कोरोना का कहर चीन में दिसम्बर से शुरू हो गया था. अब वह इस पर जीत के जश्न की मुद्रा में है. कहानी सिर्फ इतनी नहीं है ? इस बीच बहुत कुछ घटित हुआ. यातना,पीड़ा और असहायता की जीती जागती कहानियाँ विजय के दर्प में मौन हो गयीं.
चीनी कथाकार प्रो. यान लियांके ने इसे स्मृतियों पर पाबंदी के रूप में देखा है. स्मृतियों को न लिखने के दबाव का ज़िक्र यान लियांके करते हैं. सत्ता चाहे किसी भी देश की हो अपनी अक्षमता और असंवेदनशीलता पर पर्दा डाल रहीं हैं. यह बेचैन करने वाला भाषण हमारे लिए भी जरूरी है. इसका समय से अनुवाद किया है लेखक-वैज्ञानिक यादवेन्द्र ने.
प्रोफेसर यान लियांके ने यह भाषण हांगकांग युनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के सृजनात्मक लेखन के ग्रेजुएट विद्यार्थियों को 21 फरवरी 2020 को दिया था जिसका चीनी से अंग्रेजी अनुवाद ग्रेस चोंग ने किया है.
प्रस्तुत है
यान लियांके
स्मृतियाँ झूठ से सामना होने पर सवाल जरूर पूछेंगी
अनुवाद यादवेन्द्र
958 में चीन के एक गाँव में जन्मे यान लियांके चीन के अत्यंत प्रतिष्ठित कथाकार हैं जिनके अनेक कथा संकलन और उपन्यास प्रकाशित, पुरस्कृत और विभिन्न भाषाओँ में अनूदित हैं. चीन के सर्वप्रतिष्ठित लू शुन प्राइज और लाओ शे अवार्ड से सम्मानित हो चुके हैं और फ्रांज काफ़्का प्राइज सहित अनेक विश्वस्तरीय साहित्यिक सम्मानों के अधिकारी रहे हैं. मैन बुकर इंटरनेशनल प्राइज के लिए वे एकाधिक बार शीर्ष दावेदार भी रहे हैं. कभी चीन की सेना में प्रोपेगैंडा लेखक रह चुके यान लियांके अपने स्वतन्त्र विचारों के लिए देश के शासन के बार बार कोपभाजन बनते रहे हैं- उनकी किताबों पर प्रतिबन्ध लगे और देश से बाहर यात्रा करने पर रोक लगायी गयी. उनकी ड्रीम ऑफ़ दिंग विलेज, सर्व द पीपल, लेनिन्स किसेज, द ईयर्स, मंथ्स, डेज इत्यादि चर्चित किताबें हैं.
प्यारे विद्यार्थियों,
यह मेरा पहला ई लेक्चर है पर शुरू करने से पहले मैं तुम लोगों को थोड़ा पीछे ले जाना चाहता हूँ.
जब मैं छोटा था और एक ही गलती बार-बार दोहराता था तो मेरे माँ पिताजी मुझे खींच कर सामने खड़ा करते और मेरे माथे की ओर ऊँगली दिखा कर कहते : तुम इतने भुलक्कड़ कैसे हो गए?
जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो चीनी भाषा के क्लास में कई बार ऐसा होता था कि सैकड़ों बार याद की हुई कविता या कोई और पाठ ठीक से सुना नहीं पाता था- तब टीचर मुझे खड़ा कर देते और पूरी क्लास के सामने कहते : तुम इतने भुलक्कड़ कैसे हो गए?
स्मरण करने की जो क्षमता है वह ऐसी मिट्टी है जिसमें स्मृतियाँ पनपती हैं. इस मिट्टी में पैदा होने वाले फल हैं स्मृतियाँ. स्मृतियाँ और किसी चीज को याद रखने की क्षमता ही मनुष्य को पशुओं या पेड़ पौधों से अलग करती है. यह विकास और परिपक्वता की हमारी पहली जरूरत है. कई मौकों पर मैं यह मानने को मजबूर होता हूँ कि यह भोजन करने, कपड़े पहनने या साँस लेने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है- एक बार हम अपने स्मृतियों से टूट कर अलग हो जाएँ तब हम यह भी भूल जाएँगे कि खाना कैसे खाया जाता है… या खेत में हल कैसे जोता जाता है. सुबह जब हम उठेंगे तब हमें यह भी याद नहीं रहेगा कि हमने पहनने वाले कपड़े कहाँ रखे हैं. हमें भरोसा होने लगेगा कि राजा कपड़ों के बगैर जब नंगा होता है तभी सुंदर लगता है.
