशन करने की अनुमति की प्रतीक्षा करने लगे, मेन गेट को बंद करने के बाद भी दोे बख्तरबंद गाडियों को गेट पर लगा दिया था। कुछ यात्रियों ने अति उत्साह में मोमबत्तियां जला दीं तो उन्हें मौजूद आयोजकों और सुरक्षा कर्मियों की नाराजगी झेलनी पड़ी, क्योंकि आयोजक पूरी तरह अनुमति से बंधे थे। ज़रा सी चूक, बाघा जैसी संवेदनशील जगह पर बड़ा बखेड़ा कर सकती थी। डेढ़ दो सौ यात्रियों का यह जत्था तनाव भरे माहौल में धड़कते दिल लिए हुए खामोशी के साथ पूर्व में दी गई अनुमति के क्रम में सीमा पर मौजूद सुरक्षा अधिकारियों के इशारे की प्रतीक्षा करने लगा, मित्र समझ रहे थे कि जीरो लाइन के पास न सही मुख्य गेट के बाहर मोमबत्ती लगाने का मौका तो मिलेगा। यह भी क्या कम है कि जंग और नफरतों के दौर में अमन और मुहब्बत का पैगाम देने का मौका मिल रहा है।
इंतजार लम्बा हो गया था, यात्रियों का सब्र टूटा जा रहा था, ठीक सामने सुरक्षाकर्मी मुस्तैद हमारी गतिविधियों पर नजर रखे हुए थे और आखिर में बाघा सीमा पर अमन और दोस्ती के नाम पर जलाई जाने वाली मोमबत्तियां हाथ में पकड़ी ही रह गईं क्योंकि गृहमंत्रालय ने अपनी दी हुई अनुमति वापस ले ली।
कोई मोमबत्ती अब यहां नहीं जले
अमन और दोस्ती की बात नहीं चले
नफरतों की फसल इस बार बड़ी हुई
भूलकर भी यहां मुहब्बत नहीं पले
अमन और दोस्ती के यह यात्री भी अमन और दोस्ती के प्रति पूरी तरह समर्पित थे, गृहमंत्रालय ने भले ही अनुमति वापस लेकर कार्यक्रम रद्द कर दिया हो, यात्रियों का उत्साह और दूना हो गया उन्होंने वापस लौटती हुए सुरक्षा घेरे के बाद न केवल दोस्ती और अमन के नाम पर खूब मोमबत्तियां जलाई बल्कि अमन और दोस्ती के नाम पर गीत गाए और नारे लगाए और वहां मौजूद मीडिया के साथ बातचीत भी की।
असल में सरकार नहीं चाहती थी कि उसने युद्ध का जो उन्माद फैलाया है उसके बीच कहीं से अमन और दोस्ती की बात हो, सरकार ने इस यात्रा को कृत्रिम रूप से खड़े किए युद्ध के माहौल के खिलाफ़ पाया, यही यात्रा की सबसे बड़ी सफलता है, जबकि पूरे देश में सरकार व उसके पक्षपोषकों द्वारा युद्ध और घृणा का माहौल पैदा किया जा रहा हो, उस समय सीमा पर अमन की यात्रा का पहुंचना व शान्ति व दोस्ती का संदेश देना भविष्य के लिए आशा की किरण है।
इस आगाज़-ए-दोस्ती की वापसी की यात्रा भी सौहार्द और अमन का संदेश लेकर और देकर पूरी हुई, वापसी में यात्रियों ने फतेहगढ़ साहब के प्रसिद्ध गुरुद्वारे के दर्शन किए और लंगर छका। गुरुद्वारे के साहिबान और सेवादारों ने यात्रियों का स्वागत किया और उन्हें सरोपा भेंट किया।
सेवादार सरदार जयपाल सिंह जी द्वारा यात्रियों को न केवल पूरा गुरुद्वारा घुमाया और उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से परिचित कराया, बल्कि उन्होंने फतेहगढ़ साहब के साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल देते हुए गुरुद्वारे के एक दम बगल मे अवस्थित सूफी दरगाह रोज़ा हजरत मुजद्दिद अल्फसानी के बारे में बताया और स्वयं साथ चलकर रोजा मुबारक के दर्शन करवाए। जिसके लिए यात्रियों ने सरदार साहब का शुक्रिया किया।
