विवेकानंद माथने
भूमि तो तबसे संकट में है, जबसे मनुष्य अपना नाम लिखकर उसका मालिक बन बैठा। उसने यह मानने से इंकार किया कि मनुष्य के नाते वह भी प्रकृति का हिस्सा है। मनुष्य ने अपनी दुनिया का एक कानून बना दिया। भूमि पर जिसका नाम दर्ज होगा वह उसका मालिक होगा और उसकी खरीद बिक्री भी कर सकेगा। तबसे भूमि मनुष्य के अत्याचार की शिकार हुई। उसके मालिक बदलते रहे।लेकिन उसका शोषण जारी रहा। उसे जगह जगह खोदकर जख्म दिये गये। खनिज निकाला गया। पानी का दोहन किया गया। जंगल नष्ट कर दिये गये। भूमिपर लोहा, सीमेंट बिछाकर हवा, पानी, प्रकाश से उसका रिश्ता ही तोड दिया गया। इन सबसे भूमि घायल पडी है।
मालकियत के अधिकार ने भूमि को अमीरों की दासी बना दिया। जिसके पास धन होगा वही उस भूमि का मालिक होगा और फिर मालिक उसका जैसा चाहे वैसा उपभोग कर सकता है।जिससे किसानों का भयंकर शोषण हुआ। किसानों ने बडे संघर्ष के बाद खेती से रिश्ताजोडकरउसे अपने सहजीवन का साथी बनाया था। लेकिन धीरे धीरे फिरसे भूमि को बाजार में खडा किया गया है। अब कारपोरेट्स ने तय किया है कि औद्योगिक विकास और आधुनिक खेती के नामपर किसानों से खेती किसानी छीनकर भूमि का मालिक बनेंगे और फिर उसकी मनमानी लूट करेंगे। दुर्भाग्य से सरकार कारपोरेट्स के दलाल के रुपमें काम कर रही है।
सरकार भारत को महासत्ता बनाना चाहती है। उसने पांच ट्रिलियन डॉलर की एकोनोमी बनाने का संकल्प जाहिर किया है। इसके लिये प्रतिवर्ष 20 लाख करोड रुपये के हिसाब से पांच साल में 100 लाख करोड रुपयोंका निवेश लाने के लिये रोड मैप तैयार किया गया है। मेक इन इंडिया के तहत देशी विदेशी कंपनियों को शत प्रतिशत निवेश के लिये आमंत्रित कियाजा रहा है।महासत्ता बनने का संकल्प पूरा करने के लिये औद्योगिकरण, शहरीकरण, इन्फ्रास्ट्रक्चर, रिअल इस्टेट आदि गैरकृषि कार्य और कारपोरेट कृषि या कारपोरेट जमीनदारी आदि के लिये बडे पैमाने पर भूमि पर कब्जा किया जायेगा।
जिन्होने विकास की नशा कर रखी है और जिन्हे इसका लाभ मिल रहा हो उनके लिये यह सब लुभावना हो सकता है। और वह विकास के लिये अधिकांश लोगों को बलि चढाकर संसाधनों का शोषण अनिवार्य मान सकते है। लेकिन जिन्हे इसकी कीमत चुकानी पडेगी, उनके जीवन में विकास का अंधेरा छा जायेगा। गांव और किसानों से बडे पैमाने पर कृषि भूमि, प्राकृतिक संसाधन और उससे प्राप्त होनेवाला रोजगार छीना जायेगा। इसका देश, लोग, खेती, किसानी, पर्यावरण आदि पर बहुत बुरा प्रभाव पडेगा।