पर आज मैं इन बातों को क्यों याद कर रहा हूं? इसकी वजह है कोविड-19- एक राष्ट्रीय और वैश्विक आपदा जिसको अभी तक वास्तव में काबू नहीं किया जा सका है… परिवार अभी भी यहाँ वहाँ बिछुड़े पड़े हैं और पूरे हुबेई, वुहान और दूसरे शहरों में ह्रदय विदारक चीत्कारें अब भी सुनाई दे रही हैं. हालाँकि यह भी सही है कि चारों तरफ विजय गान गूँज रहे हैं.. क्योंकि अपने अनुकूल आँकड़े प्रस्तुत किए जा रहे हैं. चारों ओर लाशें बिछी पड़ी हैं और लोग शोक में डूबे हुए हैं … फिर भी विजयोल्लास भरे गीत गाये जाने को तैयार हैं और लोग यह घोषणा करने के लिए तत्पर भी कि “ओह, देखो कितने बुद्धिमान और महान हैं हमारे लोग!”
जब से यह कोविड-19 हमारे जीवन में आया है तब से लेकर अब तक हमें बिल्कुल नहीं मालूम कि वास्तव में कितने लोगों की जान इसने ली- कितने लोग अस्पतालों में मर गए और अस्पतालों से बाहर कितने मर खप गए. हमें इस अफरातफरी में इसका मौका ही नहीं मिला कि हम किसी तरह की छानबीन करें और इस बारे में किसी से कोई प्रश्न पूछें…. लेकिन इससे भी बुरी बात यह है कि ऐसी छानबीन और सवाल समय के साथ धूमिल पड़ जाएँगे या भुला दिए जाएँगे और हमारे सामने यह हादसा हमेशा-हमेशा के लिए एक गूढ़ रहस्य बनकर खड़ा रहेगा. आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए हम विरासत में जीवन मरण
का ऐसा उलझा हुआ मकड़जाल छोड़ जाएँगे जिसकी किसी की स्मृति में भी कोई जगह नहीं होगी.
जब यह महामारी थोड़ा थमे और हमें दम लेने दे तब हमें शियांगलिन चाची (लू शुन के उपन्यास की एक बेवकूफ़ किसान पात्र) की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए जो हमेशा यही रट लगाए रहती थी :
“मुझे यह तो मालूम था कि सर्दियों की बर्फबारी में जंगली जानवर गाँव में घुस आएँगे और झपट्टा मारकर किसी को भी उठा ले जाएँगे क्योंकि उस समय उनके पास पहाड़ पर खाने के लिए कुछ नहीं होता… लेकिन मुझे इसका जरा भी इल्म नहीं था कि वे बसंत ऋतु में भी आ सकते हैं.”
या फिर हमें आ क्यू की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए- आ क्यू भी लू शुन के उपन्यास का एक किरदार है जो इस मुगालते में जीता था कि वह बहुत कामयाब है और दूसरों से श्रेष्ठ इंसान है… और बार-बार पिटाई खाने पर, अपमानित होने पर और यहाँ तक के मृत्यु के मुहाने पर खड़ा होकर भी चिल्लाता रहता था कि आखिर विजय हमारी ही हुई .
