रमेश जोशी
शिक्षा व्यवस्था को किस प्रकार से जीवनोपयोगी, सार्थक और रूचिपूर्ण बनाया जाय यह आज भी हमारे लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। इसी समस्या के कारण समाज में सभी बुराइयां और अनेक ऊँच-नीच हैं। इतना होने के बाद भी कभी यह विषय किसी भी राजनैतिक दल के घोषणा पत्र में प्रमुखता से नहीं रहा। तात्कालिक समस्याओं को केन्द्र में रखकर ही सभी दल अपना चुनावी घोषणा पत्र तैयार करते हैं। भले ही समग्र रूप से ये पार्टियां इसे गम्भीरता से नहीं लेती परन्तु कुछ जागरूक जनप्रतिनिधियों के द्वारा समय-समय पर इस विषय पर विचार करते हुए अपने स्तर से समाधान करने का प्रयास भी किया गया है इसी श्रृंखला में पिथौरागढ़ के नव निर्वाचित विधायक श्री मयूख महर द्वारा शिक्षा की अलख जगाने के लिए एक अनूठी पहल की गई है। उन्होंने कहा है-’’कृपया मुझे फूलों, स्मृति चिह्नों के बदले किताबें भेंट करें। मेरी कोशिश रहेगी कि किताबों के अभाव में कोई भी युवा अपनी तैयारी से न चूके। गुलदस्ता, स्मृति चिह्न महँगे होते हैं इनके बदले आप मुझे प्रतियोगी किताबें, साहित्य से जुड़ी किताबें भेंट करें ताकि मैं उन हजारों किताबों को जिला पुस्तकालय में भेंट कर युवाओं को पढ़ने के लिए प्रेरित कर सकूँ क्योंकि पढ़ने से ज्यादा आनन्द किसी और काम में नहीं आता और ज्ञान से बड़ी कोई ताकत नहीं है। आपके द्वारा भेंट की गई किताबें बच्चों का भविष्य बनाने में मील का पत्थर साबित होंगी।‘‘
पढ़ने-लिखने और शिक्षा को लेकर हमारे समाज में बहुत सी भ्रान्तियां हैं। आज भी यह व्यवस्था कई प्रकार के बन्धनों से जकड़ी हुई है। इसका ढाँचा बहुत सख्त है जिसमें लचीलापन नहीं के बराबर है परिणामस्वरूप इस व्यवस्था को अपनाने में बच्चों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। इसे व्यावहारिक जीवन से हटकर बिल्कुल अलग स्वरूप में ग्रहण करना होता है। जब इसे बच्चों के जीवन से अलग करके अपनाने पर बल दिया जाता है तो वे इससे स्वयं को असहज महसूस करते हैं। पूरे विद्यार्थी जीवन में वे इसे सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाते। जब तक वे इसे ठीक से समझ पाते हैं तब उनके ऊपर सामाजिक जिम्मेदारियों का बोझ आ जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपने जीवन काल में शिक्षा के महत्व को नहीं समझ पाता है। उसके लिए शिक्षा महज जीविकोपार्जन का माध्यम है। उसने जो कुछ भी सीखा उसके पीछे उसका मकसद अपने जीवन को सफल बनाने के लिए और अधिक से अधिक भौतिक संसाधनों को प्राप्त करना ही रहा है।
इस संकीर्ण उद्देश्य के चलते समाज में अनेक बुराइयां पैदा होती रही हैं। समाज का एक बड़ा तबका तो शिक्षा के माध्यम से जीविकोपार्जन करने में भी सफल नहीं हो पाता है। जब तक शिक्षा का उद्देश्य संकीर्ण होगा समाज में न तो समरसता पैदा हो सकती है और न ही गलत को रोका जा सकता है। हम समाज में आमतौर पर देखते हैं जब किसी व्यक्ति को इच्छित सफलता मिल जाती है तो इसके साथ ही उसका पढ़ने-लिखने से नाता लगभग टूट जाता है, किताबों से वह दूरी बना लेता है। शिक्षा जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है वह इस बात को भूल जाता है। ऐसा नहीं है कि समाज में साधन सम्पन्न लोगों की कमी है। उनके पास पर्याप्त मात्रा में संसाधन होते हैं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वे काफी पैसा खर्च करते हैं परन्तु बहुत कम लोग ऐसे हैं जो इन आवश्यकताओं में किताबों को भी शरीक करते हों। अधिसंख्य लोग दरअसल किताबों को अपने व अपने परिवार के लिए आवश्यक ही नहीं मानते और बिना आवश्यकता के कोई भी कुछ क्यों लेगा?
