विवेकानंद माथने
मनुष्य जीवन का ध्येय क्या है? परम साम्य की प्राप्ति। ‘अभिधेयं परम साम्यम्’।.. अभिधेय कुल जीवन के चिंतन का विषय है। जिस दिशा में जीवन के समुचे चिंतन को ले जाना है, जिसमें चिंतन सर्वस्व लगाना है, इंद्रियों को मोडना है, जिसको लक्ष करना है, उसी को ‘अभिधेय’ कहते है। हमारा अभिधेय ‘परम साम्य’ है।.. परम साम्य.. केवल आर्थिक या सामाजिक वस्तु नही रहती।.. इन दोनों से बढकर एक साम्य है, मन का संतुलन या मानसिक साम्य। लेकिन इन तीनों से भी परे एक चिज है, जो ‘परम साम्य’ कहलाती है।
एक है आर्थिक साम्य, जो हर एक व्यवहार में मददगार होता है। दूसरा है सामाजिक साम्य, जिसके आधार पर समाज में व्यवस्था रहती है। तीसरा है मानसिक साम्य, जिससे मनुष्य के मन का नियंत्रण होता है।.. इन सबमें परम योग क्या है?.. चित्त का समाधान, चित्त का संतुलन, चित्त का साम्य। चित्त का साम्य ‘परम साम्य’ है।.. यह अनुभूति हम सब एक है।
आर्थिक, सामाजिक साम्य से मानसिक साम्य नि:संशय श्रेष्ठ है। परंतु इन तीनों साम्यों से परे एक साम्य है, जिसके पेट में ये सारे आ जाते है, वह है आत्यंतिक परम साम्य।.. सारांश परम साम्य यानी ब्रम्ह।.. इसलिये हमारा अभिधेय ब्रम्ह प्राप्ति हुआ।.. हमने ‘परम साम्य’ कहा, क्योंकि हम एक पद्धति बताना चाहते है।.. छोटे छोटे साम्यों का उपयोग करते करते परम साम्य तक कैसे पहुंचे, इसकी पद्धति बतायी।
हमे आर्थिक, सामाजिक या मानसिक साम्य स्थापित करना है।.. हमे भिन्न भिन्न अपर साम्य की स्थापना करनी है। उन्हे स्थापित करने से उस परम साम्य का दर्शन होगा, जो पहले से ही मौजूद है, किंतु हमारे अंधत्व के कारण दीखता नही था। इस तरह अपर साम्यों की प्राप्ति करके परम साम्यका दर्शन होगा, तो ‘अभिधेयं परम साम्यम्’ संपन्न हो जायेगा।
हमने गीता को साम्ययोग नाम दिया है, और बताया है कि परम साम्य की प्राप्ति हमारा लक्ष है। परम साम्य यानी जहां चेतन चेतन में तो भेद है ही नही, जड चेतन का भी भेद जहां नही रहता है, ऐसी साम्य की परम अवस्था।.. साम्ययोग का मानना है कि हरएक मानव में एक ही आत्मा समान रुपसे बसता है। साम्ययोग मानव मानव में भेद नही करता, बल्कि मानव-आत्मा और प्राणीमात्र के आत्मा में भी बुनियादी भेद नही मानता।..
प्रत्येक मनुष्य में समान आत्मा है, इसलिये सबको जीने के समान अवसर भी मिलने चाहिये। व्यक्ति की बौद्धिक योग्यता को देखे बिना हम उसे जमीन, मकान, रोटी, आरोग्य, शिक्षा आदि जीवन के साधन मुहैया करें, यह आज के युग की और प्राचीन अद्वैत के सिद्धांत की मांग है.
हम लोग सत्य विचार पर समाज की रचना करना चाहते है। ‘भगवान ने हमें जो बुद्धि, शक्ति और दौलत दी है, वह समाज की सेवा के लिये है। उसका स्वतंत्र भोग करना उचित नही। समाज को समर्पण करने के बाद ही हम उसे भोग सकते है। उपनिषद में कहा गया है कि यह समस्त जगत ईश्वरमय है और समर्पण करके ही प्रसाद के रुपमें उसका भोग करना चाहिये।..
