बच्ची सिंह बिष्ट
देव नगर, मूलबेरी और जुबड़ शिमला जिले के इन तीन गांवों के किसानों से मिलने का मौका मिला। तीनों जगह बागवान मिले। छोटी जोत वाले। उन्होंने सुभाष पालेकर प्राकृतिक कृषि को अपनाया है। मौसम सूखा है। पौधे पानी की कमी से कमजोर भी हो रहे हैं। उन्होंने मलचिंग की है। प्रत्येक किसान ने पेड़ों के बीच में लहसुन, मटर, बीन्स और सब्जियों की फसल ली है और खेत के सारे पत्ते खेत में ही अच्छे से लाइन में बिछा रखे हैं। वे सभी जीवामृत और घन जीवामृत के अलावा पौधों में चूना, मिट्टी के लेपन का प्रयोग कर रहे हैं। किसी प्रकार का कोई रसायनिक उर्वरक और कीटनाशक उपयोग नहीं करते। 2018 से प्राकृतिक खेती से जुड़े किसान बता रहे हैं कि उनके उत्पादन में कोई फर्क नहीं पड़ा। बल्कि उनको यह फायदा हुआ कि उनकी लागत घट गई है। देशी बीजों की तरफ उनका झुकाव बढ़ा है।
वे पानी के प्रबंधन को लेकर सावधानी बरत रहे हैं। एक किसान तो घर के सीवर के पानी को भी उपयोग में लेकर खेती में डाल रहे हैं। आत्मा अभिकरण के निदेशक कहते हैं कि पूरी तरह जहर मुक्त खेती की ओर बढ़ने से ही हम हिमाचल की खेती और बागवानी को अधिक टिकाऊ बना सकते हैं। उन्होंने कहा कि एकल उत्पादन का तत्कालिक फायदा ज्यादा दिखता है लेकिन यह स्थाई नहीं होता। इसके नुकसान देखने के बाद ही वे बहु फसली कृषि और बागवानी की ओर बढ़े हैं। अंधाधुंध रसायनिक खादें, बाजार के हाइब्रिड बीज, कीटनाशक बेहद नुकसानदेह साबित हो रहे हैं। जबकि पर्वतीय खेती में अपने बीज, अपनी खाद, पेड़ों घासों के अवशेष और विविधता वाली फसलों की परंपरा रही है।
जहरीली बागवानी, साग सब्जी, अनाजों के उत्पादन में जहां पानी की अधिक उपयोग की जरूरत होती है, वही जिंदा मिट्टी धीरे धीरे मरने लगती है। प्रकृति और जीवन पर, मानव स्वास्थ्य पर इसके दुष्प्रभाव बेहद डरावने हैं। वे पुराने सेब, पुलम, खुबानी, आडू, देशी दालों, अनाजों की ओर वापसी कर रहे हैं। बाजार इसे समझ सके उसके लिए उन्होंने शुद्ध उत्पादन को उपभोक्ताओं तक अलग से पहुंचाने की व्यवस्था पर काम शुरू कर दिया है। जो सजग समाज हैं वे अपने घर, मिट्टी, पानी और देशी बीजों को बचाने के साथ ही उसके शुद्ध उत्पादन को बाजार में भेजकर सभी के लिए स्वास्थ्य वर्धक भोजन उपलब्ध हो, उसका प्रयास कर रहे हैं। बहुत सारे लोग जहरीले उत्पादन को तात्कालिक फायदे के लिए कर रहे हैं जो वास्तव में बेहद चिंताजनक स्थिति है। खासकर देश के वे प्रांत जिन्होंने कृषि उत्पादन को व्यापारिक गतिविधि बनाकर अपने परिवेश को जहरीला बना दिया है और उनके उत्पादन हम सबकी जिंदगी में भी जहर घोलने में लगे हैं।
