गजेन्द्र रौतेला
उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था में पर्यटन और तीर्थाटन एक बहुत बड़ी भूमिका निभाता है| वर्ष 2021-22 में उत्तराखंड की सकल घरेलू आय 6.13 % थी जिसमें कुल 15.45% का योगदान पर्यटन का रहा | राज्य की आबादी का कुल 67.99% भाग ग्रामीण क्षेत्र में निवास करता है जबकि राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 86.93% पर्वतीय क्षेत्र है | इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि राज्य में पर्यटन का जो सबसे बड़ा क्षेत्र है वह पर्वतीय क्षेत्र के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्र भी है |
दूसरी तरफ अगर राष्ट्रीय स्तर पर आंकड़ों को देखें तो देश की 65 % आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है और 47% आबादी आजीविका का मुख्य आधार कृषि है | यदि वर्ष 2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण को देखें तो राष्ट्र्रीय आय में ग्रामीण अर्थव्यवस्था 46 % का योगदान करती है अर्थात ग्रामीण उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति हमारी अर्थव्यवस्था को सीधे प्रभावित करती है | इस सन्दर्भ में अमेरिका स्थित मार्केट रिसर्च फर्म ‘ग्रैंड व्यू रिसर्च ‘ का अनुमान है कि वर्ष 2022 से 2030 तक अकेले कृषि और ग्रामीण पर्यटन 11.4 % की चक्रवृद्धि वार्षिक दर से विकसित होगा अर्थात आज ग्रामीण पर्यटन बड़ी तेजी से बढ़ रहा है लेकिन अफ़सोस की बात है कि उस अनुपात में हमारे उत्तराखण्ड के पर्यटन और तीर्थाटन का ना ही विकेन्द्रीकरण हो रहा है और ना ही विविधीकरण बल्कि कुछ ख़ास स्थलों पर ही बड़ी तेजी से पर्यटकों का अनियंत्रित दबाव बढ़ा है जिसका सामाजिक और पारिस्थितिक दुष्प्रभाव भी स्पष्ट रूप से सामने आने लगे हैं | इसके लिए जरूरी है कि हम पर्यटन के नए क्षेत्रों की पहचान कर उसे विकसित करने की एक ठोस योजना बनाए |
कुछ वर्ष पूर्व राज्य पर्यटन द्वारा सीता सर्किट बनाने की बात भी समाचार पत्रों में आई थी लेकिन धरातल पर यह कहीं दिखाई नहीं देती | राज्य बनने से पहले उत्तराखण्ड में पर्यटन की योजनाएं उत्तर प्रदेश सरकार का पर्वतीय विकास विभाग और उत्तर प्रदेश पर्यटन संयुक्त रूप से समनव्य स्थापित कर बनाया करते थे |अपने आसपास के उस दौर के पर्यटन स्थलों की सूची और पर्यटन मानचित्र देखें तो रुद्रप्रयाग जिले का जखोली ,बधाणीताल ,घिमतोली ,जसोली हरियाली ,पौड़ी का पौड़ी शहर,देवलगढ़ खिर्सू ,लैंसडाउन ,जयहरीखाल ,सतपुली ,चमोली जिले का आदिबद्री ,चांदपुर गढ़ी ,गैरसैंण,देवाल,ग्वालदम आदि तमाम छोटे-बड़े स्थानों के ब्रोशर आज भी मौजूद हैं जो ये दर्शाते हैं कि कहीं न कहीं नए पर्यटन स्थलों के विकेन्द्रीकरण कर उसके विकास की योजना आकार ले रही थी लेकिन दुर्भाग्य है कि आज योजनाकारों का सिर्फ चुनिंदा स्थानों पर ही ध्यान केंद्रित है जिसे भव्य से भव्यतम बनाए जाने की होड़ सी दिखाई देती है| जिसमें आध्यात्म का पक्ष बिल्कुल गौण हो चुका है |यदि कुछ नए पर्यटन स्थलों पर चहल-पहल बढ़ी है तो अधिकांशतः वह लोगों के व्यक्तिगत प्रयास और सोशल मीडिया के कारण बढ़ी हुई दिखाई देती है|
2013 में केदारनाथ आपदा के बाद से केदारनाथ धाम में भी बेतहाशा भीड़ बढ़ी है जिसका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव यहाँ की व्यवस्था, पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर साफ़ दिखाई देता है| घोड़े-खच्चरों सहित यात्री और स्थानीय लोगों के बीच झड़प की खबरें आए दिन सुर्खियां बनी रहती हैं जिससे यहाँ की नकारात्मक छवि भी खूब बनाई जाती है| लेकिन विचारणीय बात यह है कि सदियों से चली आ रही इन यात्राओं के ठोस सञ्चालन का हम आज तक कोई सटीक मॉडल विकसित नहीं कर सके हैं | आज आवश्यकता इस बात की है कि हम धर्म-आध्यात्म और तीर्थाटन-पर्यटन के साथ-साथ यात्री-स्थानीय समाज और शासन-प्रशासन बेहतर समझ और समन्वय के साथ इस जिम्मेदारी को साझी जिम्मेदारी समझें और इसकी बेहतरी के लिए सामूहिक प्रयास करें वर्ना वह दिन भी दूर नहीं कि जब उत्तराखण्ड के चारधाम की यात्रा सिर्फ हैली सर्विस तक ही सिमट कर रह जाएगी इस पर गंभीरता से विचार-मंथन किया जाए तो बेहतर हो |