प्रायः देखा जाता है कि समाज में पढ़ने का प्रचलन केवल शिक्षा ग्रहण करने और रोजगार प्राप्त करने तक ही होता है। ऐसा कम ही दिखाई देता है कि घरों में घर के बड़े लोग नियमित रूप से पढ़ते हों। उनके जीवन में पठन-पाठन का कोई महत्व नहीं है। अपने पेशे से इतर सामान्य रूप से अखबार पढ़ना या समाचार सुनना या फिर सोशियल साइट पर ब्यस्त रहना बस इसी में अधिकांश लोग अपना समय ब्यतीत करते हैं। जब घर के सयाने लोग किताबों को कोई रिस्पांस नहीं दे रहे हैं तो छोटे बच्चों से कैसे अपेक्षा की जाए कि वे इसमें खो जाएं। हम दूरदर्शन में कोई फिल्म, समाचार या सीरियल देखने में मशगूल होते हैं या चार-छः लोग आपस में अपने पसंदीदा विषय पर बतिया रहे होते हैं या और कोई पसंद का काम कर रहे होते हैं पर अपने बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि वे हमेशा अपने कोर्स की किताबों को चाटते रहें। कितना विरोधाभास है परिवार में। बच्चे तो अनुकरण करते हैं, जैसा बड़े लोग करते हैं वे भी उसी के अनुरूप वैसा व्यवहार करना चाहते हैं। ऐसे में पढ़ने का महत्व कितना अधिक है इसे समझा जा सकता है।
अगर घर-परिवार के लोग खुद से नहीं भी पढें तो कम से कम अपने बच्चों में पढ़ने की आदत का विकास करने के लिए तो पढ़ें। यदि हर घर में समय-समय पर बड़े लोग किताबों को पढ़ें तो उनके बच्चे भी निश्चित रूप से किताबों की ओर आकर्षित होंगे। पठन-पाठन न केवल भविष्य को बेहतर बनाता है बल्कि सम्पूर्ण समाज को सही दिशा की ओर ले जाता है। शिक्षा के व्यापक उद्देश्य हैं। इन्हीं को ध्यान में रखते हुए समाज के हर तबके की जिम्मेदारी है कि वह अपने स्तर से इसमें अपना अधिकतम योगदान दे। समाज में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक व शैक्षिक रूप से सम्पन्न व्यक्तियों का समाज अधिक अनुकरण करता है ऐसे में जरूरी है कि इस प्रकार के लोग सामाजिक दायित्वों के निर्वहन के साथ-साथ अपने पठन-पाठन को भी जारी रखें। ये लोग समाज के लिए प्रेरणादायी होते हैं, इनके पढ़ने का शौक समाज में अन्य लोगों का भी शौक बनेगा।
साधन सम्पन्न लोगों के पास अपने उपयोग की सभी सामग्री उपलब्ध होती है। ये लोग अपने बजट का एक बड़ा हिस्सा अपने शौक पूरा करने में लगाते हैं। बेहतर होगा कि ये लोग पुस्तकों को भी अपने शौक में शुमार करें। जिस प्रकार घर में सुख-सुविधा की सारी सामग्री उपलब्ध होती है उसी प्रकार हर घर में पर्याप्त मात्रा में किताबें भी होनी चाहिए। यदि प्रत्येक घर में बहुतायत से पुस्तकें उपलब्ध होंगी तो घर के लोग जरूर उनको पढ़ेंगे। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि हमें पुस्तकों के बारे में अपनी समझ को विकसित करना होगा विशेष तौर पर बच्चों के मामले में। आज भी अधिकांश लोगों के मन में यही धारणा है कि बच्चे केवल अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करें, उनको इधर-उधर की किताबों पर झाँकने नहीं दिया जाता है। इस सम्बन्ध में यह बात काफी महत्वपूर्ण है कि बच्चों में पढ़ने की आदत का विकास करने व सीखने-सिखाने में जितनी बड़ी भूमिका पाठ्यक्रम में शामिल पुस्तकों की है उससे कहीं अधिक पाठ्यक्रम से इतर के पुस्तकों की है। प्रायः देखने में आता है कि यदि बच्चे पाठ्यक्रम से हटकर कोई कविता, कहानी या कोई अन्य पुस्तकों को पढ़ते हैं या पढ़ना चाहते हैं तो उनके अभिभावक उनको इन किताबों को पढ़ने के लिए मना कर देते हैं। इस प्रकार के अवरोध से उनके मन में शिक्षा के प्रति नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। शिक्षा और पठन-पाठन का कार्य उनके लिए बोझ स्वरूप हो जाता है। बच्चों के मन में यह धारणा घर करने लगती है कि पढ़ने का मतलब केवल और केवल पाठ्यक्रम की पुस्तकों को ही पढ़ना है।
