अमित श्रीवास्तव
…
-‘स्टिलवर्किंग’? किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में उच्च ओहदे पर अवस्थित दोस्त ने फोन पर अपनी टोन में घुसी आ रही मुस्कुराहट को छुपाते हुए पूछा
– ‘या… किंडा वर्क फ्रॉम होम यू कैन से’
– ‘डोंट टेल मी. हैव यू स्विच्ड ओवर टू एनी प्राइवेट कन्सर्न ऑर वॉट? गवर्नमेंट सरवेंट एंड वर्किंग? दिस वायरस हैज़ फोर्स्ड इम्पॉसिबल टू हैपेन’
इसके बात वार्तालाप में एक लंबा पॉज़ आता है फिर वो प्रलाप शुरू हुआ जिसके ‘बीपटाइज़्ड’ पार्ट्स हटा कर और ‘गुस्से में ज़रा इधर-उधर निकल लिए’ वाक्यांशों को दुरुस्त कर यहाँ अविकल प्रस्तुत किया जा रहा है. अवलोकन करें-
गुरु अमरूद कहाँ हैं?
———————————
अस्सी के दशक से ‘बिग स्टेट’ में डेंट पड़ने शुरू हो गए थे. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की राजनीति और सोवियत विघटन जैसी बातों को किनारे रख कर भी देखें तो भी विश्व के तमाम देशों की सरकारों के काम-काज और विकास के मानकों पर बुरी तरह से फेल हो जाने की तरफ सीधे और अप्रत्यक्ष हमले शुरू हो गए थे. नब्बे तक आते-आते वेलफेयर ओरिएंटेड नेशन-स्टेट की विफलता सबसे बड़ा जुमला बन गया था. लेकिन आश्चर्य की बात ये है कि इस ‘फेलियर ऑफ स्टेट’ थ्यूरी को स्थापित करने वाले उस देश के लोग यानि जनता नहीं वरन कुछ बड़े विकसित देश और वैश्विक बहुपक्षीय संगठन थे. जनता का कोई पता-ठिकाना नहीं था. जनता अपनी सरकारों से सवाल पूछने में कहीं नहीं थी. जो पूछ रहे थे वो हमेशा की तरह असंगठित और अव्यवस्थित समूह थे. आज भी वही हैं, आमजन आज भी कहीं नहीं है इस पूछताछ प्रक्रिया में. उनके पास झुनझुने हैं, घण्टे हैं, खुद पर गालियाँ निकालने की वजूहात हैं.
इस ‘फेलियर ऑफ स्टेट’ थ्यूरी का बहुत बड़ा हाथ है उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की अवधारणा की स्थापना में. हमें यह विश्वास दिलाया गया कि सरकारी संस्थाएं (सगर्व-सशर्म इसमें सरकारी कर्मचारी स्वयं को शामिल कर लें) कुछ नहीं कर सकतीं हमारे लिए. निजी (कितनी सुंदर व्यावहारिकता है कि इस एक ‘निजी’ शब्द के साथ ‘बड़ी’ और ‘शक्तिशाली’ शब्द खुद-बखुद जुड़ गए) कम्पनियां सरकार से ज़्यादा फायदा पहुँचाएंगी. लगभग चीख कर कही गई बात के रजत वर्क पर यह भी लिखा-पढ़ा गया कि ये सरकारी उद्यमों से ज़्यादा विकासोन्मुख और वेलफेयर ओरिएंटेड हैं. इस सामाजिक बात की ताईद के लिए कुछ आर्थिक सिद्धांत परोसे गए. इसी तरह से इतने ही मज़े की बात ये है कि जिन आर्थिक सिद्धांतो पर सरकारी संस्थाओं को कसा गया वो उनके गठन के उद्देश्यों से बिल्कुल अलहदा थे. ये वही बात हुई कि आप छाया के लिए बरगद का पेड़ लगाए और एक समय के बाद उसपर यह कहते हुए आरी चलाएं कि इससे आम नहीं टपकते, इसे हटाकर अमरूद का पौधा लगा लेते हैं.
अब, जब लगभग तीन दशक इस अवधारणा की स्थापना के हो चुके हैं क्या कोई है जो इन बड़ी विशालकाय और शक्तिशाली संस्थाओं से सवाल कर सके? कोई है जो सरकारों से सवाल कर सके?
कोई है जो पूछ सके रोजगार, आर्थिक विषमता, क्षेत्रीय-भौगोलिक- सामाजिक असमानता की स्थितियों में सकारात्मक बदलाव क्यों नहीं हुआ? कोई है जो पूछ सके कि ग़रीब और गरीब क्योंकर हुआ जबकि अमीरी हर जगह फ़ैशन में है. कोई है जो पूछ सके कि इस भयानक संकट के बीच कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी का जाप करने वाली माला के मनके किन कोने अंतरों में बिला गए?
कोई है जो ये पूछ सके कि सरकारी गलियारों में स्थापित जिस भयावह भ्रष्टाचार की ओर आप नाक भौं सिकोड़े इशारे कर रहे थे वही निजी संस्थाओं में कैसे तेल-फुलेल लगाए घूम रहा है? कोई है जो पूछ सके ‘स्मार्ट गुड लुकिंग’ प्राइवेट सेक्टर अपने ही कारिंदों के लिए इतना कटु-कठोर क्यों है? कोई है जो पूछ सके कि सिटीजन से क्लाइंट से कस्टमर कहाए जाने वाला बाशिंदा कैसे-कैसे कष्टों से मर रहा है? कोई क्यों पूछेगा तब जबकि इस कष्ट को प्रसाद समझने भर का प्रमाद चढ़ाने की अफीम वो कब से चख रहा है?
मृतपाय पड़ी हुई सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था, ठुल्ले पुलिसवाले, गटरवासी सफाई कर्मी, जंग लगी ब्यूरोक्रेसी और इसी तरह की मार-तमाम सरकारी व्यवस्था और कर्मी कोरोना काल में जुते हुए हैं. इन्हीं बेकार कंधों का सहारा है इस संकटकाल में हल चलाने और निकालने का. कोई है जो सामान्य दिनों में इन बीमार व्यवस्थाओं की मिजाजपुर्सी कर सके?
ख़ैर छोड़िए…
कोई है जो बस इतना पूछ सके कि ‘तुम आम की तो छोड़ो गुरु अमरूद कहाँ हैं यही बता दो?’