बी.डी. सुयाल
सोचा न था रिश्ते नातौं की उलझन इतना व्यस्त कर देगी कि अपने लिए वक्त निकालना मुस्किल हो जाएगा | फिर सोचता हूँ एक लिहाज से अच्छा है, दिल लगा रहता है, सेवानिवृत्ति के बाद और कोई काम तो है नहीं! इसी बहाने अपने समाज को नजदीक से समझने का मौका तो मिला! समाज में बीते तीन चार दशकों में जो बदलाव आऐ हैं उन्हें गहराई से जानने का अवसर मिला| नौकरी के दिनों में सब कुछ अच्छा ही नजर आता था| लोगों के दुख दर्द को कभी भी गहराई से महसूस करने का प्रयास ही नहीं किया! लगता था कि हम खुश हैं तो सभी खुश होंगे! अब लोगों के बीच में बैठ कर उनकी जागरूकता का स्तर, मानसिक स्थिति, नित नये हो रहे बदलाव से निपटने की उनकी तैयारियों के बारे में जानने की जिज्ञासा पैदा हुई|
कुछ ही साल पहले तक गाँव को जोड़ने वाली पगडन्डियां गन्दगी से भरी होती थी| गाँव के करीब पहुँचने पर नाक को रुमाल से ढकना पड़ता था और कदमों को बड़ी सावधानी से जमीन पर रखना होता था ताकि पैर मल की ढेरी को न छू लैं| न चाहते हुए भी मल मूत्र के सिलसिले वार ढेरियौं का चित्र आंखों में अंकित हो जाता था और बहुत प्रयास के बाद दिमाग से निकल पाता था| महिलाओं के लिए काफी कठिन वक्त था, उन्हें अन्धेरे में ही शौंच के लिए बाहर निकलना होता था फिर भी कोई देख न ले इस बात का डर हमेशा बना रहता था| स्नान के लिए सुरक्षित जगह की तलाश हमेशा बनी रहती थी| आज स्वच्छता अभियान की वजह से पूरा परिदृश्य बदल चुका है| हर घर के साथ एक शौचालय या कम से कम शौचालय के नाम पर एक आरक्षित जगह है और खुशी की बात है कि लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं |सबसे ज्यादा राहत महिलाओं को मिली है| इतने वर्षों के बाद पहली बार महिलाओं को सकून से शौंच व स्नान करने का आनन्द प्राप्त हुआ है| गाँवों की आवो हवा स्वच्छ हो गई है| भिनभिनाती मक्खियां गायब हो गई हैं| पगडण्डीयां साफ सुथरी व चौड़ी हो गई हैं | हालांकि पलायन के कारण खंडहर हो चुकी इमारतें गाँव के परिवेश में मायूसी भर देती हैं|
घरों में खानपान, पहनावा, बिचारौं की अभिव्यक्ति कलह का मुख्य कारण हुआ करता था, खास तौर पर सास बहू, माँ बाप और बच्चों के बीच| ये छोटे छोटे मुद्दे ग्रामीण समाज में काना फूसी के मुख्य केन्द्र हुआ करते थे! सास बहू के बीच नौक झौंक व टकराव अक्सर सीमा के बाहर चला जाता था जो पूरे माहौल को गम्भीर बना देता था | मामुली सी तकरार कभी कभी बडे़ तनाव को जन्म दे कर परिवार के विखरने का कारण बन जाते थे| विवाहित लड़कियों तथा बहूऔं को सलवार सूट या जीऩ्स पहनने की सख्त मनाही हुआ करती थी| बहुऔं के लिए सर ढका रखने की प्रथा प्रचलित थी| पत्नी को पति तथा घर के बुजुर्गों के खाने के बाद ही खाना मुहैय्या हुआ करता था |यहाँ तक कि रसोई के लिए जिम्मेदार महिला को सिर्फ सूत की धोती पहनकर भोजन तैयार करने की इजाजत होती थी| यह प्रथा नई नवेली दुलहन के लिए बहुत असहज कर देने वाली होती थी| पुरुष भी धोती पहनकर ही भोजन किया करते थे| जब कि इस अनिवार्यता को गाँव से बाहर जाने पर लागू करना काफी कठिन होता था| इस कठिनाई की वजह से गाँव के सयाने लोग बहुत कम मौकौं पर बाहर निकल पाते थे| पारिवारिक फैसलौं