अरुण कुकसाल
(‘रीजनल रिपोर्टर’ पत्रिका द्वारा पुरुषोत्तम असनोड़ा जी की तीसरी पुण्य तिथि (15 अप्रैल, 2023) पर श्रीनगर (गढ़वाल) में आयोजित ‘पुरुषोत्तम असनोड़ा स्मृति व्याख्यान : पर्वतीय राज्य की अवधारणा में गैरसैण’ एवं ‘संदर्भ ग्रंथ : गैरसैण से पुरुषोत्तम असनोड़ा’ के लोकार्पण कार्यक्रम में उपस्थित सभी मित्र असनोड़ा जी की यादों से भीगा रहा, उनके चिन्तन में हलचलों का कारवां उमड़ता जा रहा था।)
गैरसैण नाम सुनते ही हम उत्तराखंडियों को अपने ‘मन की राजधानी’ का ध्यान तुरंत आ जाता है। परन्तु मुझे और मेरे अधिकांश मित्रों को ‘गैरसैण में कभी तो होगी हमारी राजधानी’ से पहले बड़े भाई ‘पुरुषोत्तम असनोड़ा जी’ का ही ध्यान आता है। गैरसैण की पहचान आज भी मेरे लिए जहां पुरुषोत्तम असनोड़ा जी रहते हैं से है। ‘हैं’ इसलिए कि जीवन में जब भी गैरसैण का जिक्र होगा भाईसहाब की जीवंत यादें मेरा मार्गदर्शन करेंगी। उनके इस इहलोक से विदा होने से पहले के 35 सालों ऐसा कभी हुआ नहीं कि गैरसैण जाना हो और असनोड़ा जी से मुलाकात किए बगैर में आगे बड़ गया हूं। वो न मिले तो उनकी दुकान का स्पर्श और सलियाणा बैंड के पास उनका घर ‘अक्षर निकुंज’ की तरफ आत्मीय निगाह अपने आप ही चली जाती है।
एक सामान्य कद-काठी का व्यक्ति, जो सार्वजनिक जीवन में मुखर होने के बज़ाय मौन रहना पसंद करता था। जो बैठकों और आन्दोलनों में सबको अपने से आगे करके कहीं पीछे कोने में सिमटा रहता था। जो खुद को दिखाने की आजकल की होड़ से विरक्त केवल दृष्टा रहना पंसद करता था। जो घनघोर आक्रोश के वक्त भी चेहरे पर सहजता बनाये रखता था। जो सामाजिक सरोकारों के लिए व्यक्तिगत हितों की हमेशा अनदेखी करता था। जो आत्म सम्मान की रक्षा के लिए व्यावसायिक हितों को तुरंत तिलाजंलि देने में देरी नहीं करता था। ऐसा व्यक्ति सब मित्रों के बीच अपनी साधारण उपस्थिति के साथ अपने असाधारण व्यक्तित्व के कारण सर्वप्रिय तो होगा ही।
पुरुषोत्तम असनोड़ा के ऐसे ही अदभुत नैसर्गिक गुणों के कारण उन लोगों में भी सम्मान अर्जित किए हुए थे जो उनसे वैचारिक मतभेद रखते थे। विरोधी तो उनका कोई था ही नहीं। हो भी नहीं सकता था। उनके चेहरे पर हर समय उपस्थित मनमोहक मुस्कान के सामने मित्रों के आपसी मतभेद कहीं नहीं ठहरते थे।
मुझे याद है कि 80 के दशक में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी द्वारा चलाये जा रहे ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन की तीसरी वर्षगांठ पर बसभीड़ा (चौखुटिया) में 2 फरवरी, 1986 को उनसे पहली मुलाकात हुई थी। सम्मेलन की बैठकों में वे चुप ही रहते परन्तु जनगीतों की महफिल में उनकी आवाज बुलंद रहती। बसभीड़ा से चौखुटिया-गनाई तक के जलूस में ‘शराब माफिया हो बरबाद हो बरबाद’ और ‘नशा नहीं रोजगार दो’ के नारों की धूम के साथ वो और मैं साथ-साथ ही चल रहे थे।