अपनी बुद्धि के मालिक हम नही, भगवान है। और चुंकि हमारे सभी गुण समाज के लिये है, इसलिये हमे चाहिये कि अपने पास की सारी शक्तियों को ईश्वर की देन माने और समाज को अर्पण कर दे। हम तो अपने शरीर के भी मालिक नही, उसके ट्रस्टी मात्र है। साम्ययोग कहता है कि संपत्ति किसी भी रुपमें क्यों नहि हो, उसके मालिक हम नही है।.. तुलसीदासजी ने यही कहा है, ‘संपति सब रघुपति कै आम्ही’ सभी संपत्ति ईश्वर की है।
आजतक लोग अपने को संपत्ति का मालिक मानते आये। उसमें हितों का विरोध निर्माण होता है। किंतु जहां ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार आता है, वहां पूरी वैचारिक क्रांति होती है। यानी अपनी अपनी चिजों पर हम जो अपनी मालकी मानते है, वह गलत है। हमारे पास जितनी भी शक्तियां है, समाज की सेवा के लिये है, व्यक्तिगत स्वार्थ साधने के लिये नही। व्यक्तिगत स्वार्थ तो अपने स्वार्थ को समाज के चरणों में समर्पित कर देने में ही है। सारे समाज को अपना स्वार्थ अर्पण कर देना और समाज के हित के लिये सतत प्रयत्न करना ही हमारा स्वार्थ है।
मेरी विचारधारा के मुख्य चार अंग है। एक है उद्देश्य, जिसे मैने नाम दिया है ‘साम्ययोग’। दूसरा है तत्वज्ञान। तत्वज्ञान में मै समन्वय चाहता हूं। तीसरा है सामाजिक, आर्थिक ध्येय। यह है ‘सर्वोदय’। और उसे अमल में लाने की जो पद्धति है, वह है ‘सत्याग्रह’।
‘सत्याग्रह’ जीवन पद्धति है। उसके आधार पर जो समाज रचना खडी होगी, वह ‘सर्वोदय’ होगा। उसके लिये आज दुनिया में जो भिन्न भिन्न चिंतन और तत्वज्ञान चलते है, उन सबके बीच का विरोध टालकर ‘समन्वय’ करना होगा। समन्वय का यह सिद्धांत सभी वादों विवादों को खतम करनेवाला है। इन तीनों के परिणाम स्वरुप व्यक्तिगत तथा सामाजिक चित्त की समता प्राप्त होगी। उसे मैने ‘साम्ययोग’ नाम दिया है। साम्ययोग गीता का शब्द है, समन्वय वेदांत का है और सर्वोदय शब्द आधुनिक विज्ञान का है, जो पश्चिम से प्राप्त हुआ है।
हमने अहिंसा की शक्ति से स्वातंत्र्य प्राप्त किया है, जबकि उसके लिये दुनिया के दूसरे मुल्कों को हिंसा के तरीके अख्तियार करने पडे। किंतु यह निश्चित समझिये कि उसके लिये अनेक खतरों का सामना करने के बाद अब हम अगर दूसरा कदम, आर्थिक, सामाजिक समानता कायम करने का नही उठाते, तो हमारा स्वातंत्र्य खतरे में है।.. समाज में उच्च-निचता के भेद रहे, तो समाज बनता ही नही।.. हम अपने समाज को नैतिक समाज बनाना चाहते है, जिसमें हरएक व्यक्ति अपनी शक्ति समाज को समर्पित करेगा। स्वराज्य के बाद हमें अब साम्ययोग की स्थापना का आदर्श सामने रखना होगा। इसी को हमने सर्वोदय कहा है।