में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर होती थी|जबकि घर ,खेती व मवेशियों से सम्बन्धित सारी जिम्मेदारी महिलाऐं निभाया करती थी| प्रसाधन की व्यवस्था न होने की वजह से महिलाओं को सबसे ज्यादा मुश्किलौं का सामना करना होता था| शादियां परिवार के बुजुर्ग तय किया करते थे| बेटियों को औपचारिकतावस उनकी पसंद नापसंद के बारे में पूछा जाता था, जिसका कोई अर्थ नहीं था| मासिक धर्म के दौरान महिलाऔं को अपवित्र माना जाता था और इस दौरान उन्हें घर के किसी अंधकारपूर्ण कोठरी या यहाँ तक कि जानवरों के कक्ष में समय गुजारना पढ़ता था| सामाजिक – सांस्कृतिक – राजनैतिक कार्यक्रमों में पुरुषों का बोल बाला था | शिक्षा के क्षेत्र में पुरुषों को बरीयता प्राप्त थी| इस तरह लोक व्यवस्था जनित अनगिनत अंधविश्वास व कुप्रथाऐं समाज में व्याप्त थीं| महिलाऐं अपने आप को लाचार और शोषित महसूस करती थी| यह बहुत पुरानी बात नहीं है, सिर्फ तीन चार दशक पुरानी प्रचलित सामाजिक व्यवस्था का आंशिक परिदृश्य है| इससे पहले के हालात और अधिक गम्भीर व चुनौती पूर्ण होते थे|
पिछले कुछ सालों में ग्रामीण समाज की सोच में काफी परिवर्तन आया है, जिसका मुख्य कारण बदलता परिवेश प्रतीत होता है| ग्रामीणों के व्यवहार में एक जल्द बाजी नज़र आती है, इसके कई सामाजिक और आर्थिक कारण हो सकते हैं| शाम के वक्त का सुलगती चिलम के साथ बैठकों का दौर जो स्थानीय सूचनाओं के आदान प्रदान, समस्याओं के निदान व आदिम और सरल मनोरंजन का प्रमुख आकर्षण हुवा करता था अब समाप्ति के कगार पर है| आधुनिक तकनीक जनित संचार क्रांति तथा उसके ग्रामीण समाज द्वारा अंगीकरण ने महत्वपूर्ण किरदार निभाया है | मोबाईल आज हर घर में व लगभग हर सदस्य के पास मौजूद है| इससे हर व्यक्ति देश विदेश या दुनिया के हर कोने से जुड़ गया है| टीवी व मोबाईल पर प्रतिष्ठित चैनलों के अलावा सोसियल मीडिया की हर खबर प्रसारित होती है | इंटरनेट पर ज्ञान का भंडार मौजूद है, जिसे जब चाहे इस्तेमाल किया जा सकता है| लोग जागरूक होते हैं तो प्रभावी ढंग से अपने विचार व्यक्त करने में सक्षम होते हैं| जाग्रति मानसिक स्तर व दृष्टिकोण बदलने के लिए प्रेरित करती हैं| साथ ही आथिर्क स्तर में सुधार आधुनिक तकनीकी को अपनाने में आसानी पैदा करता है| पहाडी़ ग्रामीण क्षेत्र में भी खेतों को जोतने के लिए छोटे ट्रेक्टर इस्तेमाल होना इसका एक उदाहरण है| नवयुवकों के पलायन से खेती और जानवरों की देखरेख में काफी चुनौतियां थी| बैलौं की जगह मशीन का प्रयोग पहाड़ी खेती के लिए कितना प्रासंगिक है यह विमर्श का बिषय हो सकता है, लेकिन ट्रेक्टर से सुविधा तो बहुत है| इसी तरह दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों में रसोई गैस का प्रयोग महिलाऔं की दिनचर्या में क्रांतिकारी सुधार लाया| सड़कों के गाँवों को छूने से ग्रामीणों की तकदीर बदल गयी| हालांकि सड़क बनाने में जंगलौं का भारी नुकसान हुआ, लेकिन सड़कों का गाँव की खुशहाली में योगदान को नकारा नहीं जा सकता| ग्रामीण अर्थव्यवस्था , सड़कों की वजह से बाजार से सीधे जुड़ गई ,व्यापार विनिमय आसान हुआ और खेती में उगने वाली हर चीज बाजार में बिकने लगी| किसानों