कमलेश जोशी
छुआ-छूत को लेकर नैनीताल जिले के ओखलकांडा ब्लॉक में घटित घटना के बारे में सुनकर 90 के दशक का एक वाकया याद आ रहा है. उत्तराखंड (तब के उत्तर प्रदेश) के एक छोटे से गॉंव में विश्वम्भर दत्त और मोहन राम नाम के दो बुजुर्ग रहते थे. दोनों की दोस्ती के चर्चे दूर गॉंवों तक मशहूर थे. उनका साथ-साथ उठना बैठना, जानवरों के ग्वाला जाना, बीड़ी-चिलम पीना और ढेर सारी गप्पें मारना देखकर कोई नहीं कह सकता था कि विश्वम्भर दत्त ब्राह्मण और मोहन राम दलित है. लेकिन उच्च वर्ग में जिन लोगों को इस बारे में पता भी था तो वो मोहन राम को एक अच्छा और सुलझा हुआ इंसान जानते हुए भी हमेशा डोम (दलित) की नजर से ही देखते थे. मोहन राम इस कदर मृदुभाषी और व्यवहार कुशल आदमी थे कि किसी को भी उनसे प्रेम हो जाए.
गॉंव में वह बच्चों के चहेते थे. जेब में टॉफियॉं लेकर घूमा करते थे. गॉंव के छोटे-छोटे बच्चे मोहन राम को देखते ही बूबू-बूबू करते हुए दौड़ पड़ते. मोहन राम सब बच्चों को प्यार से टॉफियॉं बॉंटते और उनके हाल-चाल के साथ ही उनकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछते रहते. कुछ उच्च कुलीन ब्राह्मणों को मोहन राम का इस कदर बच्चों के साथ घुलना-मिलना और टॉफियॉं बाँटना बिल्कुल पसंद नहीं था. उनकी अपने बच्चों को सख्त हिदायत थी कि मोहन राम के आस पास भी नजर आए या उनके हाथ का दिया कुछ भी खाया तो टॉंगें तोड़ देंगे. इसी डर से कुछ बच्चे मोहन राम को बस दूर से ही उम्मीद भरी नजरों से निहारते रहते थे. एक दो बार मोहन राम ने उन बच्चों को जबरदस्ती टॉफियॉं पकड़ा भी दी लेकिन बाद में उनके घरवालों की करतूतों के बारे में सुनकर उन्होंने उन बच्चों को इस तरह जबरदस्ती टॉफी खिलाना छोड़ दिया.
मोहन राम की पूरे गॉंव में हर परिवार से दुआ-सलाम थी. एक इंसान के तौर पर मोहन राम से शायद ही कोई नफरत करता था लेकिन जब बात उनकी जाति की आती तो अधिकांश लोग अपनी नाक-भौंह सिकोड़ने लगते थे. कुछ लोग तो यहॉं तक भी कहते थे कि देखो यार अगर ये मोहन राम उच्च कुल में पैदा हुआ होता तो सच में बड़ा आदमी होता. इसकी व्यवहार कुशलता और मृदुभाषिता के ऊपर कौन ऐसा होगा जो न्यौछावर न हो जाए. लेकिन हाए रे! किस्मत बेचारे को नीची जाति में जीने की जिल्लत झेलनी पड़ रही है. इस तरह की हजारों बातें मोहन राम को लेकर गॉंव में हुआ करती थी. जातिगत मतभेदों को भुलाकर मोहन राम हमेशा मुस्कुराते हुए ही नजर आते थे. यह मुस्कुराहट उस दिन दोगुनी हो गई जब मोहन राम का बड़ा बेटा और विश्वम्भर दत्त का छोटा बेटा भारतीय सेना में भर्ती हो गए. उस दिन के बाद से दोनों की दोस्ती और गहरी हो गई.
मोहन राम का विश्वम्भर दत्त के घर आना जाना लगा रहता था. दाज्यू-दाज्यू करते हुए मोहन राम कभी बीड़ी पीने तो कभी गप्प लड़ाने विश्वम्भर दत्त के घर पहुँच ही जाते थे. विश्वम्भर दत्त की पत्नी कौशल्या थोड़ा सख्त व पुराने खयालात की थी. हालाँकि विश्वम्भर उस समय के हिसाब से काफी लिबरल जान पड़ते थे लेकिन पत्नी के आगे उनकी एक न चलती थी. कौशल्या को वैसे तो मोहन राम से कोई समस्या नहीं थी लेकिन जब बात जाति और खानपान की आती थी तो वह बिल्कुल रूढ़िवादी विचारों की समर्थक जान पड़ती थी और दलितों से छुआ-छूत का पूरा ध्यान रखती थी. इस सब पर सैकड़ों सवालों के साथ मासूम नजर रहती थी विश्वम्भर दत्त के 12 साल के पोते भुवन की.