साम्ययोग के कारण आर्थिक क्षेत्र में भी क्रांति होती है। नैतिक मूल्यों के समान आर्थिक क्षेत्रों मे भी श्रम का मूल्य समान होना चाहिये। आज शारीरिक काम की अपेक्षा बौद्धिक काम की मजदूरी ज्यादा दी जाती है। उसकी प्रतिष्ठा भी ज्यादा होती है। लेकिन इस तरह का फर्क बिल्कुल बेबुनियाद है। चुंकि साम्ययोग का विचार आत्मा की समता पर निर्भर है, इसलिये आर्थिक क्षेत्रों में भी वह कोई भेद स्वीकार नही कर सकता।… समाज में हरएक की सेवा का प्रकार भिन्न हो सकता है, पर उसका आर्थिक मूल्य समान ही होना चाहिये। साम्ययोग के सिद्धांत के अनुसार जब नैतिक मूल्यों में अंतर नही आता, तो आर्थिक क्षेत्र में भी अंतर नही आना चाहिये।
इसी तरह राजनैतिक क्षेत्र में भी हमारे आज के मूल्य बदल जायेंगे। हम न सिर्फ शोषणरहित, बल्कि शासनमुक्त समाज की रचना चाहते है। साम्ययोग की कल्पना के अनुसार शासन गांव गांव में बट जायेगा। यानी गांव गांव में अपना राज होगा, मुख्य केंद्र में नाममात्र के लिये सत्ता होगी। इस तरह होते होते शासनमुक्त समाज की ओर हम आगे बढेंगे।
साम्ययोग आर्थिक, नैतिक, राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में परिवर्तन लाना चाहता है। इसी को क्रांति कहते है। आजकल लोग हिंसा को ही क्रांति समझते है। किंतु जहां बुनियादी चीजों में क्रांति नही, वहां उपर उपर के परिवर्तन को क्रांति कहना गलत होगा। क्रांति तभी होती है, जब हम अपने नैतिक जीवन में परिवर्तन करते है। हमारा दावा है कि साम्ययोग नैतिक मूल्यों में परिवर्तन करता है, क्योंकि उसकी बुनियाद आध्यात्मिक है और वह जीवन की सारी शाखा उपशाखाओं में आमुलाग्र क्रांति करता है।
क्रांति तब होती है, जब उसका त्रिकोण होता है। प्रथम व्यक्तिगत जीवन में परिवर्तन में होता है। फिर विचार परिवर्तन होता है। और फिर समाज परिवर्तन होता है। ये तीन जब होते है तब क्रांति होती है।
भूदान यज्ञ का पहला कदम है ‘दान’ और अंतिम कदम है ‘न्यास’। दान का अर्थ है देना, ‘संविभाग:’ यानी की अपने पास जो चिज है, उसका एक हिस्सा समाज को देना।… नित्य दान यानी किसी खास मौके पर करने का धर्म नही, सतत करने का है। ‘न्यास’ में मालिकी का पूरा विसर्जन है। मै अपने पास संग्रह रखूंगा ही नही। जो कुछ होगा गांव को दे दूंगा। फिर समाज की तरफ से मुझे जो मिलेगा, वह मै लूंगा। मै नारायनाश्रीत बनूंगा।… न्यास यानी समाज में लीन हो जाना, व्यक्तिगत मालिकी मिटाकर समूह की शरण लेना।
इस जमाने की तीन विशेष देनें गिनी जा सकती है। एक सर्वधर्म समन्वय और सर्व उपासनाओं के समन्वय की एक नई दृष्टि भारत में विकसित हुई है।.. दुसरी, चित्त से ऊपर के स्तरों में जाकर परमात्मा की अनुभूति पाना और फिर निचे उतरकर उस अनुभूति में सारे विश्व को लपेटकर विश्व को उपर के स्तर पर चढाना।.. तीसरा, सत्याग्रह दर्शन। चौथी चिज सामने आ रही है, वह है ‘साम्ययोग’।.. गीता ने ब्रम्ह की व्याख्या की है, निर्दोषं हि समं ब्रम्ह – ब्रम्ह यानी परम साम्य, समता।
(साम्ययोग पर विनोबाजी भावे के विचारों का संकलन, उन्हीं के शब्दों में, विनोबा साहित्य खंड 13, 15 से साभार)