सबको पोषण युक्त शुद्ध भोजन, फल और सब्जियां मिलें, इसके लिए खेती को पूर्ण जहर मुक्त बनाने तथा खेती में विविधता की जरूरत है। हिमाचल जैविक राज्य घोषित नहीं है, वे विविधतापूर्ण शुद्ध उत्पादन की ओर बढ़ चुके हैं। हमने खुद के बीजों, खेती के तौर तरीकों को जहरीला, एक फसली और बाजारू बनाने की ओर कदम बढ़ाकर प्रकृति और मानव स्वास्थ्य का नुकसान करना सुनिश्चित कर लिया है। उससे बचने का उपाय यही है कि देशी कृषि पद्धति को प्रोत्साहन देकर उसके उचित मूल्य को किसान बागवानों को दिलवाया जाए। अभी हमारे पास बहुत संभावनाएं मौजूद हैं। हम जल संचय, जल संरक्षण के साथ प्राकृतिक खेती को करने की दिशा में अधिक काम कर सकते हैं।
हिमाचल सरकार और उसके तमाम विभाग, उनके अधिकारी, कर्मचारी, विशेषज्ञ किसानों के साथ जमीन पर उतरकर खेती बागवानी को जहर मुक्त, बहु फसली बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।उत्तराखंड में सरकार के विभाग और विशेषज्ञ वास्तविक जरूरत की योजनाओं पर कब से काम करेंगे, यह पता नहीं। इसलिए लोग यदि खुद के स्वास्थ्य, आर्थिकी, प्रकृति को संरक्षित, सुरक्षित चाहते हैं तो सरकार के इंतजार को छोड़ नई जहर मुक्त खेती की दिशा में अपने प्रयास शुरू कर सकते हैं।लेकिन व्यक्तिगत खेती को जब तक सामाजिक खेती की तरह मिलकर नहीं करेंगे बदलाव का फायदा कभी नहीं मिलेगा।
पर्वतीय उत्तराखंड में आम धारणा है कि हिमाचल आदर्श है। वहां वन खेती है। जमीनों की चकबंदी है। कोई बाहरी जमीन नहीं खरीद सकता है। बागवानी विकसित है और लोग समृद्ध हैं।
शिमला आदर्श पर्यटन स्थल है।
इस धारणा के विपरीत ही सब कुछ देखना हुआ। शिमला कंक्रीट का ढेर मात्र है। लोगों की भूख ने पहाड़ी पर्यटन स्थल को बर्बाद कर दिया है। जंगलों का नाश मार डाला है और शहर गर्मी, भीड़, गाड़ियों के शोर से भरा है। गांवों में लोगों ने पॉली हाउस के अंदर भी अब पेड़ पौधे लगा लिए। इस नाकामयाब योजना का बाहरी चित्र चमकीला है। जहर भरी बागवानी ने अंदर से जमीन की गुणवत्ता को खतम करना शुरू कर दिया है। एकल बागवानी की असफलता ने लोगों को सतर्क कर दिया है और वे फिर से बहुप्रजाति की खेती की ओर बढ़ने लगे हैं।
अगर कोई जमीन नहीं खरीद सकता है तो भी क्या, ये बहुमंजिला होटल लीज पर लेकर तो बाहरी लोग ही चला रहे हैं। भोजन की विविधता गायब है। सब जानते और मानते हैं कि विकास का यह मॉडल फेल हो चुका है। जिसे उत्तराखंड अपनाने में खुद को गर्वित महसूस कर रहा है।
जिस पर्यावरण संकट में आज शिमला जैसा शहर खड़ा है, वह भविष्य में किसी बड़ी अनहोनी को आमंत्रण देता लग रहा है। अब लोगों ने इस शहर में घूमने आना बंद कर दिया है। लोग जानते हैं कि महंगा और अति प्रदूषित शहर उनको वह सुकून देने में असफल है, जिसकी तलाश में वे लाखों खर्च करके आते थे।
आम हिमाचली किसान बागवान पानी, खेती के बाजार और महंगाई से चिंतित है। कोई भी सरकार है, उसका मानना है सभी एक जैसे ही हैं। प्रदेश की आर्थिकी को बेहद बुरी स्थिति में पहुंचाने का काम हुआ है। लोग जुझारू हैं। मिट्टी से प्रेम करते हैं। जंगलों पर अधिकार नहीं होने के बाद भी जुड़े हैं और उनके साथ ही कुछ चुनिंदा विभाग और उनके लोग जमीनी हकीकत को बदलने की इच्छा भी रखते हैं लेकिन भ्रष्ट तंत्र कितना उनको आगे बढ़ने देगा, यह पता नहीं।