फिर तो, मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा। अल्मोड़ा का ‘रामकृष्ण धाम’ संघर्ष वाहिनी की गतिविधियों का मुख्य केन्द्र था। जहां बैठकों में अधिकांश साथी ज़ोर-शोर अपनी बात रखते वहीं असनोड़ा जी बड़े शांत और व्यवहारिक तरीके से बात रखते थे। हड़बड़ी और उत्तेजना न उनके स्वभाव में और न ही उनके कार्यों में थी। पीसी. भाई (पी. सी. तिवारी) उनकी बात और सुझाव को सर्वाधिक महत्व देते थे। पीसी. दा के साथ उनका नजदीकी और गहरे अपनेपन का रिश्ता अंत तक रहा।
पुरुषोत्तम असनोड़ा उत्तराखंड की पत्रकारिता में एक विशिष्ट पहचान रखते थे। पत्रकारिता और जीवकोपार्जन उनके व्यक्तित्व के दो अलग-अलग बिल्कुल स्वतंत्र पक्ष थे। उन्होने इन दोनों को आपस में मिलाने-नजदीक लाने की कभी कोशिश तो क्या कभी सोचा भी नहीं।
वे मित्रों के मित्र थे, इस कारण हर दिल अज़ीज थे। लेकिन अपने राजनैतिक मित्रों से वे हमेशा दूरी बनाये रखते थे। राजनेताओं से उन्होने कभी कोई व्यक्तिगत अपेक्षा की ऐसा कभी हुआ ही नहीं। बात सन् 1992 की है। मैं एक प्रशिक्षण के सिलसिले में लखनऊ से गैरसैण आया था। राजनेता शिवानंद नौटियाल ने प्रेस वार्ता के बाद असनोड़ा जी को दोपहर के भोजन का बहुत आग्रह किया। लेकिन असनोड़ा जी स्पष्ट तौर पर कहा कि एक पत्रकार के नाते आपसे अभी बात हुई है इसलिए मैं आपके साथ भोजन भी ग्रहण नहीं कर सकता।
वापसी में समय ज्यादा होने के कारण वे भोजन के लिए घर भी नहीं गए मेरे साथ सीधे अपनी दुकान पहुंचे। दुकान में मुझे बिठा कर थोड़ी देर में दो चाय और नमकीन के साथ आये और कहने लगे अब रात को ही घर पर दोनों भाई बढ़िया खाना खायेंगे। बात छोटी सी थी, पर असनोड़ा जी की पत्रकारिता के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता को मुझे समझा गयी। आज जनपक्ष के समर्पित पत्रकारिता के उदाहरण विरले ही मिलते हैं।
उत्तराखंड में गैरसैण की राजनैतिक महत्वा से हम सब परिचित हैं। वहां से आने वाली खबरें देश-प्रदेश में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। विगत 35 वर्षों से भी ज्यादा समय से असनोड़ा जी ने गैरसैण के बहुआयामों पर महत्वपूर्ण आलेख और रिर्पोटें लिखी हैं। आमजन से लेकर नीति-नियंता, बुद्धिजीवी, सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर उनके लेखों और विचारों को गैरसैण क्षेत्र के सर्वागींण विकास बेहद महत्वपूर्ण माना गया है। गैरसैण राजधानी के लिए संघर्षरत सभी जन-संगठनों के तो वे अभिभावक थे। हर कोई आश्वस्त रहता कि असनोड़ा जी का मार्गदर्शन उन्हें हर स्थिति में मिलेगा ही।
असनोड़ा जी का जाना एक व्यक्ति भर का जाना नहीं था। असनोड़ा जी केवल अपने परिवार के अभिभावक ही नहीं थे वरन उससे ज्यादा सामाजिक दायित्वशीलता को निभाने में उन्होने सच्चे, कर्मठ और आत्मीय मार्गदर्शी की भूमिका निभाई है। अपने परिवार में वे अग्रज थे। इसलिए पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति उनका समर्पण छोटी से आयु से प्रारंभ हो गया था। संयुक्त परिवार का आर्दश रूप स्थापित करने के लिए कितना धीरज और संयम रखना होता है, यह मैंने उनसे सीखा है। उन्होने सामाजिक कार्य करते हुए कभी केवल अपने निहित हित के बारे मैं नहीं सोचा। उनकी दृष्टि चाहे परिवार में हो या समाज में सबके लिए बराबर होती थी। इसीलिए एक आत्म संतोष की गरिमामयी चमक उनके चेहरे पर हर समय विद्यमान रहती थी। पत्रकार होने का धर्म निभाते हुए वे हर स्थल की फेसबुक से रिपोर्टिंग करते थे। देखकर आनंद आ जाता था।
