डाॅ. अरुण कुकसाल
यह जांचा-परखा सर्वमान्य तथ्य है कि अध्ययन और यात्राओं से आदमी की जीवन दृष्टि और दिशा परिपक्वता की ओर उन्मुख होती है। उस व्यक्ति का बदलता हुआ व्यक्तित्व समाजोन्मुखी होने लगता है। सामाजिक चिन्तक और साहित्यकार कपिलेश भोज की नवीन पुस्तक ‘जननायक डाॅ. शमशेर सिंह बिष्ट’ में उल्लेखित दो दृष्टांत इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं।
‘….यों ही मायूसी-भरे नीरस दिन गुजर रहे थे कि मुहल्ले में ‘कुन्दन लाल साह मेमोरियल वाचनालय’ बालक शमशेर की जिंदगी के दिशाहीन अंधेरे में उजाले की एक किरन की तरह प्रविष्ट हुआ।…..वे नियमित रूप से पुस्तकालय जाकर पत्रिकाएं एवं पुस्तकें पढ़ने लगे। इस निरंतर अध्ययन ने उन्हें तमाम तरह की निराशाओं और विपरीत परिस्थितियों से उबरने और भीतर से मजबूती प्रदान करने में निर्णायक भूमिका निभाई।’ (पृष्ठ-11 एवं 12)
‘उत्तराखंड के बारे में पहले तक हम युवकों के मन में दूसरा ही दृष्टिकोण था। किंतु इस यात्रा के बाद वह मिट गया। एक नए दृष्टिकोण ने जन्म लिया…पैसा साथ में न रखने का निश्चय हुआ था, ताकि ग्रामीण-जीवन और जन से अधिक जुड़ पाएं। भोजन जिस गांव में गए वहीं किया। हर ग्रामवासी से एक रोटी देने का निवेदन था। वास्तव में, यह उनके लिए सभा में आने का निमंत्रण भी था।…शुरू से ही यह स्पष्ट था कि हम सीखने जा रहे हैं। कहने और बताने भी हम जा रहे थे पर यह सीखने के मुकाबले बहुत कम था।…1974 में अस्कोट से आराकोट की 45 दिन की पद-यात्रा ने पहाड़ में बने रहने का मन बना दिया। इसीलिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छोड़कर मैं पहाड़ लौट आया।’ (पृष्ठ-22 एवं 23)
अस्कोट (पिथौरागढ़) से 25 मई, 1974 को कुमाऊं-गढ़वाल के जन-जीवन को जानने और समझने के मकसद से पैदल निकले चार युवा यथा- शमशेर बिष्ट, शेखर पाठक, कुवंर प्रसून और प्रताप शिखर जब 45 दिनों में 800 किमी. की यात्रा के बाद आराकोट (उत्तरकाशी) पहुंचे, तो तब तक केवल तारीखें ही नहीं बदली थी वरन इन युवाओं का भविष्य के जीवन का कर्म-पथ भी बदल चुका था। ‘अस्कोट-अराकोट यात्रा’ (1974) के उपरान्त ये युवा शरीर से थके जरूर थे, लेकिन अपने भविष्य की नई राह मिलने से उनके मन-मस्तिष्क तरो-ताजा महसूस कर रहे थे।
मित्र, कपिलेश भोज ने इस पुस्तक में शमशेर दा के बहाने उत्तराखंड के विगत 50 सालों (आधी शताब्दी) के समय-अतंराल को कुरेद कर उसकी नब्ज पर हाथ रखा है। शमशेर दा के जीवन के उतार-चढ़ावों को पढ़ते हुए पाठक का उत्तराखंड में 70 के दशक के युवाओं की मनःस्थिति से सामना होता है। सामाजिक चेतना के सर्वोदयी खोल से बाहर निकलता हुआ तबका पहाड़ी युवा उत्तराखंड के जल-जंगल और जमीन के मुद्दों पर मुखर हो रहा था। गांधी, मार्क्स, बिनोवा, लोहिया और जेपी की विचारधारा को अपने जीवनीय आचरण में लाने को वह उत्सुक था। वह आदर्शों की गठरी को अपने में लाद नहीं रहा था वरन उसे व्यवहार में लाने की कोशिश में भी संजीदा था।
