देवेन मेवाड़ी
चिड़ियों और चिड़ियों की दुनिया को पढ़ने में जिन्होंने अपनी ज़िंदगी बिता दी, वे ‘बर्ड मैन’ सालिम अली 12 नवंबर 1896 के दिन पैदा हुए थे। इसलिए उनको याद करते हुए, चिड़ियों पर उनकी किताबें पढ़ते हुए, आइए आज चिड़ियों की बातें करते हुए हम भी चहचहाएं। पहले तक लोग कहा करते थे- हम तो सुबह मुर्गे की बांग सुन कर उठते हैं- कुकडू ऽऽ कूं! लेकिन, अब शहरों में मुर्गे कहां। आप ही बताइए बताइए ना कि हर सुबह आप किस चिड़िया की आवाज़ से उठते हैं ?
मैं दूर शहर दिल्ली में रहता हूं। यहां तो रात-दिन लाखों गाड़ियां चलती रहती हैं- कैंऽऽ पैंऽऽ चैंऽऽ किर्र…पैं पैं पैं! हर समय गाड़ियों के हार्न का शोर मचा रहता है। लेकिन, चिड़ियों को शोर पसंद ही नहीं है। इसलिए वे शहर में नहीं रहना चाहतीं। मगर क्या करें, हमारी तरह वे भी शहर में रहने को मजबूर हैं। असल में शहरों में उनके रहने की जगह भी बहुत कम रह गई हैं। शहर बढ़ता गया और पेड़ कटते गए। पेड़ों के कट जाने के कारण चिड़ियों के घर उजड़ गए। वे रहें तो कहां रहें? पहले तक अलग-अलग मकान होते थे। उनकी छत के शहतीरों के बीच खाली जगह बचती थी। उस खाली जगह में गौरेया, मैना और फाख्ते अपना घर-घोंसला बना लेते थे।लेकिन, अब शहरों में बहुमंजिली इमारतें हैं। उन में सैकड़ों फ्लैट हैं। उनमें आदमी रहते हैं। चिड़ियों के रहने की उनमें कोई जगह ही नहीं है। फिर भी चिड़ियां आती रहती हैं कि कहीं जगह मिले तो वे रहें। गलियों और पार्कों के किनारे यहां-वहां खड़े पेड़ों पर अपना बसेरा बना लेती हैं। शहरों में हमें बस उन्हीं की चहचहाट सुनाई देती है।
जब कोरोना महामारी फैली और लाॅकडाउन लगा तो उन दिनों चिड़ियां बहुत खुश दिखीं। यहां दिल्ली में भी वे बहुत खुशी से चहक रही थीं। वे यह देख कर बहुत हैरान थीं कि अरे, इन आदमियों को क्या हुआ? कहां चले गए सब? उनकी शोर मचाती हुई गाड़ियां क्यों नहीं चल रही हैं?
उन्हें क्या पता कि कोरोना महामारी फैलने के कारण आदमी अपने घरों में दुबक गए थे। गाड़ियां भी बहुत कम लोग चला रहे थे। इसलिए उन दिनों कर्कश शोर बहुत कम हुआ।
शोर कम हुआ तो चिड़ियां खुश हो गईं। वे सुबह-शाम खूब चहकीं। कई लोग तो यह देख कर चकित रह गए कि इन दिनों इतनी सारी चिड़ियां आखिर आ कहां से गईं? वे यहीं छिपी हुई थीं- डरी, सहमी हुई । कुछ चिड़ियां ठंड से बचने के लिए गर्म जगहों को चली गई थीं।
खैर, वसंत के दिनों में मेरी तो नींद खुलती है सुबह-सुबह बुलबुलों के चहकने से। तब बुलबुलें सर्दियां बिता कर लौट आती हैं। वे चहक कर मुझे जगाती हैं- पीई ई ई…क्विह…क्विह ! बुलबुल की आवाज सुन कर बड़ा बसंता भी जाग उठता है और चहकता है- क्रुक…कुटरुक…कुटरुक…कु टरुक! मुझे पता है, वह क्या बोलता है। अपनी पत्नी से कहता है-मैं यहां हूं, यहां हूं, यहां हूं…कुटरुक! बुलबुल और बसंता की आवाज सुन कर शायद कोयल को लगता है- लो, ये तो जाग गए! मैं भी उठता हूं। उठ कर वह अपना मधुर गीत सुनाने लगता है- कुहू! कुहू! कुहू! पहले धीरे-धीरे, फिर तेज….और फिर तेज और, फिर अचानक चुप हो जाता है।
चुप हो जाता है? हां,क्योंकि कुहू….कुहू का मधुर गीत तो पापा कोयल गाता है। चितकबरे पंखों वाली मां कोयल तो बस उसकी आवाज़ सुनती रहती है और समझ जाती है कि पापा कोयल क्या कह रहा है। खग ही जाने खग की भाषा, है ना? हां, खुद कभी-कभी कुक-कुक-कुक की आवाज में उत्तर दे देती है। एक काक दम्पत्ति भी हमारे पड़ोसी हैं। बरसात से पहले उन्होंने हमारे घर के सामने घने छायादार कुसुम के पेड़ पर सूखी, पतली टहनियों, ऊन, तार वगैरह से अपना घर-घोंसला बनाया। वे यों तो कांव! कांव! बोलते रहते हैं, लेकिन बारिश आने वाली हो तो बोलते हैं- काऽ काऽ काऽ