अतीत में और वर्तमान में भी ऐसा क्यों होता रहा है कि इंसान, परिवार, समाज, युग या देश पर एक के बाद एक विपत्ति आती रही है? और इतिहास की ये त्रासद विभीषिकाएँ एक-एक बार में हजारों लाखों सामान्य लोगों को अपना शिकार बनाती रहीं. इनके पीछे अनगिनत कारण हो सकते हैं जिनको हम जानते नहीं, जिनके बारे में हम तहकीकात नहीं करते या जिनके बारे में हमें हिदायत दी गई है कि कोई सवाल नहीं करना है (और हम उनका बड़ी शालीनता के साथ सिर झुका कर पालन भी करते हैं). इन सब के पीछे सिर्फ और सिर्फ एक फैक्टर है- मनुष्य, हम सब सामूहिक रूप में जिसके लिए मनुष्य जाति का नाम दे सकते हैं, हम सब चीटियों की तरह नाचीज़ हैं- और हम भूल जाने वाले लोग हैं, स्मृतियों को पीछे छोड़ देने वाले लोग.
हमारी स्मृतियाँ नियंत्रित की जा रही हैं, अदला बदली की जा रही हैं और मिटाई भी जा रही हैं. हम सिर्फ यह याद रखते हैं कि दूसरों ने हमें क्या-क्या याद रखने को कहा… और बड़ी मासूमियत से यह भूल जाते हैं कि भूल जाने को क्या कहा गया. जब हमें तरेर कर आंख दिखाई जाती है, हम खामोश हो जाते हैं… और जब हुक्म दिया जाता है तब जोर-जोर से गाने लगते हैं.
इस जमाने में स्मृतियाँ एक औजार की तरह हो गई हैं जिनसे सामूहिक और राष्ट्रीय स्मृतियाँ निर्मित की जाती हैं- ध्यान रहे यह निर्मिति उन्हीं से मिल कर बनती है जिन्हें हमें भूलने को कहा जाता है या याद करने को कहा जाता है.
एक उदाहरण देता हूँ – मैं उन पुरानी किताबों की धूल भरी जिल्दों की बात नहीं कर रहा हूँ जो अब अतीत का हिस्सा बन चुकी हैं बल्कि बिल्कुल आसपास की- 20 साल पहले की- जो कुछ प्रमुख घटनाएँ घटी हैं उनको याद करते हैं… वैसे घटनाएँ जो तुम्हारी तरह के 80 और 90 के दशक में पैदा हुए नौजवानों के लिए प्रासंगिक हैं और जिनके तजुर्बे को तुम याद कर सकते हो- जैसे एड्स, सार्स और कोविड-19 जैसी राष्ट्रीय आपदाएँ – ये सभी मानव निर्मित त्रासदियाँ हैं? या ऐसी प्राकृतिक आपदाएँ हैं जिनके सामने इंसान का कोई वश नहीं चलता- जैसे तांगशान या वेंचुआन के विनाशकारी भूकंप? क्या दोनों तरह की विपत्तियों में ह्यूमन फैक्टर को एक समान माना जा सकता है? क्या यह नहीं लगता कि 17 साल पहले फैली सार्स महामारी में और इन दिनों के कोविड-19 महामारी के फैलने का पैटर्न एक ही तरह का है? क्या इन दोनों घटनाओं का थिएटर डायरेक्टर एक नहीं लगता? 17 सालों के अंतराल के बाद बिल्कुल एक ही तरह का घटनाक्रम हमारी आँखों के सामने फिर से दोहराया गया है. इंसान के तौर पर हमारी हैसियत ही क्या है धूल के सिवा? हम इतने अड़ने और अक्षम हैं कि नाटक के डायरेक्टर के बारे में जान पाएँ … और न ही हमारे पास कोई ऐसा कोई कौशल है जिससे स्क्रिप्ट लिखने वाले के विचारों और धारणाओं के सूत्र पकड़ सकें.
पर क्या जब अगली बार फिर से एक बार हमारी आँखों के सामने यह मौत का नाटक दोहराया जाएगा तो हमें अपने आप से यह सवाल नहीं करना चाहिए कि पिछली बार जब ऐसा हुआ था उस समय की हमारी स्मृतियाँ कहां गुम हो गईं? हम उनके बारे में क्यों नहीं याद करते?
कोई तो होगा जिसने हमारी स्मृतियों को धो पोंछ कर मिटा डाला, लीप पोत कर सब कुछ साफ कर दिया…. कौन है वह?
सड़क पर, खेत में जो गंदगी पड़ी रहती है कूड़ा कचरा पड़ा रहता है- स्मृतिविहीन लोग वही कूड़ा कचरा हैं. उन्हें कुचलते हुए जूते मनमाफिक दिशा में निर्बाध गति से बढ़ते जा रहे हैं.