की सोच बाजार के अनुरूप होती गई| किसानों को अपनी मेहनत की कीमत पहले से बेहतर मिलने लगी| हालांकि गाँवों में प्रचलित परम्परागत आथित्य का स्वरूप बदल गया | गाँव जाने पर स्थानीय उत्पादों से भरी गठरी जो भैंट की जाती थी उसका प्रचलन कम हो गया| मोटे अनाज जैसे मडुवा, झुगंर, ज्वार, बाजरा की खेती खत्म हो गयी, गेहूँ, धान बहुत कम मात्रा में उगाया जा रहा है| सेव के बगीचे लगभग समाप्त हो चुके हैं| उनकी जगह जहाँ तक संभव है आड़ू, खुमानी, प्लम,नाशपाती इत्यादि के बगीचे लगाने की कोशिश हुई है| जहाँ पानी उपलब्ध है गोभी, टमाटर,मटर, आलू शिमला मिर्च की शब्जियाँ उगाई जा रही हैं| लौकी, खीरा,कद्दू, गेठी, तरुण, लिंगुणा, पिनालू आदि जिनका कुछ साल पहले तक ग्रामीण इलाकों में कोई बाजार नहीं होता था ,अब आपूर्ति नहीं हो पा रही है| बाजार की चीजैं जैसे बेमौसमी शब्जीयां , थैली बंद दूध, मैगी, बोतल बदं पानी,सिगरेट, गुटखा, अंग्रेजी शराब इत्यादि गाँवों में पहुँच गया है|
परिस्थितियों तथा उपलब्धता के अनुरूप लोगों के खानपान, रहन सहन व आदतों में परिवर्तन आना लाजमी है| सलवार सूट जिस पर अविवाहिताऔं का एकाधिकार होता था धीरे धीरे सभी महिलाओं में स्वीकार हो चला है| आंगडीं, घागरा बिलुप्त हो चुके हैं| परम्परागत गहने जैसे नथ , गलाबन्द और पहौंची एक बार बिलुप्त हो कर दोवारा प्रचलन में आने लगे हैं| पलायन कर चुके परिवारों में अपने जन्म स्थान के स्मृति चिन्ह के रूप में परम्परागत गहनों के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है| ग्रामीण नवयुवकों व युवतियों में जीन्स टौप तथा अन्य पश्चिमी पहनावे पसंद किये जा रहे हैं| बुजुर्गों के समक्ष आदर स्वरुप सर में पल्लू रखने का रिवाज अंतिम सांस ले रहा है| आदर दिल से होता है ढकोसलो से नहीं, शायद यह बात समझ में आने लगी है| महिलाओं के अन्तरबिरोध तथा नई पीढ़ी द्वारा इसकी उपयोगिता पर सवाल उठाने के कारण खाना बनाने के दौरान साफ सफाई के प्रतीक के रूप में सूती धोती पहनने की अनिवार्यता लगभग समाप्त हो गई | फलतः पुरुषों में धोती पहनकर अध्र नग्न अवस्था में भोजन ग्रहण करने की प्रथा भी खत्म हो गई | मुझे लगता है यह एक काफी बढ़ा बदलाव है| इष्ट देव, ग्राम देव, जागर इत्यादि में लोगों की आस्था बरकरार है| प्रवासी, डर की वजह से ही सही ,अपने ईष्ट देव का आशीर्वाद प्राप्त करने अपने पैत्रिक गाँव या जन्म स्थान का भ्रमण कर रहे हैं| लोगों में ग्रामीण क्षेत्रों में भटकती अतृप्त ,अदृश्य और शोषित आत्मा का भय यथावत् बना हुआ है| उपचार में जागर आयोजित कर डंगरियौं से विभूति प्राप्त करने व निदान के लिए जरूरी पूजा पाठ की जानकारी हासिल करने का सिलसिला भी जारी है | मंगलवार, ब्रहस्पति और शनिवार रिश्तेदारौ के घर जाने के लिए अशुभ माने जाते हैं| शनिवार को एक ही घर के दो लोग विपरीत दिशाओं में लम्बी दूरी के भ्रमण से परहेज करते हैं| हालांकि नई पीढ़ी इन मान्यताओं के पीछे वैज्ञानिक आधार के अभाव का हवाला देते हुए इन्हें मानने से इनकार करती रही है| मृत्यु का असर सारी बिरादरी में पड़ सकता है इसलिए सारी बिरादरी के लिए शोक के दौरान विधिविधान से दिनचर्या का निरवहन करना आवश्यक माना गया है| मृतक आत्मा की शान्ति के लिए पूरी बिरादरी के सभी योग्य पुरुषों के बालौं की बलि दी जाती है| इसमें वर्षों से पाली मूछों का भी त्याग करना पड़ता है|
