कमलेश जोशी
मार्च महीने में पारा इतनी तेजी से चढ़ा कि इसका असर न सिर्फ मैदानी इलाकों में बल्कि पहाड़ों में भी महसूस किया जा रहा है. जहाँ पिछले वर्षों तक चारधाम में बर्फ अप्रैल के मध्य तक देखी जा सकती थी वहीं इस वर्ष मार्च में ही बर्फ तेजी से पिघलने लगी. केदारनाथ में बर्फबारी के सीजन में 10 से 12 बार बर्फबारी हुई और कई जगह तो 18 फीट तक भी बर्फ जमी रही लेकिन अचानक बढ़े तापमान ने तेजी से बर्फ पिघलाना शुरू कर दिया है. अभी से केदारनाथ में दिन का अधिकतम तापमान 26-27 डिग्री जाने लगा है तो अनुमान लगाया जा सकता है कि मई-जून में गर्मी के स्तर में किस तरह की बढ़ोत्तरी हो सकती है.
मार्च के शुरूआती सप्ताह तक केदारनाथ मार्ग पर बर्फ हटा रास्ता बनाने के काम में कामगारों को कढ़ी मेहनत करनी पड़ रही थी लेकिन मार्च अंत आते आते पारा इतनी तेजी से बढ़ा कि बर्फ खुद ही पिघलने लगी और रास्ते से बर्फ साफ हो गई. यही हाल बद्रीनाथ धाम का भी है. बद्रीनाथ में जहाँ मार्च में लगभग चार फीट तक बर्फ जमी रहती थी वहीं इस वर्ष मार्च में ही बर्फ पूरी तरह पिघल गई है. बद्रीनाथ से ऊपर स्थित अंतिम गाँव माणा में भी बर्फ तेजी से पिघल रही है. पिछले एक दशक में यह पहला मौका होगा जब श्रद्धालुओं को बद्रीनाथ परिसर के आस-पास बर्फ देखने को नहीं मिलेगी. यही हाल गंगोत्री और यमुनोत्री का भी है.
वैज्ञानिकों का मानना है कि मार्च में बारिश न होने के कारण वातावरण में नमी की कमी की वजह से तापमान में वृद्धि हुई है जिस कारण बर्फ तेजी से पिघल रही है. लेकिन तापमान वृद्धि का कारण सिर्फ बारिश का न होना नहीं है बल्कि और भी बहुत से मानवजनित कारण इसके पीछे नजर आते हैं. अमर उजाला की खबर के अनुसार वाडिया संस्थान के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल का मानना है कि केदारनाथ जैसी जगहों पर मशीनों से हो रहे लगातार कटान, ध्वनि प्रदूषण व धुएँ से लोकल तापमान तेजी से बढ़ रहा है जिस वजह से बर्फ समय से पहले पिघल रही है. वरना केदारनाथ जैसे उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बर्फ पिघलने का समय मई अंत तक रहता है. बर्फ के इस तरह तेजी से पिघलने के कारण घाटी के निचले इलाकों में आगामी महीनों में पेयजल संकट की समस्या पैदा हो सकती है और गर्मी बढ़ने के कारण बेमौसम तेज बारिश के खतरे से भी इंकार नहीं किया जा सकता.
पिछले कुछ वर्षों में केदारनाथ पुनर्निर्माण के लिए मंदिर परिसर के चारों ओर सीमेंट और कांक्रीट का अत्यधिक इस्तेमाल किया गया है जिस कारण सूरज की तपन पत्थरों में पड़ने से गर्मी तेज हो रही है और बर्फ को पिघला रही है. लोकल वार्मिंग का इस तरह तेजी से बढ़ना शुभ संकेत नहीं है. तापमान जितना अधिक बढ़ेगा ग्लेशियर उतनी ही तेजी से पिघलेंगे. उच्च हिमालयी क्षेत्रों में तापमान का बढ़ना न सिर्फ वहाँ बसने वाले जानवरों के लिए खतरनाक है बल्कि जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों के लिए भी नुकसानदायक है. विशेषज्ञों का मानना है कि यदि तापमान इसी तेजी से बढ़ता रहा तो उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पैदा होने वाली तमाम तरह की वनस्पतियों पर विलुप्त होने का संकट गहरा सकता है. उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्य में बुग्यालों के आसपास तमाम तरह की दुर्लभ जड़ी-बूटियॉं पाई जाती हैं. बढ़ता तापमान दुर्लभ जड़ी-बूटियों के अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा कर सकता है.
