रिया चंद
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल, उत्तराखंड
“हमारी फ़िल्म के हीरो आप लोग हैं, यानी हमारा समाज।” खुशी से चिल्लाते लोगों के बीच माइक हाथ में थामे आंचल ने कहा।
खुशी का यह माहौल 1 दिन में नहीं बन पाया। कई महीनों की मेहनत और शिद्दत का यह नतीजा है। प्रकाश का कहना है कि उनकी टीम को एक महीना पूरी फ़िल्म शूट करने और एक महीना एडिट करने में लगा। गुरप्रीत कहती हैं कि उनकी टीम को फ़िल्म का आइडिया अचानक नहीं आया। “हमारे स्कूल में पहले से ही अलग-अलग फ़िल्म और डॉक्यूमेंट्री दिखायी जाती हैं। उसके बाद हमें उन फ़िल्मों पर बातचीत करने का समय दिया जाता है और रिव्यू लिखने को कहा जाता है। ऐसे ही धीरे-धीरे हमारे स्कूल में फ़िल्म देखने और उनपर बात करने का कल्चर बन गया है।”
इस तरह प्रकाश और गुरप्रीत समेत पूरी टीम सिनेमा की दुनिया से रूबरू हुई और सबने मिलकर खुद अलग सिनेमा बनाने की ओर कदम बढ़ाया। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए गुरप्रीत कहती हैं – “शूटिंग के दौरान मछुआरों के साथ हमारे रिश्ते भी अच्छे हो रहे थे। हम हर तरह के पेशों की इज्ज़त करना सीख रहे थे।” मछुआरों को मछली पकड़ते देख टीम को लगा कि जाल में फंसी मछलियां मछुआरों के लिए किसी सोने से कम नहीं हैं। इसीलिए फ़िल्म का नाम भी ‘GOLD IN THE NET’ रखा गया है।
यह फ़िल्म 11वीं कक्षा के शिक्षार्थियों की टीम ने “सिनेमा इन स्कूल” अभियान के तहत बनाई है। फ़िल्म की वर्चुअल स्क्रीनिंग और बातचीत के दौरान सिनेमा एक्टिविस्ट संजय जोशी ने स्पेस का संचालन करते हुए इस अभियान के बारे में श्रोताओं को बताया। Cinema in School पाठ्यक्रम कोर्स से अलग नहीं है, यह सीखने को और ज्यादा कारगर बनाने का माध्यम है। यह पहल किताबों के मूक कांसेप्ट को आवाज़, शक्ल और धड़कन देने की कोशिश है।
वर्चुअल प्रोग्राम में पिथौरागढ़ से शिक्षक साहित्यकार महेश पुनेठा और नानकमत्ता पब्लिक स्कूल की सिनेमा टीम से प्रकाश और गुरप्रीत जुड़े थे। महेश जी के मुताबिक “सिनेमा अभियान की संभावनाएं ज्ञान सृजन की दृष्टि से बहुत ज़्यादा दिखाई देती हैं। सिनेमा हमें एक आधार देता है, जिससे हम अपने बच्चों से बातचीत कर सकें और किसी विषय की गहराई में उतर सकें। यह बच्चों में सूक्ष्म अवलोकन को बढ़ाता है। अगर बच्चे को किताब से विषयस्तु को पढ़ाया जाता है तो वह उसे रट लेता है। वहीं सिनेमा के माध्यम से बच्चे की कल्पनाशीलता और चिंतन को स्थान मिलता है, और वह ज्ञान सृजन की ओर आगे बढ़ता है।”
ठीक यही कहानी GOLD IN THE NET फ़िल्म बनने की भी है। प्रकाश बताते हैं कि उनकी टीम को यह फ़िल्म बनाने का आईडिया पहली फ़िल्म Gujjars of Terai बनाने के दौरान आया। यह काम करते हुए उन्हें इतना मज़ा आया कि वे दूसरी फ़िल्म बनाने में जुट गए। फ़िल्म बनाने के दौरान पूरी टीम न सिर्फ़ फ़िल्म बना रही थी बल्कि भाषाई कौशल और सामाजिक मूल्य भी सीख रही थी। क्लासरूम तक ही रहकर शायद यह कभी मुमकिन नहीं हो पाता। उन्होंने इस दौरान समाज के एक ज़रूरी हिस्से की सामाजिक ज़िंदगी को समझा, जो इतनी बारीकी से कोई टेक्स्टबुक नहीं समझा सकती। गुरप्रीत का भी यही मानना है कि पढ़कर सीखने और खुद अनुभव करके सीखने में बहुत अंतर होता है।
फिल्म शूटिंग के बाद अगला जटिल काम एडिटिंग का होता है। अलग-अलग सीन को जोड़कर एक कहानी कहना ज़ाहिर ही आसान नहीं होता होगा। इस फिल्म के एडिटर प्रकाश का कहना था कि – “मैंने फ़िल्म का पहला ड्राफ्ट अकेले ही एडिट किया था। जब मैंने पूरी टीम को पहला ड्राफ्ट दिखाया तो जो साथी एडिटिंग में शामिल नहीं थे उनके विचार कुछ अलग थे। इससे हमें समझ आया कि एक टीम में किसी एक के आइडिया को लेकर नहीं चला जा सकता है। अगर हम मिलकर काम करेंगे तभी काम बेहतर होगा। हम सबने अपने मेंटर्स के फीडबैक मिलने के बाद साथ बैठकर फ़िल्म दोबारा एडिट की।” सामूहिकता का यह मूल्य जिस तरह इन साथियों ने सीखा वह ताउम्र इनके साथ रहेगा।
इन साथियों ने सामूहिकता का जश्न अपने समुदाय के साथ मिलकर मनाने का भी निश्चय किया। वर्चुअल स्क्रीनिंग के दिन ही 19 नवंबर को नानकमत्ता की बंगाली कॉलोनी में बंगाली समुदाय के बीच इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग हुई। करीब 200 लोगों के बीच पूरी सिनेमा टीम ने फ़िल्म दिखाई। भले ही उस समय नानकमत्ता ने सूरज की रोशनी से अपना मुख मोड़ लिया हो, लेकिन वह रात सभी की आंखों की चमक से जगमगा रही थी। जैसे ही फ़िल्म में लोगों को जाना पहचाना किरदार दिखता पूरी शाम तालियों से गूंज उठती। वहां मौजूद हर इंसान फ़िल्म में खुदको एक किरदार देख पा रहा था। वे सभी उस फ़िल्म के हीरो/हीरोइन थे!