आनाकानी करने की स्थिति में हुक्का पानी बंद करने का प्रावधान है| शोक सम्बंधित सामाजिक मान्यताओं का लोग तहे दिल से पालन कर रहे हैं क्योंकि माना गया है कि मृतक की आत्मा के प्रति अनादर या कोई कोताही सात पीढ़ियों तक परेशान कर सकता है| यही कारण है कि डंगरियौं की सेवाऐं और उनका आशीर्वाद हासिल करने के लिए पूर्वजौं द्वारा की गई तथाकथित गल्तियौं का पश्चाताप करने वालौं का तांता लगा रहता है| इनमें गैर प्रवासी लोगों की तादाद ज्यादा होती है|
शादी के आयोजन में भी काफी परिवर्तन देखने को मिला है| महिला संगीत शादी का एक अभिन्न अंग बन चुका है यहाँ तक कि महिला संगीत शादी का मुख्य आकर्षण है| रत्याली का आयोजन समाप्ति के कगार पर है| संगीत में हर उम्र की महिलाऐं व लड़कियां बढ़ चढ़ कर भाग ले रहीं हैं| और अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन कर रही हैं| अच्छा नृत्य प्रस्तुत करने के लिए लम्बें समय तक अभ्यास किया जाता है कभी कभी तो नृत्य सिखाने वालौं की मदद भी ली जाती है| हालांकि नृत्य सिनेमा के गानौ पर आधारित होते हैं| पहाडी़ संस्कृति के गाने या नृत्य बहुत कम प्रस्तुत किये जाते हैं| जो भी हो महिलाओ को अपने हुनर को सवारने और भरपूर मनोरंजन करने का मौका मिल जाता है, जो कुछ दशकों पहले तक संभव नहीं था| शादियों में खर्चा काफी बढ़ गया है लेकिन परम्परागत वाद्ययंत्र ढोल ,ढोलकी ,नगाड़े, तुरतुरी, हुड़का, रनसिघा, मशकबीन व परम्परागत छोलिया नृत्य, झोड़े इत्यादि का प्रचलन न के बराबर रह गया है| संगीत में डीजे व शादी में बैन्ड पसंद किया जा रहा है| शादी की तैयारी के लिए काम पूछने का रिवाज अभी मौजूद है हालांकि शादी के अधिकतर काम अब ठेके पर दिये जाने लगे हैं| कार्यक्रमों में दिखावा और औपचारिकता का बोलबाला रहता है| शादी आयोजन त्वरित उपलब्ध सुविधाऔं के चलते लगभग तनाव मुक्त हो चुका है| लम्बी तैयारियों की जरूरत नहीं रह गई| घराती बाराती में पदानुक्रम व आचरण का अंतर समाप्त हो गया है| रिश्तेदारौं के आपस में साड़ियों के असीमित परिसंचरण से भैंट कर्ता की निष्कपटता पर शक की गुंजाइश के चलते अब आशीर्वाद के तौर पर दी जाने वाली भैंट का स्वरूप सगुन के लिफाफे तक सीमित है| लिफाफे में रखी राशि का रजिस्टर में बकायदा दर्ज करना जरूरी है जिसे आवश्यकता पढ़ने पर एक तलचिन्ह या संदर्भ बिन्दु के तौर पर प्रयोग किया जा सकता है और अतिथियों की निकटता का पता चल सकता है| भैंट में भौतिक सामग्री जैसे कपड़े, बरतन, घड़ी इत्यादि का रिवाज खत्म हो चला है| माँ बाप बेटी को घर में इस्तेमाल होने वाली जरुरी चीजैं स्वेच्छा से शादी में देते रहे हैं और आज भी दे रहे हैं| फर्क सिर्फ़ इतना है लाने ले जाने में सहुलियत को ध्यान में रखते हुए भैंट स्वरूप दी जाने वाली वस्तुओं को भौतिक रूप में न देकर उनकी बाजारी कीमत नकद दे दी जाती है| इसके अलावा दहेज़ की प्रथा पहाड़ी ग्रामीण समाज में न तो पहले स्वीकार्य थी न अब है| कुर्सी मेज के स्थान पर चटाईऔं में बैठ कर दावत का आनंद लिया जाता है| खाने में अभी भी मांस मछली का प्रचलन नहीं हुआ है| शराब का सीमित प्रयोग होता तो है लेकिन पर्दे में रह कर , हालांकि उसकी दूर तक फैल जाने वाली महक सेवन कर्ता का पर्दाफाश कर ही देती है|
