साल 2001 में नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता के दौरान भारत की तरफ पलायन में तेज़ी आई और पलायन करने वालों में ज्यादातर अकुशल श्रमिक थे। इस समय भारत में लाखों नेपाली मजदूर काम करते हैं, जो स्वास्थ्य, बैंक जैसी सुविधाओं से महरूम हैं।
भारत और नेपाल के बीच साल 1950 में भारत नेपाल शांति तथा मैत्री सन्धि हुई थी। जिसके अन्तर्गत दोनों देशों की सीमा एक-दूसरे के नागरिकों के लिए खुली रहेगी और उन्हें एक-दूसरे के देशों में बिना रोकटोक रहने और काम करने की अनुमति होगी। इसके बाद से भारत में नेपाली श्रमिक भवन निर्माण, सिक्योरिटी गार्ड, कम्पनियों में मजदूरी, मुंबई-दिल्ली जैसे बड़े शहरों में चौकीदारी, खेती, होटलों में काम करने भारत आने लगे।
इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज में राजू भट्टराई के रिसर्च पेपर के अनुसार साल 2001 में नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता के दौरान भारत की तरफ पलायन में तेज़ी आई और पलायन करने वालों में ज्यादातर अकुशल श्रमिक थे। भारतीय राजदूतावास काठमांडू, नेपाल की वेबसाइट के अनुसार करीब आठ मिलियन नेपाली नागरिक भारत में रहते और काम करते हैं।नेपाल के बाजुरा जिले के रहने वाले जनक और प्रकाश उन लाखों अकुशल श्रमिकों में से एक हैं जो अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर भारत काम की तलाश में पहुंचे हैं।
यह दोनों अन्य नेपाली श्रमिकों के साथ सुबह छह बजे ही खाना खाकर उत्तराखंड राज्य के नैनीताल के फ्लैट्स ग्राउंड में काम की तलाश में बैठ जाते हैं। आज उन्हें काम मिलेगा या नही, इसका उन्हें पता नही रहता। 22 वर्षीय जनक बताता है कि उसे पिछले पांच दिन से कोई काम नही मिला है और उससे पहले मिली दिहाड़ी से उसका खाना चल रहा है।नैनीताल में नए निर्माण कार्य न होने की वजह से इन मजदूरों के पास पेट पालने के लिए सामान ढोने का ही एकमात्र विकल्प बचता है और कोरोना काल के बाद से इन्हें यह काम भी कम मिल रहा है।
जनक जब सत्रह साल का था तब ही उसकी शादी हो गई थी, उसके पत्नी और दो बच्चे नेपाल में रहते हैं। जनक का भाई यहीं भारत में उनके साथ रहता था पर ब्रेन हेमरेज की वजह से उसकी मृत्यु हो गई थी, पैसों के अभाव में वह उसका इलाज नही करा पाया था।
प्रकाश भी जनक के साथ ही अन्य दो नेपाली श्रमिकों के साथ एक कमरे में रहता है। उसके पिता भी यहीं रहते थे, प्रकाश साल 2000 में भारत आ गया था। प्रकाश कहता है कि तब 30 रुपए दिहाड़ी थी और अब वह 500 रुपए दिन भर दिहाड़ी के कमा लेता है।वह लोग हर छह महीने में घर जाते हैं और 30-35 हजार रुपए घर ले जाते हैं। कोई वैध कागज़ न होने की वजह से भारत में बैंक की सुविधा नही ले पाते, जिस वजह से उनको अपना सारा पैसा नकद ही ले जाना पड़ता है और घर जाते वक्त उनके सामने लूटपाट करने वाले गिरोह का खतरा बना रहता है। प्रकाश ने बताया कि कोरोना काल में इनको कहीं से मदद नही मिली थी और उन्होंने अपनी बचत से ही खाना खाया था। उनका कोई साथी नेपाली श्रमिक बीमार पड़ जाता है तो वह लोग मिल कर उसके इलाज के लिए रुपए जमा करते हैं।आजकल सभी श्रमिकों के पास घर पर बात करने के लिए मोबाइल है, जिसमें वह अपने देश के क्रिकेट, वॉलीबॉल मैच भी देखते हैं और दक्षिण भारतीय फिल्में उन्हें बेहद पसंद हैं।