इस अमन व दोस्ती यात्रा के बाद मैं और पत्नी पूर्व की की भांति दिल्ली पहुंचे। जामा मस्जिद में अपने दोस्त और रहनुमा हकीम सुहेल साहब से मिले और उन्हें आगाज़-ए-दोस्ती की यात्रा के बारे बताया, उन्हंे जब यह पता चला कि मौजूदा सरकार ने बाघा सीमा पर अमन और दोस्ती की शमा नहीं जलाने दी, तो उन्होंने कहा – रोशनी और अमन के दुश्मन हर दौर में होते हेै, और हुक्मरान (शासक) हमेशा से ही अमन दोस्ती और भलाई के कामों के दुश्मन रहे हैं। उन्होंने इस बारे में दिल्ली का एक मशहूर किस्सा सुनाया जो प्रसिद्ध सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया और उनके ख़लीफा (शिष्य) हजरत नसीरूद्दीन चिराग देहेलवी से सम्बन्धित है।
उन्होंने बताया कि हजरत निजामुद्दीन औलिया ने अपने करीब 90 साला जिंदगी में दिल्ली की कई सल्तनतें देखीं लेकिन किसी दरबार में हाजरी नही लगाई, उनकी खानकाह में हर वक्त सैकड़ों अकीदतमंद रहते थे, जिनको लेकर दिल्ली दरबार हमेशा सशंकित रहता था, लेकिन संत हमेशा उनकी भलाई के बारे में सोचते थे।
एक बार लोगों की सहूलियत के लिए खानकाह के पास पानी की बावली खोदने के लिए लोग स्वेच्छा से खि़दमत दे रहे थे, दिन भर मेहनतकश लोग अपनी रोजी रोटी और कामधंधे में लगे रहते और रात को स्वेच्छा से बावली खोदने का काम करते थे, बहुत बड़ी तादाद में इकट्ठा होकर स्वैच्छिक काम करते हुए लोगों से तत्कालीन सरकार घबरा गई, बावली खोदने का काम रोकने के लिए मना किया तो संत ने शासकों की बात मानने से इंकार कर दिया।
आखिर में सुल्तान ने खानकाह में रोशनी के लिए दिए जाने वाला तेल देना बंद कर दिया, न रोशनी होगी न लोग रहेंगे और न लोग बावली खोद सकेंगे। ऐसी स्थिति देखकर औलिया के खलीफ़ा हजरत नसीरूद्दीन जो बावली खोदने के काम की देखरेख कर रहे थे, उन्होंने अल्लाह का नाम लेकर चरागों में बावली से निकलने वाली कीचड़ भर दी, और उससे चराग रोशन हो गए। चराग रौशन हुए और बावली खुदने लगी, इस चमत्कार के बाद के बाद हजरत नसीरूद्दीन चराग देहेलवी के नाम से मशहूर हुए जिनकी दरगाह इसी नाम से दिल्ली में है।
तो अमन और दोस्ती के रखवालों ने इस बार छीनी हुई रोशनी को मशाल में बदलकर एक पैगाम दिया है कि अमन और दोस्ती ही स्थाई है बाकी नफरतें और जंग अस्थाई और ध्वंसकारी हैं।
इस सफल यात्रा के लिए पूरी टीम और राममोहन राय जी का बहुत शुक्रिया। श्री राय ने जिस तरह व्यक्तिगत पीड़ा लेकर रात दिन लोगों को जोड़े रखा, स्वयं अमेरिका में रहते हुए सोशल मीडिया और वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग से अपनी कमी खलने नहीं दी। श्रीराय और विख्यात गांधीवादी सुब्बाराव जी ने वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से अमेरिका से इस यात्रा को दिशा निर्देश दिए।
हवाएं खिलाफ़ थी हमारे, रास्ता था खतरों भरा
डर रहे थे वो हमारी टिमटिमाता हुई रोशनी से
छीन कर आहन हमने थमा दी है हाथों में मशालें
के आओ रात जुल्मत की काट लें इस रोशनी से
(इस्लाम शेरी)