ग्रामीण क्षेत्रों में कुमाऊँनी भाषा बातचीत का मुख्य माध्यम बनी हुई है | कभी कभार हिन्दी / अंग्रेजी के मिश्रण का अतिक्रमण साफ नजर आता है| गैर प्रवासी लोग अपने पैत्रिक गाँव आकर भी हिन्दी के प्रयोग में सहजता महसूस करते हैं| गाँव के बुजुर्गों को भी छोटे बच्चों से प्यार दुलार करते वक्त हिन्दी का प्रयोग करते अक्सर देखा जा सकता है| जो भी हो कुमाउँनी भाषा प्रचलित हिन्दी के शब्दों को स्वीकार करते हुए अपना दबदबा कायम रखे हुए है| हालांकि बोलने की शैली में हिन्दी भाषा की छाप अवश्य नजर आती है|
पीतल व तांबे के बरतनौं की जगह जस्ते / एलयूमीनियम ने ले ली है| अब धीरे धीरे स्टील के बरतनौ का प्रयोग भी होने लगा है| केतली, भगोने, भड्डू, परात का प्रतिस्थापन फ्राइपेन, डेक, प्रेशर कुकर व थाल से हो गया है| पीतल के गिलास व पीतल के लोटे का स्थान चीनी मिट्टी के कप प्लेट व प्लास्टिक के जग ने ले लिया है| लोहे की बाल्टी व तांबे की गगरी प्लास्टिक की बाल्टी से जंग हार चुकी है| वट सावित्री ब्रत के अलावा करुआ चौथ भी मनाया जाने लगा है जबकि करुआ चौथ का प्रचलन ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं भी नहीं था| ऐसा ब्रत जिससे पति की उम्र और पूरे परिवार की समृद्धि बढ़ती हो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है| कई पति लोगों की हालत और आदतों को देख कर लगता है शायद वे करवा चौथ व बट सावित्री के ब्रत की वजह से ही जिन्दा हैं वरना उन्होंने जीवन को समाप्त करने के कोई उपाय नहीं छोड़े थे| लेकिन कुवांरी लड़कियों का अपने होने वाले पति के लिए करवा चौथ का ब्रत करना थोड़ा जल्दबाजी तो लगता है| ग्रामीण बेटियां नौकरी पेशा युवकों को ही शादी के लायक समझ रही हैं, प्रगतिशील, आधुनिक विचारों वाले किसान युवकों को शौहर सामग्री नहीं समझा जा रहा है| गाँव की लड़कियां शादी के बाद पहाडौ़ से दूर मैदानी या शहरी परिवेश में रहना पसंद कर रही हैं दूसरी तरफ शहरी लड़कियाँ पहाडौ़ का रुख़ नहीं करना चाहती हैं| इस लिए कृषि व्यवशायी नौजवानों को शादी में अच्छी खासी मुश्किलें आ रही हैं| गाँव में एक दूसरे के दुख दर्द बांटने में जो इमानदारी हुआ करती थी उसमें कमी नजर आती है| अब पीड़ित परिवार के साथ खड़े होना एक औपचारिकता मात्र रह गया है या यौं कहिये कि लोक लाज की वजह से लोग पीड़ित के नजदीक दिखना चाहते हैं| इसका एक कारण लोगों का पहले से ज्यादा साधन सम्पन्न होना तथा बदलते परिवेश जनित अफरातफरी की वजह से ब्यस्त होना हो सकता है| बहरहाल वजह जो भी हो ग्रामीण समाज नैतिक मूल्यों को नये माईने देने की तरफ अग्रसर है| घासनी या घास काटने के अधिकार और पालतू मवेशियों के मुतल्लिक जो झगड़े गाँव में आम हुआ करते थे अब देखने को नहीं मिलते क्यौंकि जानवरों की तादाद काफी कम हो गई है| पलायन की वजह से खेती उजड़ गई है और जंगल गाँवो की तरफ बढ़ गये हैं| बंजर खेतों में बांझ चीड़ व कोकाट के पेड़ व घिंगांरु, किलमोड़ा, हिसालू