औद्योगिकरण की प्रक्रिया में औद्योगिक गलियारें, नये औद्योगिक क्षेत्र, मौजूदा औद्योगिक क्षेत्र का विस्तार, विशेष आर्थिक क्षेत्र, औद्योगिक पार्क, आईटी/ आईटीईएस/ बायोटेक केन्द्रों और कृषि प्रसंस्करण केन्द्रो आदी का निर्माण किया जा रहा है। रिअल इस्टेट को बढावा देने के लिये टाउनशिप, पुराने शहरों का विस्तार, नये शहरों, स्मार्ट शहरों का निर्माण किया जा रहा है। अमीरों के लिये अलग से शहर बसाये जा रहे है। इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण के लिये राष्ट्रीय और राज्य राजमार्ग और उनका विस्तार, डेडिकेटेड फ्रेट रेल कॉरिडोर, उच्च गति रेल/सड़क परिवहन नेटवर्क आदी का निर्माण किया जा रहा है।बांध, खदाने, स्टील, सीमेंट, बिजलीपरियोजना का निर्माण किया जा रहा है। इन सभी गैरकृषि कार्यों के लिये प्राकृतिक संसाधन जल, जंगल, जमीन, खनिजआदि का बडे पैमाने में दोहनहोगा।
पारिवारिक खेती का स्वरुप व्यापारी खेती में पहले ही बदला गया है।अब पूरी दुनिया में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग, कारपोरेट फार्मिंग के माध्यम से कृषि का कारपोरेटीकरण किया जा रहा है।अबकंपनियां खुद खेती करके या फिर किसानों के समूह से कॉन्ट्रैक्ट करके दुनिया के बाजार के लिये फसलें पैदा करेगी और कच्चे या तैयार उत्पाद बेचेगी।फॉर्म हाउस, कृषि पर्यटन भी एक व्यवसाय का रुप ले रहे है।
कुल मिलाकर कृषि और गैरकृषि कार्य के लिये किसानों से बडे पैमाने पर भूमिछीनी जायेगी। रासायनिक खेती और जलवायुपरिवर्तन के कारण भी कृषि भूमि और कृषि उत्पादन प्रभावित हो रही है। रासायनिक खेती और अतिसिंचाई के कारणसैलिनिटीबढने सेकृषि भूमि का एक तिहाई हिस्सा तेजी से बंजर होते जा रहाहै। औद्योगिकरण कीदेन जलवायु परिवर्तन का भी खेती और उसकी उपज पर दुष्प्रभाव पडेगा। ऐसे परिस्थिति में सरकार की नीतियों काभूमि और उसके कारण खादान्य सुरक्षा,राजनीतिक आजादीपर क्या असर पडेगा? यह समझना जरुरी है।
भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र 32.87 करोड हेक्टर और रिपोर्टेड क्षेत्र 30.59 करोड हेक्टर है। कृषि विभाग के अनुसार कृषि भूमि का क्षेत्र 14 करोड हेक्टर के आसपास है और 70 साल में कुल कृषि भूमि में कोई बदलाव नही हुआ है। लेकिन नैशनल सॅम्पल सर्वे 2013 (70 वाँ दौर) “भारत में पारिवारिक स्वामित्व एवं स्वकर्षित जोत” के अनुसार ग्रामीण भारत में रहनेवाले परिवारों के स्वामित्व में 1992 में 11.7 करोड हेक्टर जमीन थी, वह 2013 में घटकर 9.2 करोड हेक्टर रह गयी थी। याने की 2.5 करोड हेक्टर कृषि भूमि कम हुई है। भूमि हस्तांतरण की इस गति के आधार पर यह अनुमानित किया जा सकता है कि 2023 के सॅम्पल सर्वे में ग्रामीण भारत के पास केवल 8 करोड हेक्टरकृषि भूमि बचेगी।
शहरों के पास अपनी कोई कृषि भूमि नही है। शहर तो ग्रामीण भारत की कृषि भूमि पर लगातार आक्रमण कर रहे है। इसलिये जितनी भी भूमि छीनी जा रही है वह किसानों और गावों से छीनी जा रही है। 2013 के बाद भूमि हस्तांतरण और भी तेजी से हुआ है। इसलिये संभव है कि ग्रामीण भारत से इससे भी ज्यादा कृषि भूमि शहरों के पास गई हो।