ऑल वैदर रोड के लिए काटे गए पहाड़ और पेड़ भी कहीं न कहीं इस बढ़ते तापमान के लिए जिम्मेदार हैं. सड़कों का डामरीकरण सूर्य की किरणों को तेजी से अवशोषित करता है जिस वजह से भी गर्मी बढ़ रही है. इसीलिए सड़कों के किनारे पेड़ लगाना और जंगलों का संरक्षण करना व उन्हें आग से बचाना नितांत आवश्यक है. लगातार हो रहा खनन, नदियों में बनाए जाने वाले बड़े-बड़े बाँध, नदियों का डायवर्जन, सड़क व रेल लाइन के लिए की जाने वाली ब्लास्टिंग आदि तमाम ऐसे कारण हैं जो पर्यावरण को लगातार नुकसान पहुँचा रहे हैं. ऑल वैदर रोड के 12 मीटर चौड़ा बनाए जाने को लेकर चोपड़ा कमेटी के प्रमुख रवि चोपड़ा ने खूब विरोध किया लेकिन सामरिक सुरक्षा का हवाला देकर जब सरकार कोर्ट गई और कोर्ट ने सड़क की चौड़ाई कम करने से इंकार कर दिया तो रवि चोपड़ा ने खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर खुद को उस कमेटी से अलग कर लिया. उनका खुद को इस कमेटी से अलग करना कहीं न कहीं यह दर्शाता है कि सड़क का बेतहाशा चौड़ीकरण हिमालयी पर्यावरण के हित में नहीं है.
पहाड़ों को ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए राज्य सरकार को कुछ कठोर कदम उठाने ही होंगे. उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों में अपनी गाड़ियों से यात्रा करने वाले यात्रियों पर ग्रीन टैक्स लगाए जाने के साथ-साथ पब्लिक ट्रांसपोर्ट को भी मजबूत किया जाना आवश्यक है. आने वाला समय इलैक्ट्रिक और हाइड्रोजन से चलने वाली गाड़ियों का है. राज्य सरकार को इस क्षेत्र में हो रही प्रगति को ध्यान में रखते हुए भविष्य में ऐसी गाड़ियों को प्रोत्साहन देना चाहिये. औली की तर्ज पर केदारनाथ और अन्य उच्च क्षेत्रों में रोपवे को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये. हालाँकि केदारनाथ के लिए रोपवे का प्रस्ताव राज्य सरकार द्वारा पारित किया जा चुका है. राज्य में कहने को तो पॉलिथीन बैन है लेकिन पहाड़ों में हर जगह धड़ल्ले से पॉलिथीन की बिक्री आज भी हो रही है. टूरिस्टों के लिए प्लास्टिक व पॉलिथीन को लेकर कड़े नियम व दंड का प्रावधान किया जाना चाहिये.
चारधाम में बढ़ते श्रद्धालुओं की संख्या भी चिंता का सबब है. कोरोना काल से पहले 2019 की बात करें तो सिर्फ एक सीजन में केदारनाथ में 10 लाख से अधिक श्रद्धालुओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई. जबकि बद्रीनाथ पहुँचने वाले श्रद्धालुओं की संख्या 12 लाख से अधिक रही. कुल मिलाकर 38 लाख से अधिक श्रद्धालुओं ने चारधाम व हेमकुंड की यात्रा 2019 के सीजन में की जो कि इस अंतिसंवेदनशील क्षेत्र की वहन करने की शक्ति से कई गुना अधिक है. राज्य को अपनी तीर्थस्थल की छवि के इतर ईको टूरिज्म, नेचर टूरिज्म, होम स्टे, एडवेंचर टूरिज्म, योगा टूरिज्म, स्पिरीचुअल टूरिज्म आदि को भी और बड़े स्तर पर विकसित करना चाहिये ताकि चारधाम में बेतहाशा बढ़ती यात्रियों की संख्या को दूसरी ओर मोड़ा जा सके. साथ ही पंच बंद्री, पंच केदार व पंच प्रयाग सर्किट को श्रद्धालुओं तक पहुँचाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया व अन्य माध्यमों द्वारा प्रचारित प्रसारित किया जाना चाहिये. राज्य के पास आज भी चोपता, बेनीताल, केदारकांठा जैसे कई अविकसित व अल्पविकसित गंतव्य हैं जिन्हें लोगों तक पहुँचा कर राज्य के टूरिज्म की पहुँच को देश भर में बढ़ाया जा सकता है और बेतहाशा बढ़ रही लोकल वार्मिंग को कुछ हद तक कम किया जा सकता है.
One Comment
Raman
This is only due to Anthropogenic mean…Most of the forests are destroyed and habitat got fragmented…..Todays human is brutal animal.