हिमांशु जोशी
पिछले दो हफ़्ते से कोरोना से लड़ाई करते हुए मेरी कलम ने एक शब्द नही लिखा है। यह किसी पत्रकार के लिए कितना मुश्किल है यह तो वही बता सकता है।
हालांकि एक कोरोना मरीज़ की डायरी मैं रोज़ लिख रहा था पर फिर भी मुझे अपने चारों ओर घटित होने वाली घटनाओं में शामिल न होने की ठसक थी ही और एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना मुझसे छूट रही थी जो शायद पूरे भारतवर्ष के लिए एक उदाहरण बन सकती है।
कोरोना की वज़ह से पूरे देश में बेरोज़गारी, महामारी का डर व्याप्त है और एक नकारात्मकता सी छाई हुई है। पर इन सब के बीच भी कैलाश सत्यार्थी की बाल मजदूरी, बाल शोषण के विरुद्ध खड़ा होने की कक्षा पढ़ नैनीताल आए बसु राय ने पर्यावरण की ओर ध्यान दे नैनीताल की तस्वीर बदलने की ठानी। इसमें उनका साथ दिया सत्तर साल के हो चुके वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी राजीव लोचन साह जी ने।
जिस नैनीताल के दिन में इतने रूप बदलते हैं कि उन्हें हर प्रसिद्ध छायाकार अपने कैमरे में उतारना चाहता है और जिस शहर का हर कोना लोगों के वॉट्सएप, फेसबुक स्टेटस की शान है वहां अगर सफाई का बीड़ा सैंकड़ों किलोमीटर दूर से आए बसु राय और सत्तर वर्ष के हो चुके राजीव जी को उठाना पड़े तो यह नैनीताल के मूल निवासियों के लिए लज्जा की बात है। यह स्थिति तब है जब विश्वविख्यात पर्यावरणविद वंदना शिवा नैनीताल शहर से ताल्लुक रखती हैं, उनकी प्रारम्भिक शिक्षा सेंट मेरी स्कूल नैनीताल से हुई थी।
शहर के डस्टबिन अक्सर शहर के चारों ओर बदसूरत दिखने का कारण बनते हैं। उनमें कुत्ते, गाय जैसे आवारा पशु अंदर जा कचड़ा खाते हैं।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 9 मार्च 1995 को डॉक्टर अजय सिंह रावत बनाम भारतीय संघ और संगठन पर अपने फैसले में कहा था कि नैनीताल एक सुंदर तितली, जिसे एक बदसूरत कैटरपिलर में बदल दिया जाता है। याचिकाकर्ता के अनुसार इसके कारण थे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और वीआइपी प्रदूषण।
उत्तराखण्ड पर ‘न्यूज़ 18’ की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखण्ड हर दिन 1400 टन से अधिक कचड़ा उत्पन्न करता है और इसका शून्य प्रतिशत संसाधित करता है।
उत्तराखण्ड में केवल तीन प्रतिशत नगरपालिका वार्डों में स्त्रोत पर कचड़ा पृथक्करण की सुविधा है।
नैनीताल में कक्षा एक में पढ़ने वाली अवरनिका जोशी जो अपने घर की सफ़ाई से तो सन्तुष्ट है पर सड़क किनारे पड़े कूड़े को लेकर चिंतित है मुझे स्वतः ही ग्रेटा थनबर्ग की याद दिलाती है।
वर्ष 2019 में संयुक्त राष्ट्र के ‘उच्चस्तरीय जलवायु सम्मेलन’ के दौरान अपने भाषण में सोलह साल की पर्यावरणकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने सभी को झकझोर दिया था। उन्होंने विश्व के बड़े नेताओं से कहा कि “आपने हमारे सपने, हमारा बचपन अपने खोखले शब्दों से छीना, हालांकि मैं अभी भी भाग्यशाली हूं, लेकिन लोग झेल रहे हैं, मर रहे हैं, पूरा ईको सिस्टम बर्बाद हो रहा है”।
आज उस भाषण के लगभग एक साल बाद ग्रेटा का वह डर सच साबित हो गया है। कोरोना भी पर्यावरण के साथ कि गई इसी छेड़छाड़ का नतीजा है। लाखों विद्यार्थियों का भविष्य अधर में लटका है और कई छात्र अवसाद में आत्महत्या कर रहे हैं।