इस प्रकार के वातावरण में सीखना आसान कैसे हो सकता है। हमारी दिनचर्या में कई काम ऐसे हैं जिनको न तो विद्यालय में सिखाया जाता है और न ही उसके लिए किसी विशेष प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है फिर भी इन कार्यों को बच्चे बहुत सहज ढंग से करते हैं। बच्चों को उनके मन पसंद के खेल खेलने के लिए जाओ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बच्चे इण्टरवल, छुट्टी आदि के साथ-साथ टेलिविजन खुलने, मोबाइल को किसी भी तरीके से प्राप्त करने, अपने दोस्तों के साथ जाने और अपने पसंदीदा काम करने का बेसब्री से इन्तजार करते हैं और वे किसी भी हालत में इन मौकों को हाथ से नहीं जाने देते तो फिर पठन-पाठन से ही क्यों भागते हैं? यदि हम अपने घर, विद्यालय और अन्य सार्वजनिक स्थलों जहाँ पर बच्चों का आना-जाना लगातार होता है, पर निम्न व्यवस्थाएं कर सकते हैं तो बच्चे पठन-पाठन को बहुत ही सहज और मनोरंजक तरीके से स्वतःस्फूर्त होकर आत्मसात कर सकेंगे।
प्रत्येक घर में पुस्तकालय अवश्य होना चाहिए। जरूरी नहीं कि इसके लिए बहुत अधिक स्थान और धनराशि खर्च की जाए। अपनी जरूरत की चीजों में पुस्तकों को सम्मिलित करके इन्हें आसानी से जुटाया जा सकता है। जहाँ हम अपनी प्रतिदिन आवश्यकता की वस्तुओं को रखते हैं वहीं पर पुस्तकों का कोना भी बनाया जा सकता है।
घर के सभी सदस्य नियमित रूप से पुस्तकों का अध्ययन करें। जिस प्रकार से हम अपने घरों में सामान्य विषयों पर चर्चा करते हैं उसी प्रकार पाठ्यपुस्तकों के बारे में भी परिवार के सदस्यों से बातचीत करें उस बातचीत में बच्चों को भी शामिल करें उनके अनुभवों को सुनें और महत्व दें। पढ़ने के दौरान जिस रोचकता और मनोरंजन की अनुभूति आपको हुई उसका जिक्र अवश्य करें।
विभिन्न प्रकार के सामुहिक आयोजन जिनमें लोग एक-दूसरे को तमाम प्रकार के उपहार भेंट करते हैं उनके स्थान पर पुस्तकों का आदान-प्रदान किया जाय ताकि किताबों का संग्रह अधिक से अधिक हो सके।
सार्वजनिक स्थलों यथा पंचायत घर, बारात धर या अन्य कोई भी सामुहिक जगहों पर पुस्तकालय स्थापित किया जाए। वहाँ पर लोग किसी न किसी काम के लिए एकत्रित होते रहते हैं यदि वहाँ पर पुस्तकालय होगा तो खाली समय में इसका उपयोग किया जा सकेगा। बच्चे इस प्रकार की गतिविधियों से पठन-पाठन की ओर अधिक रूचि लेंगे।
प्रत्येक विद्यालय चाहे वह किसी भी स्तर का हो, में अवश्य पुस्तकालय स्थापित किया जाए। पुस्तकालय में विभिन्न विधाओं से सम्बन्धित विविध पुस्तकें उपलब्ध हों। बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों द्वारा भी नियमित रूप से विविध पुस्तकों का अध्ययन किया जाए, पढ़ी पुस्तक पर चर्चा-परिचर्चा की जाए। बच्चों को घर के लिए पुस्तकों को दिए जाने की व्यवस्था की जाए। कक्षा-कक्ष से बाहर पाठ्यक्रम से इतर बच्चों की पसंदीदा पुस्तकें उनको पढ़ने को दी जाए। पढ़ी गई पुस्तकों पर चर्चा कराई जाए।
किसी भी प्रकार के पुरूस्कार वितरण में पुस्तकों को प्राथमिकता दी जाए।
समय-समय पर बच्चों को अच्छे पुस्तकालयों का भ्रमण कराया जाए।
समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों की ओर से समय-समय पर पुस्तक मेले आदि का आयोजन करते हुए विद्यालयों को पुस्तकों का वितरण करवाया जाए।
सरकार द्वारा विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए दी जाने वाली धनराशि का कुछ भाग पुस्तकों के क्रय हेतु दिया जाए।
शिक्षाविदों, साहित्यकारों व शिक्षा में विशेष रूचि रखने वालों को समय-समय पर विद्यालय आदि सार्वभौमिक स्थलों पर आमंत्रित कर बच्चों को उनसे रूबरू कराया जाय। वे अपने विद्यार्थी जीवन की बातें बच्चों के साथ साझा करें और पठन-पाठन को उन्होंने किस प्रकार अपने जीवन में आत्मसात किया इस पर अपने अनुभव उन्हें सुनाएं।
समाज में कई जागरूक लोग इस दिशा में सराहनीय कार्य कर रहे हैं। कई जनप्रतिधियों द्वारा समय-समय पर अपनी निधियों को प्रयोग पढ़ने-पढ़ाने की सामग्री तथा अपने क्षेत्र में पुस्तकालयों की स्थापना आदि के लिए किया जाता रहा है। इस मुहिम को सार्वभौम किए जाने की आवश्यकता है। यदि सभी लोग इस पर गम्भीरता से विचार करते हुए कार्य करेंगे तो इससे न केवल बच्चों के लिए पठन-पाठन सहज और रूचिपूर्ण होगा बल्कि समाज से भी समस्याओं का समाधान होगा। विधायक जी की यह मुहिम अवश्य रंग लाएगी ऐसा हमारा विश्वास है।