‘…हमने तय किया कि चुनाव में बिल्कुल भी पैसा खर्च नहीं करना है। ‘अध्यक्ष पद का प्रत्याशी शमशेर सिंह बिष्ट’ वाली डेढ़ रुपये की मोहर लगे रफ कागज ही हमारी चुनाव की प्रसार-सामाग्री थी।..मुझे बहुत अच्छे वोटों से प्रतिनिधित्व मिला। उससे मेरी जिंदगी बदल गई। दादागिरी बन्द हो गई। लोगों ने भी समझाया कि यार ! अब तुम जिम्मेदार आदमी हो। ये सब नहीं होना चाहिए। सब छूट गया, जीवन में यह एक नया बदलाव आया।’ (पृष्ठ-15)
‘मुझे इस बात पर गर्व है कि जे.एन.यू. के अनुभव ने मुझे धर्म, जाति और क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर एक मानवीय दृष्टिकोण से चीजों को देखने-समझने की क्षमता दी।…अगर मैं जे.एन.यू. में न गया होता तो निश्चित रूप से किसी राष्ट्रीय दल के नेता का पिछलग्गू बन गया होता।’ (पृष्ठ-19 एवं 20)
यह पुस्तक डाॅ. शमशेर बिष्ट के सामाजिक जीवन के अनुभवों को जग-जाहिर करके देश-समाज की हालातों के करीब हमें ले जाती है। जरा गौर फरमायें, ‘…सन् 1974 में उत्तराखंड के अस्कोट से आराकोट (उत्तराखंड के एक कोने से दूसरे कोने) तक की पैदल यात्रा करते हुए, जब मैं अपने साथियों के साथ कुमाऊं के सुदूर 7000 फीट तक की ऊंचाई पर स्थित बल्दियाकोट गांव में पहुंचा, तब वहां एक ग्रामीण से यह पूछने पर कि ‘तुम्हारा एम.एल.ए. कौन है,’ उस ग्रामीण का सहज उत्तर था कि ‘यहां एम.एल.ए. नहीं होता है।’ जैसे एम.एल.ए. जानवर या फसल हो। ऐसे ही ग्रामीण सर्वेक्षण के दौरान मैंने जब कुछ प्रश्न पूछने की इच्छा से बागेश्वर तहसील के ग्राम मदकोट के ग्रामवासियों से सम्पर्क किया, उस समय वार्ता के दौरान एक वृद्ध ग्रामवासी ने सहज भाव से कहा, ‘यो कुकुरीच्याल फिर ए गई (ये कुत्ते के बच्चे फिर आ गए हैं।)। तब मुझे स्थिति को स्पष्ट करते हुए एक साथी ग्रामवासी ने बताया कि असल में यह आपको विकास-विभाग का कार्यकर्ता समझ रहा है।’ (पृष्ठ-146)
डाॅ. शमशेर बिष्ट उत्तराखंड में विगत आधी शताब्दी के राजनैतिक-सामाजिक आन्दोलनों के अग्रणी व्यक्तित्व रहे हैं। ‘पर्वतीय युवा मोर्चा’ से शुरू हुआ उनका सार्वजनिक सफर ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’, ‘उत्तराखंड जन-संघर्ष वाहिनी’ और ‘उत्तराखंड लोक वाहिनी’ तक पहुंचा। इन संगठनों को नेतृत्व देते हुए ‘वन आन्दोलन’, ‘नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन’ और ‘उत्तराखंड पृथक राज्य आन्दोलन’ में वे प्रमुख भागीदार थे। एक प्रतिष्ठित और सृजनशील पत्रकार के बतौर ‘जंगल के दावेदार’ से लेकर ‘जनसत्ता’ तक उनका सार्थक लेखन निर्बाध चलता रहा। समाज में सामाजिक-राजनैतिक चेतना बढ़े, इसके लिए सन् 1976 में ‘चेतना प्रिट्रिंग प्रेस’ अल्मोड़ा की शुरुवात उन्होने की थी। इसका उद्धघाटन तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने किया था। संघर्ष वाहिनी का मुख्य पत्र ‘जंगल के दावेदार’ यहीं से प्रकाशित होता था। सन् 1984 को ‘अल्मोड़ा किताब घर’ के माध्यम से उन्होने पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति की ओर पहल की थी। आज भी ‘अल्मोड़ा किताब घर’ के कागजी लिफाफे पर जनसत्ता के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी का यह संदेश कि ‘किताब का छपा हुआ शब्द मनुष्य की कल्पना को जिस तरह मुक्त करता है, वैसा कोई साधन मनुष्य आज तक ढूंढ़ नहीं पाया है।’ और गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ का यह जनगीत ‘ततुक नी लगा उदेख, घुनन मुनइ नि टेक, जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।’ छपा होता है। मंशा ये है कि ग्राहक किताब के साथ एक विचार भी साथ लेकर जाये। सामाजिक जीवन और आन्दोलनों में उनकी अति व्यस्तता जीवन भर रही। इस कारण वे अपनी शारीरिक परेशानियों पर घ्यान नहीं दे पाते थे। नतीजन, मधुमेह और उच्च-रक्तचाप के कष्ट उनको रहे।
वे चुनावी राजनीति में भी आये। उन्होने पहली बार 1991 में जनता दल के प्रत्याशी के रूप में अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ सीट से सांसद तथा 2007 में ‘उत्तराखंड लोक वाहिनी’ और ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ के संयुक्त प्रत्याशी बतौर अल्मोड़ा से विधायक का चुनाव लड़ा। जनता में अच्छी पकड़ के बाद भी उन्हें दोनों बार आशा के अनुकूल वोट नहीं मिले। यह सामान्य प्रवृत्ति है कि सामाजिक आन्दोलनों के अग्रणी राजनैतिक सत्ता को प्राप्त करने में कामयाब नहीं हो पाते हैं। यह जनता की नासमझी और सत्ता की चालबाजी का सम्मलित कुप्रभाव का नतीज़ा है।
डाॅ. शमशेर बिष्ट का व्यक्तित्व सर्वप्रिय था। उनके वैचारिक आलोचक भी उनके प्रति सम्मान और मित्रता का भाव रखते थे। इसके बावजूद भी सत्ताधारियों से उन्होने हमेशा दूरी बनाई रखी। उनका दृढ़मत था कि आन्दोलनकारी और सामाजिक कार्यकर्ताओं को सत्ता के प्रलोभन और आर्कषण से बचना चाहिए। उत्तराखंड राज्य की घोषणा की पूर्व संध्या पर अखिल गढ़वाल सभा, देहरादून ने उन्हें सम्मान देना चाहा तो उन्होने राजनेता बची सिंह रावत के हाथों से सम्मान लेने से मना कर दिया था। उनका मानना था कि नया राज्य जनता की भावनाओं और परिकल्पनाओं के अनुरूप आकार नहीं ले रहा है। ऐसे समय में एक आंदोलनकारी सत्ताघारी से सम्मानित होता है, तो वह आन्दोलन के मूल विचार की अवहेलना और आंदोलनकारियों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का काम करता है। पहाड़ के आन्दोलनों के कमजोर होने का एक बड़ा कारण वह यही मानते थे।
किताब में शमशेरदा के व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन के कई अनुछुये पहलुओं को कपिलेश भोज ने अंकित किया है। किशोरावस्था से ही रेडियो में बी.बी.