समाज के सड़े गले नियमों को अपनी आदत बना चुके मोहन राम जैसे ही किसी ऊँची जाति वाले के घर जाते सबसे पहले दूरी बनाकर जमीन में आसन जमा लेते. यही काम वह विश्वम्भर दत्त के घर में भी करते. ये सब देख एक दिन भुवन ने पूछ ही लिया बूबू आप जब भी आते हो दूर जमीन में क्यों बैठते हो? हमारे साथ पटखाट (तखत) में क्यों नहीं बैठते? बच्चे की जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश में मोहन राम जोर से हँसे और बात घुमाते हुए बोले अरे यार नाती जो मजा जमीन में बैठने का है वो पटखाट में कहॉं से आएगा? इस जवाब से भुवन को संतुष्टि नहीं हुई और उसके बाल मन ने फिर एक सवाल दाग दिया-बूबू आपके आने पर मैं जब भी आपके पैर छूने के लिए आता हूँ तब आमा ये क्यों कहती है कि दूर से ही नमस्कार किया कर, पास मत जाया कर? अभी इस सवाल का जवाब आना बाकी था कि कौशल्या ने डॉंटते हुए भुवन को अंदर जाने के लिए आवाज लगाई. भुवन चुपचाप अंदर चला गया. कौशल्या बड़बड़ाती हुई बोली-छोटा ही तो ठैरा कुछ भी बकबक करनी हुई बस. अरे ये क्या जाने समाज के नियम-कानून. जैसा चला आ रहा है वैसा मानना ठैरा तब. न मानो तो क्या पता क्या अनहोनी हो जाए? कौन सा देवता बिगड़ जाए?
छोटे से भुवन के दिमाग में हर दिन ऐसे सैकड़ों सवाल कौंधते रहते थे. एक दिन विश्वम्भर दत्त और भुवन ऑंगन में बैठे रेडियो सुन रहे थे तभी दूर से दाज्यू प्रणाम की आवाज आई. नजरें उठाकर देखा तो मोहन राम ऑंगन के कोने में आसन जमाए बैठे थे. भुवन ने कौशल्या के कहे अनुसार दूर से ही प्रणाम किया. विश्वम्भर दत्त ने मोहन राम के हाल-चाल पूछे और कौशल्या को चाय बनाने के लिए आवाज लगाई. थोड़ी देर में कौशल्या एक स्टील के गिलास और एक चीनी मिट्टी के कप में चाय लेकर आई. विश्वम्भर दत्त को चाय का गिलास पकड़ाने के बाद कौशल्या ने कप का प्याला मोहन राम की तरफ सरका दिया. मोहन राम ने सोचा इससे पहले कि भुवन अपने मासूम सवालों की बौछार करे तुरंत कप उठा लेना चाहिए. जैसे ही उन्होंने कप उठाया भुवन बोल पड़ा-अरे! इन बूबू को तो स्टील के गिलास में चाय मिली फिर आपको कप में क्यों? और चाय आपके पास आकर आपके हाथ में क्यों नहीं दी? मोहन राम ने हड़बड़ाते हुए बात घुमाने की कोशिश की और बोले-अरे नाती आमा को अंदर जरूरी काम होगा ना तभी दूर ही कप रख कर चली गई और मुझे ये स्टील के गिलास में चाय पीना अच्छा नहीं लगता यार बहुत देर में ठंडी होती है इसमें चाय इसलिए कप में ही पीता हूँ.
गपशप मारने के बाद जाने से पहले जैसे ही मोहन राम नल में जाकर अपना कप धोने लगे भुवन ने तपाक से फिर एक सवाल दाग दिया-अरे! बूबू आप अपना कप क्यों धो रहे हो? आमा धो लेगी. आप वहीं नल में रख दो. मोहन राम ने फिर बात टालते हुए कहा-एक कप के लिए आमा को क्यों परेशान करना यार नाती. वैसे भी अपने जूठे बर्तन खुद ही धोने चाहिये. इतना कहकर मोहन राम ने कप पटखाट के नीचे रखा और विश्वम्भर दत्त से विदा ली. मोहन राम के जाने के बाद कौशल्या ने कप उठाया और कमरे में रखे कुछ अलग बर्तनों के बीच रख दिया. भुवन यह सब गौर से देख रहा था. उसने पूछा-आमा ये बर्तन अलग से क्यों रखे हैं? रसोई के बर्तनों के साथ क्यों नहीं रखे? कौशल्या बोली-ये बर्तन खास मेहमानों के लिए हैं. भुवन को कुछ समझ नहीं आया और वह अपने खेलने में मस्त हो गया.