देश की कृषि संबंधी नीतियां बनाने, कृषि योजनाऐं क्रियान्वित करने, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने, न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण, आयात निर्यात, विभिन्न फसलों का उत्पादन, कुल कृषि उत्पादन, सबसिडी, बजटआदि के लिये देश में कितनी कृषि भूमि है यह जानना सरकार के लिये जरुरी होता है। उसके लिये देश में कृषि भूमि की प्रत्यक्ष गिनती करने की व्यवस्था है।लेकिन केंद्र या राज्यों सरकारों व्दारा कही भी जमीन गिनती ठीक से नही होती। सरकारें प्रोजेक्शन व्दारा कृषि भूमि के आंकडे जोडती है और उसी के आधार पर योजनाऐं बनाती है।
सरकार के पास इसकी पक्की जानकारी उपलब्ध नही है कि भारत में कितनी कृषि भूमि है? और आजतक किसानों और गावों की कितनी भूमिगैर कृषि कार्य के लिये इस्तेमाल हुई है? और कितनी भूमि कृषि कार्य के लिये शहरवासियों पास गई है? सरकारी विभाग अलग अलग आंकडे दे रहे है। कृषि विभाग और सैम्पल सर्वे के आकडों में बहुत बडा अंतर है। उद्योग मंत्रालय के पास कोई हिसाब नही है कि पूरे देश में उद्योगों के लिये कितनी जमीन ली गई है। कृषि भूमि संबंधित सरकार के सारे आंकडे अनुमान पर आधारित है। इन्ही आंकडों के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि सरकार के भावी विकास योजना के लिये आगे कितनी कृषि भूमि लगेगी और उसके क्या प्रभाव होंगे।
पूरे देश में बनाये जा रहे 6 औद्योगिक गलियारों के लिये 20.14 करोड हेक्टर भूमि प्रभावित होगी। जो देश की कुल रिपोर्टेड क्षेत्र का 66 प्रतिशत है।रेल कॉरिडोर और प्राकृतिक संसाधन जूटाने के लिये बनाई जा रही परियोजनाओं के लिये कितनी भूमि की आवश्यकता पडेगी इसका अभी अनुमान लगाना मुश्किल काम है। लेकिन अगर इस प्रकार 20 प्रतिशत उद्दिष्ट प्राप्त किया गया तब भीइस में कमसे कम 4 करोड हेक्टर कृषि भूमि खेती से बाहर होगी। और बची हुई कृषि भूमि कारपोरेट खेती के लिये किसानों और ग्रामीण भारत से छीनकर कारपोरेट्स को सौपी जायेगी। यह अविश्वासनीय और डरावना सत्य है। कमसे कम आंकडे तो यही कह रहे है।
बढती आबादी और घटती कृषि भूमि के कारण देश में किसान के पास प्रति परिवार औसत कृषि भूमि का क्षेत्र लगातार घट रहा है। 2031 में जब भारत की जनसंख्या 150 करोड के आसपास होगी और जब कुल कृषि भूमि का क्षेत्र 4 करोड हेक्टर बचेगा तब हर परिवार के हिस्से में औसत 0.15 हेक्टर कृषि भूमिआयेगी।
सरकार भूमि संबंधित नीति और कानूनों में तेजी से परिवर्तन कर रही है। पांच सालों में आधे किसानों को खेती से बाहर करने की सिफारिश नीति आयोग ने की है। सरकारकिसानों की संख्या 20 प्रतिशत किसानों तक सीमित रखना चाहती है। कारपोरेट्स को अमर्याद भूमि सौंपने के लिये भूमि अधिग्रहन कानून में परिवर्तन, सीधे जमीन खरीद के लिये कानून, बाहरी लोगों को जमीन न बेचने के राज्यों के अधिकारों को समाप्त करना, जमीन की अधिकतम सीमा निर्धारित करने वाले शहरी और ग्रामीण सीलिंग एक्ट समाप्त करना, लैंड बैंक, लैंड यूज बदलने के बाद भी जमीन किसानों को वापस न करते हुये लैंड बैंक में डालने का प्रावधान, आदिवासियों की जमीन बेचने का अधिकार आदि के लिये या तो कानून बनाये गये या फिर बनाये जा रहे है।
