नवीन बिष्ट
विष्णु का देवाल उखाड़ा, ऊपर बंगला बना खरा,
महाराज का महल ढहाया, बेड़ीखाना वहां धरा ।
मल्ले महल उड़ाई नन्दा, बंगलों से वहां भरा,
अंग्र्रेजों ने अल्मोड़े का नक्शा और ही और करा।।
कुमाउनी के प्रथम कवि लोकरत्न गुमानी पन्त की इन पंक्तियों को आज लिखने को अनायास ही मन नहीं कर गया, बल्कि याद आ गया इतिहास में दर्ज 26 अप्रैल 1815 का वह दिन, जब ब्रितानी हुकूमत के शासकों की जोर-जबर्दस्ती से रामशिला मंदिर समूह को छोड़ कर चंद राजाओं का राजमहल, उनकी आराध्य ईष्ट देवी माँ नन्दा-सुनन्दा का मंदिर और विष्णु देवालय हटा दिये गये। विष्णु देवालय हटा कर ड्योड़ी पोखर पहँुचा दिया गया। मां नन्दा-सुनन्दा का मंदिर हटा कर, वर्तमान जगह पर स्थानान्तरित कर दिया गया। गुलामी का दौर था, विरोध हुआ, लेकिन हुआ वही जो अंग्रेज शासक चाहते थे। यह उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों ने तत्कालीन गोरखा शासकों को परास्त कर कचहरी पर कब्जा किया था। गोरखा शासकों ने भी अपने शासन काल में इस परिसर का उपयोग कचहरी के रूप में किया। उनकी राजधानी पल्टन बाजार थी, जहाँ आज सेना रहती है। इसे तब लालमण्डी कहा जाता था।
बहरहाल इन तमाम संदर्भो का जिक्र करने की इसलिए जरूरत आन पड़ी कि यह ऐतिहासिक परिसर एक बार फिर चर्चा में आ गया है। वर्तमान कचहरी या जिलाधिकारी कार्यालय चन्द राजाओं का राजमहल, किला और अंग्रेजों की राजशाही का प्रतीक रही ऐतिहासिक धरोहर को उसके मौलिक स्वरूप में विशेषज्ञों द्वारा निर्धारित मानकों के अनुरूप संवारने का काम किया जा रहा है, ऐसा जिला प्रशासन का दावा है। जबकि अपनी सांस्कृतिक-ऐतिहासिक विरासत के लिये बेहद संवेदनशील अल्मोड़ा की सांस्कृतिक नगरी के नागरिक जिला प्रशासन पर पुरातात्विक संपदा संरक्षण के नाम पर उसे खण्डित करने का आरोप लगा रहे हैं। उनका आरोप है कि संरक्षण का कार्य मानकों के अनुरूप नहीं हो रहा है। नागरिकों व प्रशासन के बीच तनातनी लगातार बढ़ रही है। नागरिकों को विश्वास में लेने के बजाय जिला प्रशासन ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज उन पर मुकदमा दर्ज कर रहा है। प्रशासन और आन्दोलनकारियों में घमासान की स्थिति इतनी आगे बढ़ गई है कि इस मामले से मुख्यमंत्री और पर्यटन मंत्री ही नहीं, देश के प्रधानमंत्री तक वाकिफ हो चुके हंै। गणमान्य नागरिकों में इस मामले को न्यायालय ले जाने की चर्चा भी चल रही है।
दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं। पुरातत्वविद् और एस.एस.जे. परिसर (कुमाऊँ विश्वविद्यालय) के इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो. विद्याधर सिंह नेगी कहते हैं कि 500 साल से अधिक पुरानी धरोहर के संरक्षण में विशेषज्ञों का सहयोग लिया ही जाना चाहिए था। 1488 में बना यह स्मारक मंदिर समूह पुरातात्विक व ऐतिहासिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। इसे बचाने का हर संभव जतन होना चाहिए। इस धरोहर का पुरातत्विक स्वरूप जैसा है, वह वैसा ही बना रहना चाहिये। स्मारक को बचाने के लिये उसे लील रहे पीपल के पेड़ को काटना ही पड़ेगा। जब मंदिर ही न बचा तो संरक्षण किसका होगा ? मंदिर के दीवारों की पुरातत्व के रसायनविद्ों और रसायनशास्त्रियों की देखरेख में रासायनिक धुलाई या सफाई होनी चाहिए। अजन्ता-एलोरा के चित्रों का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि विशेषज्ञों की देखरेख के कारण ही वे आज भी अपने मूल स्वरूप में हैं। अन्यथा सब विद्रूपित हो गए होते। इस बात का यहां भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
अल्मोड़ा नगरपालिका के अध्यक्ष प्रकाश चन्द्र जोशी का आरोप है कि जिला प्रशासन मल्ला महल के ऐतिहासिक स्वरूप को बरकरार रखने के नाम पर इसे विकृत कर रहा है। इतना महत्वपूर्ण कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली की देखरेख में होना चाहिए था। लेकिन इस विभाग को इस मामले की कोई जानकारी तक नहीं दी गई है। पुरातात्विक महत्व के स्मारकों की मरम्मत या खुदाई, घिसाई के लिए कुशल पेशेवर कारीगरों से काम कराने का नियम है। यहा पर सामान्य अकुशल मजदूरों से ऐसे काम करवाये जा रहे हैं। हमारा आन्दोलन अपनी सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए है। हमारी मांग है कि इन धरोहरों का मौलिक स्वरूप बरकरार रहे, वह खंडित न हो। हम सभी चाहते हैं कि हमारी धरोहर संरक्षित रहे, उसकी बेहतर देखभाल हो, पर्यटन को बढ़ावा मिले, रोजगार के अवसर विकसित हों, लेकिन इसके लिये इन ऐतिहासिक धरोहरों के मौलिक स्वरूप को विकृत करने को हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। उन्होंने बतलाया कि इस पूरे मामले की उच्चस्तरीय जांच की मांग को लेकर देश के प्रधानमंत्री, प्रदेश के मुख्यमंत्री व पर्यटनमंत्री को ज्ञापन प्रेषित किये गये हंै।