जब फसलें बहुप्रजाति की नहीं होंगी, खेती बागवानी जहरीली होगी और लोग सिर्फ व्यापारिक लाभ की तरफ बढ़ने को विकास समझेंगे तो ज्यादा समय तक यह नहीं चलने वाला है। स्थाई और टिकाऊ विकास के लिए वापस खेती बागवानी को विविधता की ओर मोड़ने की कोशिश चल रही है। जहर से मुक्ति का अभियान चला है और यह सीमेंट कांक्रीट के ढेर से मुक्त होने की कोशिशें भी चल रही हैं। हमने हिमाचल को बागवानी में, पर्यटन में, खेती में, वनों के प्रबंधन में जब देखा और सोचा तो आदर्श समझा लेकिन अब उनकी सीमा आ चुकी है।वे जानते हैं कि इसके दुष्प्रभाव उनके खुद के व्यवसाय में, पर्यावरण में, खेती, पानी और उत्पादन में बढ़ने लगे हैं।
जब आपदा आई तो काफी गांव बर्बाद हो गए। उन्होंने सरकार से कहा कि आप यह गांव और जमीन ले लीजिए ताकि जंगल बने और उनको नई जगह देकर रहने, खेती करने के अधिकार दे दीजिए तो सरकार से लेकर कोर्ट तक ने मना कर दिया। वनाधिकार कानून वहां भी लोगों के पक्ष में नहीं लागू हुआ। करीब साठ लाख की आबादी आज भी तीन करोड़ पर्यटकों का बोझ उठाने को मजबूर है। ऊपर से जल विद्युत योजनाएं, बड़े बड़े आवासीय भवन बेहद चिंताजनक निर्माण और लगातार बढ़ती आपदाओं ने लोगों को चिंतित किया है।
उनके अपने बीज गायब हैं। उनकी फलों की विविधता गायब है। कश्मीर खुलने से, चार धाम से उनका पर्यटन भी कमजोर हुआ है पर शौक है सड़कों का, हरेक घर में दो तीन गाड़ियों का, उसका परिणाम सामने है। फोर लेन सड़क के दोनों तरफ गाडियां खड़ी हैं। बीच शहर में जाम लगता है और धूल, धुवां, गर्मी से स्थिति बेहाल रहती है। एक के ऊपर एक खड़े भवन किसी भी भूकंप के बाद जमीदोज हो सकते हैं। खाना फिर मैदान से ही आता है। दिखावे के बाहर हकीकत बेहद चौकाने वाली है। इसलिए पर्वतीय उत्तराखंड के लोगों को समझना होगा कि हिमाचल और उसका विकास मॉडल हमारा आदर्श तो बिल्कुल नहीं है।
यदि सीखना ही है तो आम हिमाचली व्यक्ति से उनका प्रेम भरा व्यवहार,चीजों पर उनकी समझ, सरलता और कानूनों का पालन करने का गुण सीख सकते हैं। पूरे रास्ते भर कभी किसी के मुंह से गाली नहीं सुनी, उत्तराखंड के लोगों को अतिथि सेवा, व्यवसायिक व्यवहार और आत्मीयता सीखनी चाहिए और साथ ही यह भी कि चाहे वे अपनी जमीन नहीं बेचें, आपने बेची है दोनों ही जगहों पर लाभ कोई बड़ा सेठ ही उठा रहा है। खेती बागवानी को जहर मुक्त रखने के साथ ही विविधता को जीवित रखकर ही स्थायित्व दिया जा सकता है। पानी तो उनको भी बचाना होगा और उत्तराखंड के गांव के लोगों को भी क्योंकि पानी का संकट बढ़ता ही जा रहा है। यदि कोई समझेगा तो इस अनुभव के साथ सतत खेती और प्रकृति आधारित पर्यटन के सूत्र भी शामिल हैं।