कारपोरेट फार्मिंग के लिये खेती में विदेशी निवेश की अनुमति, पूंजी और तंत्रज्ञान को प्रोत्साहन, इजराईल खेती,कॉन्ट्रैक्ट खेती, कारपोरेट खेती के लिये कानून, खेती को लंबी लीजपर / ठेके पर लेने के लिये कानून, ई नाम के द्वारा अंतरराष्ट्रीय मार्केट का ढांचा खडा करना आदि सब उसी योजना का हिस्सा है। भविष्य में फलों, फुलों, आयुर्वेदिक औषधियां, सूखे मेवे, जैविक ईंधन, नशे की फसलें, आलू, सोयाबीन और सब्जीयां आदि फसलें पैदा की जायेगी। कारपोरेट फार्मिंग के लिये उपजाऊ खेती कंपनियों को सौपी जायेंगी। देश की पूरी खेती को फिर से चाय और नील की खेती की तरह नये कारपोरेटी जमींदारी की तरफ धकेला जा रहा है।
महासत्ता बनने का जो रास्ता भारत ने चुना है, उसकी बडी कीमत कृषि भूमि, किसानों और खेतिहर मजदूरों के साथ साथ पूरे देश लोगों को चुकानी पडेगी। किसान, आदिवासियों की जमीन और उससे जूडा रोजगार छीनाजायेगा। तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन जैसीसमस्याओं का सामना करना पडेगा। खाद्य सुरक्षा के लिये खतरा पैदा होगा। आर्थिक विषमता बढेगी।देश आर्थिक, राजनीतिक आजादी खोकर देश हमेशा के लिये कारपोरेटी साम्राज्यवाद का शिकार हो जायेगा।
भूमि की मालकी समुदाय की है। अतः सरकार को इसका हस्तांतरण करने का अधिकार नही दिया जा सकता। जो कसेगा उसी के पास भूमि होनी चाहिये। सरकार ना मालिक है और ना उसे यह अधिकार है कि किसानों से भूमि छीनकर कारपोरेट्स के हवाले कर दे।सरकार केवल एक ट्रस्टी है।
सरकार को एक स्वेत पत्र जारी करके यह वास्तव देश के सामने स्पष्ट करना चाहिये किकृषि और गैरकृषि के लिये कितनी भूमि इस्तेमाल हुई है? और कितनी होनेवाली है? और उसका कृषि भूमि और देश पर क्या असर पडेगा?
भूमि की मालकियत अगर समस्या है,तो समस्या निराकरण भी मालकी विसर्जन से ही संभव है। ग्रामदान कानून में भूमि पर व्यक्तिगत मालकी विसर्जित होकर ग्रामसभाकी मालकी स्थापित होती है।जिसमें ग्रामसभा को निर्णय लेने का सर्वोच्च अधिकार है। भूमि पर ग्रामसभाकी मालकी स्थापित होने के बादग्रामसभा बाहरी व्यक्ति या कंपनी को जमीन लेने से मनाई कर सकती है।ग्रामदान कानून के तहत ग्रामदानी गांव घोषित होने के बाद देश का कोई कानून गांवकी जमीन नही छीन सकता। इसलिये गांव और भूमि बचाने के लियेग्रामदान कानून एक रास्ता है।
जब सरकारें कारपोरेट्स के दलाल बनकर काम कर रही हो तब भूमि बचाने के लिये जनता को ग्रामसभा के द्वारा स्वयं निर्णय लेने ही होंगे। जनता को इसी दिशा में व्यापक भूमि सुधार के लिये काम करना होगा। तभी वह कारपोरेट्स के गिद्ध नजरों से बच पायेंगे।अन्यथा पूरे समाज को जमीन से उखाड दिया जायेगा या समाज की जमीन ही उखाड दी जायेगी।