अगले कुछ समय तक भुवन ने देखा कि जब भी मोहन राम बूबू आते हैं तो उन्हें उन्हीं बर्तनों में चाय पानी और खाना परोसा जाता है जो खास मेहमानों के लिए हैं. ऊपर से हर बार बूबू अपने बर्तन भी खुद ही धुलकर जाते हैं. ऐसे अनगिनत सवाल भुवन के दिमाग में चलते रहते जिनका जवाब देने वाला कोई नहीं था. एक दिन भुवन, मोहन राम के साथ उनके घर जाने की जिद्द करने लगा. कौशल्या ने बहुत समझाया लेकिन वो नहीं माना. अंत में थक हारकर विश्वम्भर दत्त उसे अपने साथ मोहन राम के घर ले जाने को राजी हो गए. कौशल्या, विश्वम्भर दत्त को एक कोने में ले जाकर बोली-ध्यान रहे वहॉं कुछ खाना मत और न भुवन को खाने देना. मोहन राम के घर वाले भुवन और विश्वम्भर दत्त को देखकर बहुत खुश हुए. मोहन राम के छोटे से कुत्ते के साथ खेलने के बाद भुवन भागता हुआ मोहन राम के पास आया और बोला-बूबू-बूबू भूख लगी है कुछ खाने को दो ना. इतना सुनते ही परिवार के सब लोग विश्वम्भर दत्त का मुँह ताकने लगे. विश्वम्भर दत्त बोले-नाती चल घर चलते हैं वहॉं तेरी आमा ने तेरा खाना रखा हुआ है. लेकिन भुवन ने जिद्द पकड़ ली कि वह मोहन राम बूबू के यहॉं ही खाएगा.
बच्चे की जिद्द और समाज के सड़े नियमों के बीच फँसे मोहन राम को आखिर झूठ बोलना पड़ा कि नाती खाना तो अभी बना ही नहीं है. तू एक काम कर सामने बगीचे में आम लगे हैं अपने बूबू के साथ जा और जितने आम खाने हैं पेट भर के खा. मोहन राम के घर पहुँचते ही रसोई से कुकर की सीटी की आवाज सुन चुके भुवन के मन में फिर सवाल उमड़ा कि आखिर बूबू ने झूठ क्यों बोला होगा? आम खाकर वह विश्वम्भर दत्त के साथ घर आ गया. इस तरह सवालों और उनके अधकचरे जवाबों का सिलसिला कई साल तक चलता रहा. फिर एक रोज भुवन आगे की पढ़ाई करने शहर चला गया. अपनी उच्च शिक्षा के दौरान उसने समाज में फैली इस जाति प्रथा और छुआ-छूत के बारे में विस्तार से पढ़ा और वह उन तमाम कढ़ियों से खुद को जोड़ता चला गया जो बचपन में मोहन राम बूबू के साथ घटित हुई थी. अब उसे खुद पर और समाज के उन सड़े गले नियमों पर घिन आने लगी थी जिनकी वजह से मोहन राम जैसा देवता आदमी हमेशा तुच्छ समझा जाता रहा.
पढ़ाई पूरी करने के बाद गॉंव आते ही भुवन सबसे पहले माफी माँगने मोहन राम के घर गया. जैसे ही घर पहुँचा तो पता चला कि मोहन राम को गुजरे एक साल हो गया है. भुवन का दिल बैठ गया. वह अपना माथा पकड़ कर खूब देर तक रोया और रोते-रोते बोला- क्यों बूबू? आखिर क्यों आपने कभी इन सड़े-गले जातिवादी और छुआ-छूत के नियमों का विरोध नहीं किया? आखिर किस मिट्टी के बने थे आप जो अपमान के इन कड़वे घूँटों को हँस-हँस कर पी गए. मैं आज आपसे उन तमाम गुनाहों की माफी माँगने आया था लेकिन आप इस दुनिया में नहीं रहे इसलिए आपको एक वचन देकर जाता हूँ कि ज़िंदगी भर समाज के बनाए इन जातिवादी, छुआ-छूत के नियमों से दूर रहूँगा. हमेशा दलितों, शोषितों और पिछड़ों के अधिकारों की पैरवी करूँगा और इस छुआ-छूत को खत्म करने के लिए ताउम्र लड़ता रहूँगा.
ये तो बात थी 90 के दशक की. आज लोग कहते हैं कि समय बदल गया है. अब समाज में जात-पात, ऊँच-नीच, छुआ-छूत लगभग खत्म हो गया है. लेकिन जब भी ओखलकांडा जैसी कोई खबर हमारे सामने आती है तब समझ आता है कि जातिवाद और छुआ-छूत की जड़ें आज भी समाज में कितनी गहरी धंसी हुई हैं.
(नोट: उपरोक्त वाकये में समस्त पात्रों के नाम परिवर्तित हैं)