स्मृतिविहीन लोग वास्तव में लकड़ी के उन लट्ठों और तख्तों की मानिंद होते हैं जो उस पेड़ को भूल जाते हैं जिसने उन्हें पैदा किया, जीवन दिया. ध्यान रखो, ऐसे लोगों के जीवन पर कुल्हाड़ियों और आरियों का भरपूर नियंत्रण होता है और उनका भविष्य यही तय करते हैं.
यदि हम लिखने पढ़ने से प्यार करने वाले लोग, जीवन को एक अर्थ देने वाले लोग अपनी स्मृतियों से विमुख हो जाएँ – चाहे वह जीवन के स्मृतियाँ हों या रक्तपात की स्मृतियाँ- तब लिखने का मतलब ही क्या रह जाता है? साहित्य का मूल्य फिर क्या बचेगा? ऐसे में किसी समाज को लेखकों की आवश्यकता ही क्या है? आपके अथक परिश्रम और अध्यवसाय से उपजे हुए साहित्य और अनेकानेक किताबों को कठपुतलियों से अलग कैसे माना जा सकता है जब उन सब के विषय और रचना शैली को नियंत्रित कोई और कर रहा हो? यदि रिपोर्टर जो देखते हैं उसे अपनी रिपोर्ट में न लिखें, लेखक अपनी स्मृतियों और भावनाओं को अपनी रचनाओं में स्थान न दें और आम इंसान हरदम गीतात्मक शैली में पॉलिटिकल करेक्टनेस की ढपली बजाते रहें तो हाड़ मांस और रक्त प्रवाह वाले हम इंसानों को धरती पर आकर जीने का मकसद भला कौन बताएगा?
फर्ज़ करो- फांग फांग जैसे लेखक वुहान में मौजूद नहीं होते तब क्या होता? उन्होंने अपनी डायरी अपनी कलम, व्यक्तिगत स्मृतियाँ और भावनाएँ किसी दबाव में आकर इतिहास में दर्ज करने से रोकी नहीं.
ऐसा नहीं है कि फांग फांग ही ऐसा करने वाली इकलौती इंसान हैं बल्कि उनकी तरह के हजारों लाखों लोग हैं जो अपने मोबाइल के माध्यम से संकट में मदद की गुहार लगाते रहे. पर हमने क्या सुना? क्या देखा?
कभी-कभी ऐसा होता है कि हमारे दौर की अभूतपूर्व झंझा में हमारी स्मृतियों की फालतू के फोम, पागल लहर और शोर कहकर उपेक्षा की जाती है… नतीजा यह होता है कि समय की तेज धार उन आवाजों को उन शब्दों को कुचलती हुई मिटाती हुई आगे बढ़ जाती है- लगता है जैसे कभी उनका अस्तित्व था ही नहीं. समय का अभियान जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है सब कुछ धुंधला पड़ता हुआ ओझल हो जाता है. हमारा मांस हमारा लहू हमारा शरीर हमारी आत्मा सब तिरोहित हो जाते हैं यद्यपि ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है जैसे सब कुछ बिल्कुल ठीक दुरुस्त चल रहा है. ऐसे दौर में वह छोटा सा आलंब भी कहीं दिखाई नहीं पड़ता जिससे ध्वस्त होती हुईं दुनिया को सहारा देकर फिर से खड़ा किया जा सके. तब इतिहास ऐसी दंत कथाओं, भूले बिसरे और काल्पनिक किस्से कहानियों का एक संकलन बन कर रह जाता है जिनमें न तो कोई सच्चाई होती है न आधार. इस नजरिए से देखो तब समझ आएगा कि कितना जरूरी है हमारा आसपास घट रही महत्वपूर्ण घटनाओं को याद रखना और अपनी स्मृतियों को बगैर किसी हस्तक्षेप के अ संशोधित और सच्चे रूप में सुरक्षित संरक्षित रखना.