बांटना और दुःखों को अपने भीतर समेटना उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा था। हम मित्रों में से कोई नहीं जान पाया कि अनेक मानसिक यंत्रणाओं से असनोड़ा जी गुजर रहे हैं। एक बेहद संवेदनशील और अन्तमुखी स्वभाव ने इन मानसिक कष्टों को जग-जाहिर भी नहीं होने दिया था। हम कितनी गलतफहमी रहते हैं कि अपने मित्रों के दुःख-दर्द को हमसे बेहतर और कौन जान सकता है? पर हमारी गलतफहमी तब बिल्कुल झूठी साबित हो जाती है जब हमारा मित्र हमसे अलविदा कह चुका होता है। उस समय हमारे पास अवा्क रहने के अलावा और कोई भी रास्ता नहीं रहता। यह प्रवृत्ति आज भी हममें हावी है। हमें घ्यान रखना चाहिए कि मित्र को पाना अचानक होता है परन्तु उसका अचानक जाना हमारे अधूरे रिश्तों जैसा नहीं होना चाहिए।
असनोड़ा जी को याद करते हुए हर लाइन पर मुझे आदरणीया लीला भाभी जी का बराबर घ्यान आता रहा है। भाईसहाब अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों को निभाने में हर स्थिति में सफल रहे हैं तो भाभी जी के आत्मीय सहयोग के बदौलत ही। ये भाभी जी की ही स्नेही लीला ही थी कि भाईसहाब पुरुषों में उत्तम आचरण और विचार के अपने नैसर्गिक स्वभाव को कायम रख पाये थे।
आने वाले समय में गैरसैण और अधिक सुविधा सम्पन्न और राजनैतिक महत्व का क्षेत्र होगा। बहुत से नामी-गिरामी नाम यहां उभरेंगे परन्तु हम मित्रों के लिए गैरसैण की पहचान तब भी यही रहेगी कि कभी यहां हमारे अग्रज और प्रेरणापुरुष पुरुषोत्तम असनोड़ा जी रहते थे।
‘रीजनल रिपोर्टर पत्रिका’ ( मोबाइल नंबर- 7455089290 ) और ‘समय साक्ष्य प्रकाशन’ ( मोबाइल नंबर- 7579243444 ) ने ‘गैरसैण से पुरुषोत्तम असनोड़ा’ संदर्भ ग्रन्थ को प्रकाशित करके नेक काम के साथ प्रासंगिक और महत्वपूर्ण कार्य किया है।
यह पुस्तक पुरुषोत्तम असनोड़ा जी के समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ उत्तराखण्ड राज्य में गैरसैण के क्या मायने हैं? इसको गहराई से जानने-समझने का मजबूत आधार देती है।
यह विश्वास है कि उत्तराखण्ड राज्य की बेहतरी के लिए विभिन्न विधाओं में सक्रिय मित्र इस पुस्तक को अवश्य खरीदकर पढ़ना चाहेंगे। यह पुस्तक राज्य के नीति-नियंताओं को गैरसैण की गम्भीरता को समझाने में जरूर मदद करेगी (पर वो समझने को तैयार तो हों)।
शोधार्थियों और सामाजिक- राजनैतिक कार्यकर्ताओं के तो यह पुस्तक उत्तराखण्ड में गैरसैण को समझने की प्रमाणिक पाठ्यपुस्तक है।
गंगा असनोड़ा, सम्पादक ‘रीजनल रिपोर्टर पत्रिका’ और उनकी टीम को आत्मीय धन्यवाद और शुभाशीष हम मित्रों के लिए एक यादगार और युवाओं के लिए एक मार्गदर्शी कार्यक्रम संजोने के लिए।
अरुण कुकसाल