चंद्र शेखर तिवारी
उत्तराखंड का एक बाजूबंद गीत जिसमें पहाड़ के काश्तकार पति पत्नी के खेती-पाती व पशुपालन के काम में एक-दूजे को परस्पर सहयोग करने की प्रबल भावना का सुंदरतम चित्रण हुआ है। उत्तराखंड की लोकसंस्कृति के प्रमुख अध्येता रहे डॉ.गोविंद चातक की पुस्तक “गढ़वाली लोकगीत विविधा”में संकलित लोकगीतों से यह गीत प्रस्तुत है।
“तू होली तलौ की माछी
मैं होलूं सरग को बादल
तू होली बण बाख़री
मैं होलूं नौ सुर बाँसुल
तू पिजाली चांदू भैंसी
मैं काटुल घास रौंसी
ऐगे बसगाल लगौ परोठि पीठि
खोल दे भैंसी पूज्याल रोट
मैं लौंलू भैंसी तू चल आग
ऊंची धारू मां में रई जागी”
(हिंदी भावार्थ : अर्थात तू तलाब की मछली बन जाना, मैं आकाश का बादल बनूंगा।तू जंगल की बकरी बन जाना , मैं नौ सुर की बांसुरी बनूंगा। तू ‘चांदू” भैंस का दूध दुहेगी, मैं घास काट लाऊँगा। बसगाल (चौमास) आने को है परोठि पीठ पर रख, मैं भैंसों को ले चलूंगा तू आगे चलेगी। भैंसों को खोल दो देवताओं को रोट-भेंट चढायेंगे। चल पहाड़ के धार के छानियों में रहने जाएंगे।)
पहाड़ के लोकगीतों का एक अन्य रूप बारहमासा भी है । पर्वतीय लोकगीतों में ऋतुओं का वर्णन अक्सर देखने को मिलता है। सामान्यतः बारहमासा को एक तरह ऋतुवर्णन का ही परिष्कृत और विकसित रूप माना जाता है। बारहमासा की अपनी खास भाव परम्परा होती है जिसमें प्रकृति के साथ ही मानव विशेषतः स्त्री मन की वेदनाओं की अभिव्यक्ति साफ तौर पर झलकती है।यहां के बारहमासा गीतों में ,सौंण-भादों का चित्रण इस तरह आया है।
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“मा पैलो बगसाल को आयो यो असाड़
मैं पापणि झुरि-झुरि मरुयु मास रयो नि हाड़”
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“मास आयो भादों को डान्डु कुरेड़ी लौंखि
तेरि खुद मा स्वामी जिकुड़ी मा बिजुलि चौंकी “
(हिंदी भावार्थ : चौमास का पहला माह। आषाड़ आया है, मैं पापिनि झुर झुर कर मरी ,शरीर पर मेरे न हाड़ रहा न मांस।
भादों का माह आया डानों कानों में बादल घुमड़ कर बरसे,हे पिया याद में तेरी मेरे कलेजे में बिजली सी कड़की)
चित्र सौजन्य : श्री अजय कन्याल