जब भी हम कभी छोटा से छोटा सच भी बोलेंगे तो इन्हीं स्मृतियों के जखीरे से हमें यथार्थता और साक्ष्य का आधार मिलेगा. सृजनात्मक लेखन के विद्यार्थियों के लिए यह बात और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. तुम में से अधिकांश लोग अपना जीवन लेखन, सत्यान्वेषण और स्मृतियों को उद्घाटित करने को समर्पित करने का सपना देखते हो. उस दिन की कल्पना करो जब हमारी तरह के लोग भी अपनी बचीखुची प्रामाणिकता और स्मृतियाँ खो देंगे ….. तो फिर क्या इस दुनिया में किसी प्रकार की निजी या ऐतिहासिक प्रामाणिकता और सत्य के बचे रहने की कोई उम्मीद शेष बचेगी?
चलो मान लेते हैं कि हमारी याददाश्त की क्षमता और संचित स्मृतियाँ दुनिया को या इसकी सच्चाई को बदलने में किसी तरह की भूमिका नहीं निभा सकतीं लेकिन जब हम केंद्रीकृत और नियंत्रित “सच” के सामने खड़े होंगे तो इतना तो निष्कर्ष निकाल ही सकते हैं कि कहीं किसी चीज पर पर्दा डाला गया है ….. या समग्र परिदृश्य से कुछ ऐसा जरूर है जो छूट रहा है. हमारे अंदर कितनी भी क्षीण आवाज हो लेकिन वह बोलेगी जरूर: “यह सच नहीं है.” कोविड-19 महामारी को ही लें तो जब हालात सुधरेंगे तब भी हमें इंसानों के, परिवारों के और हाशिए पर धकेल दिए गए समाजों के शोकाकुल क्रंदन और चीत्कार जरूर सुनाई पड़ेंगे चाहे बाहर कितना भी कानफोड़ू उत्सव और विजयोल्लास का तमाशा किया जा रहा हो.
स्मृतियाँ दुनिया बदल नहीं सकतीं लेकिन हमें वास्तव में दिलेर बनाती हैं, हममें हौसला भरती हैं.
बहुत मुमकिन है कि स्मृतियाँ हमें वास्तविकता को बदल डालने की शक्ति से लैस न कर पाएँ लेकिन जब जब झूठ से हमारा आमना सामना होगा हमारे दिलों में सवाल हूक बन कर जरूर उभरेंगी. जब भविष्य में हमारे सामने किसी दिन दूसरा “ग्रेट लीप फॉरवर्ड” अभियान आकर खड़ा हो जाएगा तो कम से कम अपने बुनियादी कॉमन सेंस के आधार पर हम समझ तो सकेंगे कि न तो रेत से लोहा बनाया जा सकता है और न ही हवा से खाद्यान्न. इसी तरह यदि “कल्चरल रिवॉल्यूशन” का दूसरा संस्करण हमारे सामने आ खड़ा हो तो हम इतना तो तय कर ही सकेंगे कि हमें अपने अभिभावकों को न तो जेल में डालने देना है और न ही फाँसी पर चढ़ने देना है.
प्यारे विद्यार्थियों, हम सभी आर्ट्स के विद्यार्थी हैं और अपना जीवन भाषा के माध्यम से यथार्थ और स्मृतियों से जुड़े रहकर बिताने को तत्पर हैं. अभी थोड़ी देर के लिए हम सामूहिक या राष्ट्रीय या जातीय स्मृतियों की बात छोड़ देते हैं और सिर्फ अपनी निजी स्मृतियों की बात करते हैं- इतिहास गवाह है कि हमेशा राष्ट्रीय और सामूहिक स्मृतियाँ हमारी निजी स्मृतियों के ऊपर अपनी लंबी चादर फैला देती हैं और अंततः मनमाफ़िक उसे बदल डालती हैं. अभी आज के इस दौर में जब कोविड-19 महामारी पूरी तरह से जीवित है और हमारी स्मृति का हिस्सा नहीं बनी है तब भी हमें विजय गीत और हर्षोल्लास के तेज ढोल नगाड़े के शोर चारों ओर सुनाई दे रहे हैं. इस पृष्ठभूमि में मुझे उम्मीद है कि आप में से हर एक नौजवान और हम सभी जिन लोगों ने कोविड-19 का अत्यंत भयावह तांडव देखा है उन इंसानों की तरह बर्ताव करेंगे जिनकी स्मृतियाँ अभी धुली-पुंछी नहीं हैं- जिनके बुनियादी अस्तित्व में स्मृतियों से फूट कर निकली स्मृतियाँ जीवित हैं.