सी. के कार्यक्रमों को सुनने, अन्याय के विरुद्व लड़ने, विभिन्न पत्रिकाओं-किताबों को पढ़ने और निरंतर अध्ययन यात्रायें करना उनको पसंद था। दूध-जलेबी और समोसा के शौकीन शमशेरदा की शादी 28 फरवरी, 1979 को आर्यसमाज, अल्मोड़ा में हुई। शादी की प्रारंभिक बातचीत को गिर्दा ने रोचक तरीके से आदरणीया भाभीजी रेवती (चंद) के परिवारजनों के सम्मुख रखी। (इस प्रसंग में मुझे तो गिर्दा ‘शोले’ के ‘अभिताभ’ नज़र आये।) ‘…गिर्दा से मेरे बारे में पूछा गया तो उन्होने कहा कि उसका तो हमेशा एक पांव जेल में व एक पांव बाहर रहता है, इसलिए फैसला सोच-समझकर लिया जाए। गिर्दा की इस बेबाक टिप्पणी से ससुराल वाले प्रभावित हों न हों, लेकिन रेवती प्रभावित हो गई। उसने तय कर लिया कि विवाह करना है तो यहीं। क्योंकि जिसके साथी इतने स्पष्ट हैं, वे लोग जीवन में भी ठीक होंगे। गिर्दा की स्पष्टवादिता का लाभ मुझे मिला।…जब मेरे रेवती के साथ फेरे हुए तो खीलें देने की परम्परा गिर्दा और जगत ने निभाई।…रेवती का कोई सगा भाई नहीं था लेकिन गिर्दा से सगे भाई से अधिक प्यार जो रेवती को मिला, इससे उसे अपने सगे भाई न होने का मलाल कभी नहीं रहा।’ (पृष्ठ-51)
यह किताब तब बेहद भावुक हो जाती है जब अपने हिस्से के ‘शेर दिल शमशेर’ के बारे में मित्रगण बता रहे होते हैं। शमशेरदा उनके लिए मित्र, अभिभावक, मार्गदर्शी सभी कुछ थे। वे शमशेरदा को अपने गांव की सरहद पर चुपचाप खड़े उस पीपल के वृक्ष की तरह याद करते हैं, जिसकी छाया में उन्होने जीने की वो कठिन राह चुनी जो सामाजिक दायित्वशीलता से ओत-प्रोत थी। शमशेरदा का साथ छूट गया पर वो उनकी यादों में हमेशा रहेंगे। उन्हें उनसे अथाह प्यार जो था। किताब मेें शेखर पाठक, जगत रौतेला, पी.सी. तिवारी, जंग बहादुर थापा, राजकुमारी पांगती, नवीन बिष्ट, महेन्द्र लाल कनौजिया, प्रेम सिंह खोलिया, खड़क सिंह खनी, पूरन चंद तिवारी, अरुण कुकसाल, दीवान नगरकोटी, स्वप्निल श्रीवास्तव, त्रेपन सिंह चौहान, चारु तिवारी, बंसती पाठक, चन्दन घुघत्याल, योगेश धस्माना, केशव भट्ट, हरीश रावत, अपूर्व जोशी, प्रेम पुनेठा, कमल जोशी, विनोद पांडे, रेवती बिष्ट, आनंद स्वरूप वर्मा, पुष्पेश पंत, गोविंद पंत ‘राजू’, नवीन जोशी, दयाकृष्ण कांडपाल, भास्कर उप्रेती, सुशीला धपोला, चंद्रेक बिष्ट, रमेश पहाड़ी, राधा बहन, ए.के. अरुण, शिवदत्त पांडे, दिवा भट्ट, गोविंद सिंह भण्डारी, कमला पंत, अजयमित्र सिंह बिष्ट, जगदीश जोशी, नैनीताल समाचार आदि के विचार शमशेरदा की बहुमुखी प्रतिभा को इंगित करते हैं।
मित्र, कपिलेश भोज और प्रकाशन संस्था ‘साहित्य उपक्रम, दिल्ली’ को साधुवाद कि उन्होने हमारी पीढ़ी के हीरो ‘डाॅ. शमशेर बिष्ट’ जो जनता के भी नायक रहे के व्यक्तित्व और कृतित्व को एक शानदार पुस्तक का आकार प्रदान किया। अशोक पाण्डेय ने आवरण डिजायन और जयमित्र सिंह बिष्ट ने भूली-बिसरी तस्वीरों को लाकर किताब इतनी जीवंत हो गई है कि लगता है, शमशेरदा अब बोलने ही वाले हैं ‘कहो क्या हाल हैं, आपके’।
यह किताब शमशेरदा के माध्यम से विगत 50 सालों में उत्तराखंड के राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक हालातों की पड़ताल करती है। इस नातेे 70 के दशक में समाज की बेहतरी के लिए सक्रिय अधिकांश युवाओं की अब तक की जीवनीय छटपटाहट भी इस किताब में है।