2 अक्टूबर 2014 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिवस पर भारत सरकार द्वारा 2014 ‘स्वच्छ भारत मिशन’ शुरू किया गया था। भारतीय जनता में तब अपने प्रधानमंत्री को हाथ में झाड़ू पकड़े देख सफाई का एक कीड़ा तो जगा था पर वह ज्यादा दिन नही टिक पाया।
नैनीताल में स्वच्छता दिवस मनाने की बात करें तो श्री राजीव लोचन साह ऑस्ट्रेलियाई नागरिक रेमको वेन सेंटन को याद करते हुए कहते हैं कि वर्ष 2007 में रेमको विश्व के लगभग हज़ार देशों की यात्रा कर यहां पहुंचे थे और वह कहते थे कि नैनीताल जैसा खूबसूरत शहर उन्होंने पूरे विश्व में नही देखा पर लगता है इस शहर को मलेरिया हो गया है इसे सही करो।
रेमको ‘क्लीन अप ऑस्ट्रेलिया’ की तर्ज पर नैनीताल की सफ़ाई कराना चाहते थे। जो ऑस्ट्रेलिया में वर्ष 1990 से मनाया जा रहा है। 18.3 मिलियन आस्ट्रेलियाई इस अभियान से जुड़े हैं ,जिन्होंने अपने 36 मिलियन घण्टे इस अभियान को दिए।
वह प्लास्टिक की बोतलें, सिगरेटों के नीचे का हिस्सा, स्ट्रॉ, कॉफी कप, पन्नी की सफाई मुख्य रूप से करते हैं।
वर्ष 2007 में 18 सितम्बर को स्थानीय लोगों के सहयोग और प्रशासन की मदद से पहली बार नैनीताल स्वच्छता दिवस मनाया गया। नैनीताल के विद्यार्थी, बोट वाले, व्यापारी सब इस अभियान से जुड़े। गंदगी दूर होने लगी थी पर फिर इस अभियान पर किन्हीं कारणों से वर्ष 2013 से विराम लग गया।
रेमको वेन सेंटन तो इस बार कोरोना की वजह से ऑस्ट्रेलिया में ही है पर एक नई टीम और जोश के साथ नैनीताल में इस बार फिर से यह अभियान शुरू किया जा रहा है।
पद्मश्री अवार्डी श्री अनुप साह कहते हैं पुराने समय में मुश्किल हालातों में भी कुड़े का निस्तारण होता था, नियम सख्त थे और लोग अपने कचड़े के लिए खुद जागरूक थे।
अब नैनीताल में पक्षियों ने आना कम कर दिया है।
कचड़े का सही से निस्तारण न होने का परिणाम कितना गम्भीर हो सकता है यह हम रानीखेत की घटना से जान सकते हैं। जनवरी 2006 में रानीखेत के एक कचड़ा डंप यार्ड के पास सैंकड़ों स्टम्प ईगल बेहोश पाए गए थे।
नैनीताल की श्रीमती उषा लांबा कहती हैं कि पहले सड़कें साफ हुआ करती थी। पर्यटक आकर गन्दगी कर जाते हैं।
तिब्बती समुदाय के येशी कहते हैं नैनीताल शहर हमारा है तो जहां तक हमारी पहुंच होगी हम ही सफाई करेंगे।
45 साल से चली आ रही संस्था युगमंच के अध्यक्ष श्री जहूर आलम कहते हैं की नैनीताल सफाई के मामले में मॉडल था। सफाई अभियान हम अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने के लिए करेंगे।
नैनीताल का प्रशासनिक अमला भी इस अभियान के समर्थन में उतर आया है।
भारत के सबसे साफ शहरों में से एक इंदौर का मॉडल हमारे लिए आदर्श हो सकता है। उसी तरह विश्व के सबसे स्वच्छ शहरों में शामिल सिंगापुर, किगाली और कैलगरी से हम कुछ न कुछ सीख सकते हैं।
इंदौर के नागरिकों ने शहर को साफ और स्वच्छ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। नगर निगम ने कचड़े को स्त्रोत पर ही सफलतापूर्वक अलगाव के लिए नागरिकों को संवेदनशील बनाया और खुले क्षेत्रों में कचड़ा डंप नही किया। इंदौर की स्वच्छता कहानी वास्तव में सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से हुआ परिवर्तन है।