नैनीताल के रहने वाले उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी सदस्य दिनेश उपाध्याय बताते हैं कि पिछले कुछ सालों से नेपाली श्रमिकों के लिए काम में इसलिए कमी आई है क्योंकि अब सामान ढोने के कार्य गाड़ियों से ज्यादा होते हैं, वैसे ही निर्माण कार्यों में मशीनों द्वारा ज्यादा कार्य किया जाता है। नैनीताल समाचार के वरिष्ठ पत्रकार विनोद पाण्डे बताते हैं कि उन्होंने नैनीताल, हल्द्वानी में ऐसे बहुत से लोग देखें हैं जो इन नेपाली श्रमिकों से कार्य तो करवाते हैं पर उसका पेमेंट नही करते।
गांधीवादी इस्लाम हुसैन नैनीताल में नेपाली श्रमिकों की स्थिति पर बात करते अपनी एक कविता के कुछ अंश कहते हैं।
देवता के धामी की अचानक मौत से,
शहर पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ा।
न कोई चर्चा चली, न हंगामा हुआ,
और ना ही अख़बार में कुछ छपा।
न झूठे आंसू बहे न दिखावा हुआ,
और न हुई कोई शोक सभा।
बस कुछ रिक्शे नहीं दौड़े,
और सड़क बनते बनते रुक गई ज़रा।
नेपाल की अग्रणी समाचार वेब पोर्टल ‘इकान्तिपुर’ से जुड़े पत्रकार उपेंद्र राज पाण्डे भारत में रहने वाले नेपाली श्रमिकों की समस्याओं पर बताते हैं कि भारत में कितने नेपाली श्रमिक हैं, इसकी सही संख्या हमारी नेपाल सरकार के पास उपलब्ध नही है। अन्य देशों में जाने के लिए नेपाली श्रमिकों के लिए एक निश्चित प्रक्रिया होती है और उन्हें बीमा की सुविधा भी मिलती है पर भारत के मामले में ऐसी कोई प्रक्रिया नही है इसलिए भारत में आकर काम करने वाले श्रमिकों की समस्याओं को पहचानने में भी कठिनाई होती है।
फिर भी असुरक्षित श्रम, उपचार और रोजगार बने रहने की सुनिश्चितता, इन श्रमिकों की मुख्य समस्या है।
साल 2020 में नेपाल की सुप्रीम कोर्ट ने नेपाल सरकार को नोटिस जारी करते पूछा था कि भारत में काम कर रहे नेपाली कामगारों को वो तमाम सुविधाएं और सुरक्षा क्यों नहीं दी जाए, जो दूसरे देशों में काम कर रहे नेपाली कामगारों को मिलती हैं। इन सब के बावजूद भारत में नेपाली श्रमिकों की स्थिति में कोई खास बदलाव होता नही दिखता।
देहरादून में मजदूरों के अधिकारों के लिए काम कर रहे चेतना आंदोलन संगठन से जुड़े शंकर गोपाल बताते हैं कि देहरादून में रहने वाले नेपाली श्रमिकों की अधिकतर वही समस्या हैं जो अन्य प्रवासी श्रमिकों की रहती हैं।
उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधा नही मिल पाती हैं, उनके लिए सरकारी अस्पतालों में अलग से कोई योजना नही हैं। उनके वेतन और सुरक्षा पर कोई ध्यान नही दिया जाता, यदि काम करते कोई श्रमिक मारा जाता है तो उसे मुआवजा कानून के हिसाब से नही मिलता बल्कि उसके परिवार को मालिक अपनी तरफ से ही थोड़ी बहुत मदद दे देता है।
अगर किसी श्रमिक को काम करने पर पेमेंट नही मिलती है तो वह सीधा पुलिस के पास शिकायत नही दर्ज करवा सकता है। इसके लिए मजदूरों को श्रम विभाग के पास अपनी शिकायत लेकर जाना पड़ता है और वहां भी उन्हें शिकायत दर्ज कराने में मुश्किल होती है।
हिमांशु जोशी।