देवेश जोशी
तीन दिन से नमक का स्वाद नहीं चखा था। सब कुछ था पर नमक नहीं। होता भी कैसे? आखिर नई दिल्ली स्थित एम्स का हार्ट पेशेंट वार्ड जो था। माँ, बहिन के साथ तीमारदार बन साथ थी। एम्स के कठोर नियम कि पेशेंट क्या तीमारदार के लिए भी बिना नमक का ही खाना दिया जाता था। माँ ने अपनी तरफ से डाॅक्टर, नर्स को बहुत समझाने की कोशिश की कि तीमारदार को ये सजा क्यों पर हर कोई रूल इज़ रूल का जुमला झाड़ के चला जाता।
चौथे दिन मां की नज़र फूड ट्राॅली लाते अटेंडेंट की ट्राॅली में कोई नमकीन चीज या नमक तलाश रही थी कि अचानक नज़र अटेंडेंट के सीने पर लगी नेमप्लेट पर गयी। जैसे ही अटेंडेंट नजदीक आया, माँ ने पूछा लूण छू? अटेंडेंट ने एक क्षण को आश्चर्य से माँ के चेहरे की ओर देखा और अगले ही पल बोला, छू बैणि छू । और ट्राॅली के अंदर से एक छोटी पुड़िया निकाल कर पकड़ा दी। आगे बढ़ते हुए अटेंडेंट ने पूछा, गौं कां छ बैणि और माँ ने कहा जोशियाड़ा (जोशियों का कोई बड़ा गांव है जोशियाड़ा, ऐसा मां ने सुन रखा था)।
ये बताने की शायद जरूरत न हो कि अटेंडेंट की नेमप्लेट पर जोशी लिखा देखकर ही माताजी ने मातृभाषा का शस्त्र प्रयोग किया था। हालांकि जोशी भारत के अन्य भी अनेक क्षेत्रों के निवासी हैं पर उनमें से उत्तराखण्डवासियों को अलग से पहचानना कोई मुश्किल काम भी नहीं है।
नमक की उस पुड़िया को हासिल करने का किस्सा मां अक्सर सुनाया करती थी। खासकर कोई चटपटी डिश बनाते-खिलाते वक्त। उसे भुलाना आसान भी न था आखिर मातृभाषा का नमक जो था।
नमक भी कहाँ था, लोण था। नमक और साल्ट तो एम्स के हार्ट-पेशेंट वार्ड में किसी मंत्री की सिफारिश से भी नहीं मिल सकता था। मातृभाषा का असर है ही ऐसा जो सीधे दिल में रिसीव किया जाता है और दिमाग को सूचित किए बगैर निर्णय भी हो जाता है।
दूध हो या नमक, पहला स्वाद हर किसी के जीवन में मातृभाषा के साथ ही शामिल होता है। ये क़र्ज़ भी होता है जिसे जीवित रहते हुए आंशिक ही सही उतारने का प्रयास निरंतर करना चाहिए।
विभिन्न भाषाओं का ज्ञान होना अच्छी बात है। दुनिया और दुनियादारी को जानने-समझने के लिए जरूरी भी है पर मातृभाषा की क़ीमत पर नहीं। मातृभाषा की शिराओं से ही हर बड़ी भाषा को खाद-पानी मिलता है। सजग रहने की जरूरत है कि कहीं हमारी मातृभाषा उन 7000 भाषाओं की सूची में शामिल न हो जाए जिनकी 21वीं सदी के आखिर तक समाप्त होने की पूरी संभावना है। हमारे देखते-देखते ही 2009 में अंडमान की खारो और 2010 में बो भाषाएँ खत्म हो चुकी हैं।
21 फरवरी को यूनेस्को ने मातृभाषा दिवस घोषित किया है। कम से कम इस दिन तो हम अपनी मातृभाषा का हेल्थ-चैक अप कर ही सकते हैं। 2021 की जनगणना की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है। जनगणना से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर भाषा के रूप में उसी भाषा को गिना जाएगा जिसके बोलने वालों की संख्या न्यूनतम 10 हजार होगी। इसलिए संकोच छोड़ते हुए गर्व से जनगणना में अपनी मातृभाषा को दर्ज़ करवाइए। अन्य भाषाओं का ज्ञान रखते हैं तो उन्हें भी लिखवाइए।