अनिल जोशी
आज जब पूरा देश चंद्रयान की सफलता से गदगद है,एक नज़र उत्तराखण्ड के एक ऐसे अनमोल रत्न पर जिनके द्वारा वर्षों पहले किए अंतरिक्ष अनुसंधान के बिना ये उपलब्धि संभव नहीं थी . 1931 में अल्मोड़ा में जन्मे नीलाम्बर पंत के पूर्वज गंगोलीहाट के ग्राम चिट्गल से आकर अल्मोड़ा के चंपानौला मोहल्ले में बस गये थे.
इनके पिता पद्मादत्त पंत शिक्षा विभाग में उच्चाधिकारी थे. स्कूली शिक्षा अल्मोड़ा में पूरी कर ये लखनऊ विश्वविद्यालय चले गये जहां से भौतिक विज्ञान में M.Sc.किया. Wireless में विशिष्टता होने के कारण इनको 1954 में भारतीय सेना के Corps of Signals में कमीशन मिल गया.
1964 में उन्हें माइक्रोवेव रेडियो ऑफिसर कोर्स करने Monmouth (New Jersey) स्थित US Army Signal Centre and School) भेजा गया जहां उन्होंने 99% अंक प्राप्त कर नया कीर्तिमान स्थापित किया. वहां से लौटने के बाद उन्हें 1965 में डेपुटेशन पर विक्रम साराभाई द्वारा अहमदाबाद में स्थापित अंतरिक्ष केंद्र में भेजा गया जहां उनकी टीम ने देश के पहले प्रयोगात्मक उपग्रह संचार स्टेशन (ESLS) की स्थापना की.बाद में वे इसके निदेशक बनाये गये. इस उपलब्धि के बाद नीलाम्बर पंत का रुझान अंतरिक्ष विज्ञान की ओर हो गया तथा न्यूनतम वांछित सेवा पूरी होने पर 1974 में वे सेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले कर पूर्णकालिक रूप से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) से जुड़ गये.
1977 में कर्नल पंत बंगाल की खाड़ी में श्रीहरिकोटा में नवस्थापित उपग्रह प्रक्षेपण केंद्र (SHAR) के निदेशक बनाए गए. डा.एपीजे अब्दुल कलाम के निर्देशन में इस केन्द्र द्वारा अस्सी के दशक के प्रारंभ में SLV-3 के माध्यम से भास्कर, रोहिणी जैसे अनेक उपग्रह सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किए गये जिनका संचालन कर्नल पंत द्वारा ही किया गया. अप्रैल 1983 में हुए रोहिणी के प्रक्षेपण के दूरदर्शन पर हुए लाइव प्रसारण को तो मैंने स्वयं देखा था. उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए कर्नल पंत को 1976 में विक्रम साराभाई पुरस्कार तथा 1984 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया.
1990 में वे ISRO के उपाध्यक्ष बनाए गए तथा भारतीय अंतरिक्ष आयोग के आजीवन सदस्य रहे. 1991 में अवकाश प्राप्त करने के बाद कर्नल नीलाम्बर पंत अहमदाबाद के Sterling City में नवनिर्मित रिहायशी काॅलोनी में बस गये. सेवानिवृत्ति के बाद भी वे ISRO का मार्गदर्शन करते रहे. उल्लास के इस अवसर पर उन्हें स्मरण करना अपना कर्तव्य समझता हूं. हां इतना अफ़सोस अवश्य है कि चंपानौला में माल रोड से सटा उनका भव्य पैतृक निवास (जिसकी अनेक यादें आज भी मन में बसी हैं) अब इतिहास बन चुका है.वहां अब जीवन पैलेस नामक एक होटल मानो मुंह चिढ़ाता हुआ सा खड़ा है