मलेशिया की राजधानी सिंगापुर में खुले में कूड़ा फेंकने पर जुर्माना या सामुदायिक कार्य करने का आदेश मिलता है। सम्बंधित अधिकारी वहां गश्त पर रहते हैं और गंदगी फैलाने वालों को पकड़ लेते हैं।
रवांडा का किगाली शहर विकसित न होने के बाद भी अपनी स्वच्छता के लिए एक उदाहरण है। वहां स्कूलों में युवाओं को सफ़ाई का महत्व सिखाया जाता है तो स्थानीय सामुदायिक केंद्रों में वृद्ध नागरिकों के लिए स्वच्छता शैक्षिक कक्षाएं भी उपलब्ध हैं।
कनाडा के कैलगरी शहर में एक रंगीन बिन प्रणाली पेश की गई है। इसमें काले, नीले और हरे रंग के अलग-अलग डिब्बे होते हैं।
हरे रंग के डिब्बे खाद्य अपशिष्ट के लिए हैं। नीले कागज़ और पन्नी के लिए और काला डिब्बा घरेलू कचड़े के लिए है।
गंदगी करने पर भारी जुर्माना लगाया जाता है। वहां हर साल अप्रैल जून के बीच ‘स्प्रिंग क्लीन अप’ अभियान चलाया जाता है। जिसमें शहर की पूरी सड़कों को पूरी तरह साफ किया जाता है।
गांधी जी ने एक बार कहा था कि स्वच्छता स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण है।
जब तक आप झाड़ू और बाल्टी अपने हाथों में नही लेते, आप अपने शहरों की सफाई नही कर सकते।
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी खुद ही शौचालय की सफाई में जुट गए थे।
आज फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और वाट्सएप पर समाज में सफ़ाई की बात करने वाला युवा कितने सार्वजनिक शौचालयों और मूत्रालयों की सफाई करते हैं यह आप उनसे पूछ सकते हैं।
गांधीजी कहते थे शौचालय को अपने ड्राइंग रूम की तरह ही साफ रखना जरूरी है।
18 सितम्बर का ‘नैनीताल क्लीनअप डे’ सिर्फ सोशल मीडिया पर फ़ोटो अपलोड करने का दिवस न बन जाए। 18 सितम्बर नैनीताल वासियों के मन में सफाई का कीड़ा हमेशा के लिए जगा जाए।
उस दिन स्वच्छता टीम की योजना कोरोना की वज़ह से सीमित है। वह एक जगह एकत्र न हो 30-35 अलग-अलग स्थानों पर 8-10 लोगों की टीम के साथ सफ़ाई करेंगे जिससे जमा कचड़े को बाद में नियत स्थान पर पहुंचाया जाएगा।
नैनीतालवासी अगर इस अभियान को सफल बना पाए तो यह मॉडल आने वाले समय में पूरे देश के लिए उदाहरण बन सकता है और बार-बार नाम बदलते सफ़ाई अभियानों में समुदाय की भागीदारी से पूरा पासा ही पलट सकता है।
शायद हमें कुड़े के ढेर से गुजरते फिर कभी सांस रोकने की जरूरत न पड़े।
‘शहर, वो शहर जो ऐतिहासिक है।
शहर ,वो शहर जिसमें दिन में ऐसे बहुत से दृश्य सामने आते हैं जिन्हें कैमरे पर उतारने के लिए हर बड़ा फ़ोटोग्राफ़र बैचेन रहता है।
शहर, जो लोगों के फेसबुक, वाट्सएप स्टेटस की शान है।
शहर, जिसके सत्तर साल के बुज़ुर्ग तो सफाई के लिए जागरूक हैं पर युवाओं का जोश नदारद है।
शहर, जिसकी सफ़ाई का जिम्मा इस बार शहर के किसी बाशिंदे ने नही बच्चों, बेसहाराओं के मसीहा बसु जी ने उठाया है।
शहर, जिसे कनाडा का कैलगरी और भारत का इंदौर बनाना है।
शहर, जिसके सामने सवाल बहुत हैं पर जवाब खोजते बाशिंदे कम हैं।
शहर, जिसका 18 सितम्बर एक इम्तेहान है।
चोटियां दरक रही हैं, महामारी फैल रही है, व्यापार पस्त है।
नकारात्मकता को हम ही पराजित कर सकते हैं क्योंकि हम ही नैनीतालवासी हैं।
शहर, वो शहर जो ऐतिहासिक है।’