इत्यादि की झाड़ियाँ उग आई हैं और जंगली जानवर घरों के चौखट तक पहुँच गए हैं| जंगली जानवरों की संख्या में बृद्धि और उनके ब्यवहार में परिवर्तन नज़र आता है| लंगूरों व बन्दर में जंगलीपन और इंसानों का डर खत्म हो गया है| इनकी बड़ी संख्या अचानक हमला कर बहुत कम समय में पूरी खेती व बगीचे को नष्ट कर देती है| इनको भगाने में सक्षम नवयुवक पहले ही पलायन कर चुके हैं| कुत्तौं ने सामूहिक आत्म समर्पण कर दिया है| फलस्वरूप, सुरक्षित कर पाने की असमर्थता के चलते कई किसानों ने दूर दराज की खेती व बगीचे वन्य जीवों के हवाले कर दिए हैं| ग्रामीण क्षेत्रों में वन्य जीवों और इंसानों के बीच टकराव काफी बढ़ गया है| जंगल में अतिक्रमण की कोई सोच भी नहीं रहा क्योंकि जो कब्जे में है वही नहीं सभल पा रहा| दूसरी तरफ गाँव के आसपास हरियाली बढने से प्राकृतिक सौंदर्य में इजाफा हुआ है| जलावन की लकड़ी, घास, पत्तियाँ प्रचुर मात्रा में घरों के नजदीक उपलब्ध हैं|
सामाजिक -राजनैतिक मुद्दौ पर आम बातचीत के स्तर से जाहिर होता है कि ग्रामीण इलाकों में भी जागरूकता काफी बढ़ी है हर ब्यक्ति अपनी राय देने को अक्सर आमादा रहता है बेशक जानकारी आधी अधूरी ही क्यों न हो| ज्यादातर लोग भ्रष्टाचार को ब्यवस्था का हिस्सा मान चुके हैं लिहाजा किसी के भी दिलोदिमाग़ में विरोध की चिंगारी प्रज्वलित होती नहीं दिखती| घूस को अनैतिक न समझ कर लागत का हिस्सा मान लिया गया है और इसकी अदायगी अलग से छिपा कर नहीं बल्कि जायज़ खर्चों के साथ इकट्ठा और पारदर्शिता के साथ होने लगी है| मनरेगा के साथ साथ ग्रामीण विकास के सभी कार्यों में भ्रष्टाचार का अच्छा खासा बोलबाला नज़र आता है| ग्रामीणों के सम्पर्क में रहने वाले कर्मचारी भ्रष्टाचार के तार दूर दूर तक फैलै होने का और घूस न दिये जाने की स्थिति में होने वाली कठिनाईयौं का एहसास लोगों को दिलाते रहते हैं इसलिए लोग भी मजबूरी में ही सही भ्रष्टाचार में सहयोग कर रहे हैं| बिना जान पहचान व बिना घूस सरकारी नौकरी पाना असंभव माना जा रहा है| सच्चाई क्या है इसका तो पता नहीं लेकिन जनमानस में घूस का सर्वब्यापी रुप और उसकी असाधारण उपयोगिता घर कर गई है| दुर्भाग्य है कि नयी पीढ़ी भी इस मानसिकता की शिकार हो चुकी है| हालांकि फेसबुक, ह्वटसअप व फोन रिकार्डिंग का इस्तेमाल कर इस कुप्रथा के पर्दाफाश में मदद मिल सकती है लेकिन अभी तक इन तकनीकों इस दिशा में प्रयोग न के बराबर है|
कुछ बुराइयों को नजरअंदाज कर यदि ग्रामीण समाज के आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक पहलुओं को समग्रता से देखा जाय तो कहा जा सकता है कि गाँव में खुशहाली बढ़ी है, आर्थिक स्थिति पहले से बेहतर है, शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है, बेटियों व महिलाओं का जीवन स्तर अच्छा हुआ है, स्वच्छता के प्रति दृष्टि कोण में बदलाव आया है, सामाजिक सोच व मूल्यों में परिवर्तन देखा जा सकता है| सुविधाएं बढ़ी हैं, मुस्किलैं कम हुई हैं| सरसरी तौर पर अनुभव किया जा सकता है कि पहाड़ के बडे़ बुजुर्गों की बुनियादी सोच में आमूलचूल परिवर्तन तो नहीं हुए लेकिन मजबूरी में ही सही उन्होंने अगली पीढ़ी की नई सोच को जगह दे दी है|