राजीव लोचन साह
माननीय न्यायपालिका के प्रति समस्त सम्मान रखते हुए भी यह कहना होगा कि अनेक बार अदालतें भारी चूक कर जाती है। कई बार उसका ध्यान ऐसी चूकों की ओर खींचना पड़ता है तो कई बार वह स्वयं ही अपनी गलती दुरुस्त कर लेती है। वर्ष 2003 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने अपने एक निर्णय में 1994 के उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौरान मुजफ्फरनगर काण्ड के आरोपी रहे अनन्त कुमार सिंह को दोषमुक्त कर दिया। इस निर्णय से उत्तराखंडवासियों में बहुत गुस्सा फैला। अधिकांश राज्य आन्दोलनकारी उस वक्त जीवित और सक्रिय थे। एक बड़ा जनान्दोलन हुआ। अन्ततः खंडपीठ ने स्वयं ही अपना फैसला वापस ले लिया। ऐसी ही एक घटना वर्ष 2021 में हुई है। फरवरी 2021 में ऋषिगंगा और तपोवन-विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना से हुई तबाही के बाद जोशीमठ के सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक दल एक जनहित याचिका लेकर माननीय उच्च न्यायालय में आया, जिसमें उक्त परियोजनाओं की पर्यावरणीय मंजूरी निरस्त करने तथा जानबूझकर पर्यावरणीय नियमों का उल्लंघन करने के लिये एन.टी.पी.सी. और ऋषिगंगा हाइड्रो प्रोजेक्ट लि. को ब्लैक लिस्ट करने जैसी अनेक प्रार्थनायें थीं। उस वक्त उस याचिका पर सम्यक विचार होता तो आज शायद जोशीमठ की यह स्थिति नहीं होती। मगर वर्ष 2021 की याचिका संख्या 113 को खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं की नीयत पर संदेह करते हुए को सुनने से ही इन्कार कर दिया और उन पर दस हजार रुपये का जुर्माना ठोक दिया। खंडपीठ का मानना था कि ये लोग किसी अन्य के हाथ की कठपुतली हैं। सर्वोच्च न्यायालय में उनकी अपील कहीं फाइलों में धूल खा रही है। आज अतुल सती जैसी वही कठपुतलियाँ जोशीमठ की जनता के सर्वमान्य नेता बनें हुए हैं और देश-विदेश का समस्त मीडिया वास्तविक जानकारियाँ लेने के लिये उनसे सम्पर्क कर रहा है। न्यायपालिका को अपनी इस चूक को मानना चाहिये और ठीक करने के लिये स्वयं आगे आना चाहिये।