उर्मिलेश
हमारे देश में आज ‘संविधान दिवस’ मनाया जाता है क्योंकि सन् 1949 में 26 नवम्बर को ही संविधान सभा ने भारत के नये संविधान को अपनी मंजूरी दी. 26 जनवरी, 1950 को यह लागू किया गया. निस्संदेह, यह ऐतिहासिक दिन है पर आज हमारे देश में संविधान और संवैधानिकता की क्या स्थिति है?
26 नवम्बर, 1949 से ठीक एक दिन पहले, 25 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा में एक ऐतिहासिक भाषण हुआ था. संविधान का प्रारूप तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष बाबा साहेब डाक्टर बी आर अम्बेडकर ने उस दिन अपने भाषण में कुछ बहुत गंभीर सवाल उठाये थे.
अपने लंबे संबोधन में उस दिन उन्होंने स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के रिश्तों पर भी महत्वपूर्ण टिप्पणी की. भारत के निर्माणाधीन लोकतंत्र के संदर्भ में उन्होंने कहा, ‘हमे अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र का रूप भी देना चाहिए. सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ जीवन के उस मार्ग से है, जो स्वातंत्र्य, समता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में अभिज्ञापित करता है.—–स्वातंत्र्य को समता से अलग नहीं किया जा सकता—समता को स्वातंत्र्य और बंधुत्व से अलग नहीं किया जा सकता—-बंधुत्व के बिना स्वातंत्र्य और समता अपना स्वाभाविक मार्ग ग्रहण नहीं कर सकते.’
अपने इसी संबोधन में उन्होंने उस खतरे का भी उल्लेख किया कि भारत के लोकतंत्र को अगर निकट भविष्य में समावेशी, समतामूलक और बंधुत्व-आधारित नहीं बनाया गया तो राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा. बाबा साहेब डाक्टर बी आर अम्बेडकर के उपरोक्त विचारों की रोशनी में आज के परिदृश्य पर नज़र डालिये, तब समझ में आयेगा आज भारत, उसके संविधान और उसके लोकतंत्र की क्या स्थिति है?
हमारी राजनीतिक प्रणाली में संविधान एक महत्वपूर्ण किताब के रूप में अब भी दर्ज है. विधि और कानून के संचालन में उससे ही मार्गदर्शन लिये जाने की औपचारिकता निभाई जाती है. पर ‘राजनीतिक लोकतंत्र’ आज तक ‘सामाजिक लोकतंत्र’ में विकसित और विस्तारित नहीं किया जा सका. जिस स्थिति में उसे शुरू किया गया था, आज वह इतना बदशक्ल हुआ है कि अब पहचाना भी नहीं जाता. डेमोक्रेसी के वैश्विक सूचकांक में भारत की स्थिति लुढककर 53 वें स्थान पर जा चुकी है और इसे अब Flawed Democracy घोषित किया जा जा चुका है.
यह सब इसलिए हुआ कि भारतीय सत्ता के नये-पुराने संचालकों ने संविधान के मूल विचार और डा अम्बेडकर जैसे उसके निर्माताओं की चेतावनी को पूरी तरह नज़रंदाज़ किया. राजनीतिक लोकतंत्र के संचालकों ने समता, स्वातंत्र्य और बंधुत्व को इस तंत्र के ढांचे से बहिष्कृत कर दिया. बस ‘चुनाव’ रहने दिया. चुनाव जरूर होते हैं पर कुछ खूबसूरत अपवादों को छोड़कर आम जनता के बीच से आज कितने जेनुइन, साधारण और ईमानदार जन-कार्यकर्ता चुनाव लड़कर जीत सकते हैं? हमारे जनतंत्र को धनतंत्र ही निर्देशित कर रहा है. एक अजीब क़िस्म के ‘कारपोरेट-हिंदुत्व तंत्र’ ने राजनीतिक लोकतंत्र को बहुत योजनाबद्ध तरीक़े से हड़प सा लिया है.
मज़े की बात कि इस तंत्र के संचालक भी आज संविधान दिवस जोर-शोर से मना रहे हैं. संवैधानिक मूल्यों को रौंदने के इस क्रूर दौर में ‘संविधान दिवस’ मनाने का उनका अंदाज कम ‘निराला’ नहीं है. आइये, हम और आप ‘संविधान बचाओ दिवस’ मनायें!