निकट भविष्य में उम्मीद है हम यह देखेंगे कि पूरा देश कोविड-19 के ऊपर विजय के उपलक्ष में संगीत और गीतों के जश्न में झूम रहा है. मैं उम्मीद करूँगा कि हम उन खोखले लेखकों की तरह बाहर जो ढोल नगाड़े बज रहे हैं उसकी प्रतिध्वनि और भोंपू नहीं बनेंगे बल्कि अपनी स्मृतियों को पूरी प्रामाणिकता के साथ धारण कर जीवन यापन कर रहे लोगों की तरह बर्ताव करेंगे.
जब यह उत्सव अपने पूरे शबाब पर होगा तो हम स्टेज पर भागीदार अभिनेता और वाचक बन कर अपना पार्ट नहीं अदा करेंगे और न ही दर्शकों के बीच शामिल होकर करतल ध्वनि से इस तमाशे का स्वागत करेंगे. हमें यदि स्टेज पर जाना ही पड़ा तो हम किसी कोने में डबडबाई आँखों के साथ चुपचाप उदास खड़े रहेंगे. यदि हमारी प्रतिभा, साहस और मानसिक शक्ति हमें फांग फांग जैसा लेखक नहीं बना पाती तो कम से कम हम उन लोगों में कतई शामिल नहीं होंगे जो फांग फांग का मजाक बनाते हैं और उनकी सच्चाई पर संदेह करते हैं. विजय उत्सव मनाने के बाद यदि हम अमन चैन और समृद्धि की ऊँचाई हासिल कर भी लेते हैं तब भी हम ऊँचे स्वर में भले ही कोविड-19 के उत्स और प्रसार के बारे में प्रश्न न कर सकें लेकिन धीमी आवाज में या फुसफुसाहट में ही सवाल जरूर पूछेंगे- यह भी हमारी अंतरात्मा और साहस का प्रतीक है.
ऑस्चविट्ज कंसंट्रेशन कैंप के बाद कविताएँ लिखना निश्चय ही क्रूर कर्म था लेकिन यदि हम अपने शब्दों से, अपनी बातचीत से, अपनी स्मृतियों से इस क्रूरता को पोंछ डालेंगे तो यह और भी ज्यादा बर्बर कर्म होगा….कहीं ज्यादा निर्दयतापूर्ण और भयावह.
यदि हम लाई वेनलियांग जैसे व्हिसल ब्लोअर नहीं बन सकते तो कम से कम व्हिसल सुन कर चौकन्ना हो जाने वाला इंसान तो बनना ही चाहिए.
यदि हम जोर से चिल्ला कर अपनी बात नहीं कह सकते तो कम से कम फुसफुसा कर तो जरूर कहें. यदि हम फुसफुसा कर भी अपनी बात नहीं कह सकते तो कम से कम चुपचाप खड़े रहने वाले ऐसे इंसान तो जरूर बनें जिन्होंने अपनी स्मृतियाँ बचा कर रखी हैं. कोविड-19 की शुरुआत, इसके नरसंहार और फैलाव के अपने अनुभवों को अपने अंदर संजोकर रखें और जब चारों ओर सड़क चौराहों पर इस महामारी को पराजित कर देने का विजय पर्व मनाया जाए, समवेत स्वर में गीत गाते हुए मार्च किया जाए तो हमें चुपचाप सिर झुका कर किनारे खड़े हो जाना चाहिए- हम दरअसल वे लोग हैं जिनके मनों में अनगिनत कब्रें खुदी हुई हैं, मौतों की ह्रदय विदारक स्मृतियाँ अंकित हैं … हम ये तमाम बातें भूले नहीं हैं और एक न एक दिन ऐसा आएगा जिसमें हम ये तमाम स्मृतियाँ भविष्य की पीढ़ी को विरासत के रूप में सौंपकर प्रयाण कर जाएँगे.
समालोचन पत्रिका से साभार