वसंत ॠतु में ये चिड़ियां इतना क्यों चहकती हैं? क्योंकि, वह इनके प्यार का मौसम है। इनकी प्रजनन की ऋतु है। हमारे आसपास कौवा भी है और कोयल भी। क्यों? क्योंकि कोयल कौवों के घोंसले में अंडे देती है। इसी पेड़ पर दो-तीन साल पहले भी कोयल ने कौवों के घोंसले में एक अंडा दे दिया था। हमने देखा उनके घोंसले में एक बच्चा कोयल का था और और दो बच्चे कौवों के। लेकिन, एक बात है, माता-पिता कौवों ने कोयल के बच्चे को भी अपने ही बच्चों की तरह बहुत ही प्यार से पाला। बल्कि वही बच्चा पहले बड़ा हुआ। माता-पिता से वही ज्यादा भोजन ले लेता था।
पिछले साल उत्तराखंड में भवाली, नैनीताल से मुझे एक बच्चे का फोन आया। उसने पूछा- “कौवा कोयल के घोंसले में अंडे देता है या कोयल कौवे के घोंसले में? मुझे कन्फ्यूजन हो गया है। पता है आपको कि कौन किसके घोंसले में अंडे देता है? क्या कौवा कोयल के घोंसले में अंडे दे सकता है? नहीं! क्योंकि कोयल को तो घोंसला बनाना आता ही नहीं! तो मां कौवा उसके घोंसले में अंडा कैसे दे सकती है! इसलिए सच यह है कि कोयल कौवे के घोंसले में अंडे देती है। प्रकृति ने उसे न जाने क्यों, घोंसला बनाना सिखाया ही नहीं। कौवा मम्मी-पापा पानी पीने और सूखी रोटी वगैरह भिगाने के लिए कुसुम के पेड़ से हमारी बालकनी में चले आते हैं।
अच्छा, आपको यह तो पता है ना कि कौवे बहुत बुद्धिमान होते हैं? वे तो छह तक की गिनती भी जानते हैं! बल्कि कुछ वैज्ञानिक तो कहते हैं कि छह ही नहीं वे 10 तक गिन सकते हैं। कौवों की याददाश्त बहुत तेज होती है। वे कुछ भूलते नहीं। अगर कोई आदमी उन्हें तंग करता है या पत्थर मारता है तो वे उसे पहचान लेते हैं। उसके बारे में एक-दूसरे को बता भी देते हैं। कौवे टूल्स का भी इस्तेमाल कर लेते हैं। किसी चीज को खिसकाने या निकालने के लिए वे लकड़ी के टुकड़े का इस्तेमाल करते हैं। घड़े में कंकड़ भर कर, पानी पीने की कहानी तो तुमने पढ़ी ही होगी। और हां, कौवे ऊंचाई से अखरोट गिरा कर, उनके टूट जाने के बाद अखरोट की गिरी खा लेते हैं। यहां तक कि वे अखरोट या कोई दूसरा सख्त फल सड़क पर डाल देते हैं ताकि कार या बस के पहियों से वह टूट जाए। टूट जाने पर वे उसका गूदा या गरी खा लेते हैं। खतरा पास आने पर कौवे अपने साथियों को भी आवाज देकर बुला लेते हैं। इतने होशियार होते हैं कौवे!
महाकवि रहीम का दोहा पढ़ा होगा आपने-
दोनों रहिमन एक से जो बोलत नाहि
जान परत हैं काक पिक ऋतु वसंत के माहि।।
जब तक बोलते नहीं, तब तक दोनों देखने में एक जैसे लगते हैं। लेकिन, वसंत ऋतु आने पर पता लग ही जाता है कि कौन कोयल है और कौन कौवा! यानी, कोयल अपनी मधुर वाणी से पहचानी जाती है तो कौवा अपने कर्कश स्वर से।
अब चिड़िया एक किस्सा-
हमारे देश में जैसे लाल बुझक्कड़ के किस्से कहे जाते हैं, वैसे ही उज्बेकिस्तान के आसपास कहीं एक खलीफ़ा रहते थे। एक बार उन्होंने देखा कि एक गाय मैदान में यहां वहां भटक कर चर रही है जबकि एक नन्हीं चिड़िया आसमान में उड़ रही थी। वे बोले- हे परवरदिगार तूने इंसाफ नहीं किया। नन्ही-सी चिडि़या को पंख दे दिए और पेट भरने के लिए यहां-वहां भटकती, भारी-भरकम गाय को पंख नहीं दिए। तभी उड़ती हुई चिडिया की बीट टप से उनके सिर पर गिरी।
वे फौरन हाथ उठा कर बोले- तूने ठीक किया परवरदिगार कि गाय को पंख नहीं दिए। बहुत इंसाफ पसंद है तू!
फोटो : इंटरनेट से साभार