वरिष्ठ आन्दोलनकारी और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के केन्द्रीय अध्यक्ष पी.सी. तिवारी का कहना है कि ऐतिहासिक धरोहरें यह किसी व्यक्ति, राजनीतिक दल या सरकार की नहीं होतीं, ये समाज की होती हैं। इन्हें बचा कर रखना समाज का कर्तव्य है, क्योंकि ये हमारे विकास को बताती हैं। मल्ला महल या सन् 1588 में राजा रूद्रचंद द्वारा बनाया गया रामशिला मंदिर पूरी तरह स्मारक की श्रेणी में आता है और कुमाऊँ की ऐतिहासिक धरोहर है। यहाँ बगैर किसी को विश्वास में लिए जुलाई 2020 से काम काम शुरू कर दिया गया। अकुशल मजदूरों द्वारा इस धरोहर की पपड़ी उतारी जा रही है। अंदर खुदाई की जा रही है, पत्थर बदले जा रहे हैं। प्रस्तर पर उत्कीर्ण कला को सफाई-घिसाई के नाम पर नष्ट कर दिया गया है। रामशिला मंदिर की नींव को कमजोर कर रहे पीपल के पेड़ को न काटने के लिये प्रशासन यह बेबुनियाद तर्क दे रहा है कि जनता पीपल का पेड़ काटने का विरोध करेगी। जबकि जनता अवैज्ञानिक ढंग से किये जा रहे इस तथाकथित संरक्षण का विरोध कर रही है। उस ओर प्रशासन ध्यान भी नहीं दे रहा है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से अनुमति लिए बिना ही नियमविरुद्ध ऐतिहासिक धरोहरों से छेड़छाड़ की जा रही है। हम इस मनमानी का विरोध कर रहे हैं तो प्रशासन दमन पर उतर आया है। पी.सी. तिवारी ने शक जाहिर किया कि यहां की पुरातात्विक संपदा को अन्यत्र ले जाने की कोशिश की जा रही है। यही नहीं, यहाँ पर एक समृद्ध संग्रहालय है, जिसका गुपचुप तौर पर ट्रस्ट बना दिया गया है। यह मामला भी प्रकाश में आना चाहिए। इस पूरे मामले की उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिये।
पहले जिम्मेदार सरकारी कर्मचारी और फिर अधिवक्ता के रूप में इस कचहरी परिसर के एक-एक कोने से वाकिफ प्रफुल्ल पंत मेजर जनरल निगोजी ओडेयट की पुस्तक ‘रेजिडेन्टल हिस्ट्री आॅफ द थर्ड क्वीन एलेक्जेन्डर आॅन गोरखा राइफल्स’ जिक्र करते हुए कहते हैं कि 1563 व 1570 बीच राजा कल्याण चंद ने मल्ला महल का निर्माण कराया था। तल्ला महल, जो वर्तमान में जिला एवं महिला चिकित्सालय है, में ड्योड़ी पोखर में अन्तिम चन्द राजा आनन्द सिंह चंद रहते थे। मल्ला महल में अंतिम राजा नहीं रहे। मल्ला महल जिस परिसर में है, वह जमीन राज्य सरकार के नाम पर ‘कैसर ए हिन्द’ श्रेणी में दर्ज है। यह जमीन चंद राजाओं के नाम पर नहीं है। कचहरी परिसर में वर्तमान में रामशिला मंदिर के अतिरिक्त चंद राजाओं की अब कोई धरोहर नहीं बची। 26 अप्रैल 1815 को कर्नल निकोलस ने ब्रिटिश फौज को लेकर तत्कालीन गोरखा शासकों को परास्त कर कचहरी पर कब्जा कर लिया था। उस दौरान जो कुछ हुआ, उसे लोक कवि गुमानी पंत ने अपनी कविता के जरिए बखूबी कह ही दिया है। उसके बाद इस परिसर में जो भी भवन बने, सब यूरोपियन स्थापत्य कला के अनुरूप बने। इस परिसर को पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया जाना अच्छा प्रयास है, मगर इस संबंध में जो भी कार्य किए जायें उनमें जनता को विश्वास में तो लिया जाना ही चाहिये। प्रशासन व आंदोलनकारियों के बीच बातचीत ही इस ऐतिहासिक धरोहर को बचा सकती है। परन्तु इस बातचीत की पहल प्रशासन को ही करनी होगी।
जिलाधिकारी, अल्मोड़ा सफाई देते हैं कि जिला प्रशासन पर लगाए जा रहे आरोपों का कोई आधार नहीं है, क्योंकि इस परियोजना में जिला प्रशासन की कोई भूमिका नहीं है। सारा काम ‘उत्तराखण्ड टूरिज्म डेवलपमेंट प्रोजेक्ट’ के तहत सरकार के निर्देशों के अनुसार किया जा रहा है। हमने तो केवल स्थान उपलब्ध कराया है। जिलाधिकारी का ये बयान पूरे प्रकरण से जिला प्रशासन को अलग करने की कोशिश तो है ही, साथ ही पूरे प्रकरण को अंजाम तक न पहुंचने देने की मंशा भी इसके अन्दर छिपी प्रतीत होती है।
लगता है कि मल्ला महल मामले को सुलझाने के लिये अल्मोड़ा की जनता को अभी और जूझना पड़ेगा।