बृजमोहन जोशी
कुमाऊँ के लोकप्रिय त्यौहारों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्यौहार है हर्याव (हरियाला)। इस दिन से सूर्य दक्षिण की ओर अर्थात् कर्क रेखा से मकर रेखा की ओर बढ़ने लगता है। इस कारण इसे कर्क संक्रान्ति या श्रावण संक्रान्ति भी कहते हैं। संक्रान्ति शब्द का अर्थ है सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में पहुँचना। ‘डिकरे’ इसी त्यौहार के अवसर पर पूजा के लिए बनाये जाते हैं।
डिकर-देवी-देवताओं की मिट्टी की मूर्तियाँ है, जो तीन आयाम की अथवा सपाट आधार पर उभारों द्वारा बनाई जाती हंै और पूजा के लिए इनका प्रयोग होता है। घर की महिलाओं के द्वारा चिकनी मिट्टी में रुई मिलाकर डिकरे बनाये जाते हैं। सूख जाने के बाद इन पर कमेट, मिट्टी या ‘बिस्वार’ (चावल के घोल) से तैयार सफेद रंग से लेप किया जाता है। तत्पश्चात् इन्हें गोंद मिले मिट्टी के रंगों या उपलब्ध साधारण रंगों से रंगा जाता है। इन पर चित्रकारी करने के लिए लकड़ी की तीलियों का प्रयोग किया जाता है, जिनके सिरों पर रुई बंधी रहती है। जब यह मूर्तियाँ तैयार हो जाती हैं तो इनकी सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता। इन मिट्टी की मूर्तियों की सुन्दरता इनकी सरल आकृति, भोली भाव-भंगिमा और चटख रंगों के प्रयोग के कारण बने इनके मन मोहक रूप में है। यद्यपि शरीराकृति के त्रुटिरहित सादृश्य कभी इन मूर्तियों के आकारों में दिखाई देती है, तथापि जिसने इन्हें बनाया और रंगों से सजाया उस कलाकार की सहजता, भक्ति और धार्मिक भावना की यह मूर्त अभिव्यक्ति अवश्य है जो कि दर्शकों के हृदय में अनजाने ही एक गहरी छाप छोड़ देता है। वास्तव में ये डिकरे सामूहिक अचेतन मस्तिष्क की ही अभिव्यक्ति हैं।
यह पर्व मुख्य रूप से किसानों का त्यौहार है और प्रति वर्ष शिव-पार्वती के विवाह की जयन्ती के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर मुख्य रूप से शिव, पार्वती, गणेश और कार्तिकेय तथा उनकी सहचरियों के डिकरे बनाये जाते हैं। या तो यह डिकरे एक समूह में बनाये जाते हैं या अलग-अलग। शिव और उनका परिवार सृष्टिकर्ता का प्रतीक है।
हरकाली के दिन परिवार के पुरोहित की सहायता से गृह लक्ष्मी इन डिकरों का पूजन करती है। पुरोहित संस्कृत में मंत्रोचार करता है। “हे हरकाली मैं तुम्हारे चरणों में शीश नवाता हूँ। हे देव! तुम जो सदा धान के खेतों में निवास करने वाले हो और अपने भक्तों के दुःख दूर करने वाले हो।” पूजा का शेष भाग दूसरे दिन संक्रान्ति के दिन पूरा किया जाता है।
हमारे पूर्वजों ने किसी भी ऋतु की सूचना को आसान बनाने के लिए, ऋतुओं के स्वागत की परम्परा को भी पर्व/त्यौहार बना डाला। जैसे गर्मी की शुरूआत चैत माह में तो चैत का हर्याव, वर्षा ऋतु की शुरूआत आश्विन माह में तो आश्विन का हर्याव। अर्थात वर्ष में तीन बार हरेला/हरेले का पर्व (त्यौहार) मनाया जाता है।
हरेले से दस दिन पूर्व सात प्रकार के बीज (सतनाज) जौ, गेहूँ, सरसों, मक्का, गहत, भट्ट, उड़द, की दाल पूरी परम्परागत भक्ति और रीति से मिट्टी भरी टोकरियों में बो दिए जाते हैं तथा देव स्थान में रख दिए जाते हैं। टोकरियाँ ढक दी जाती हैं जिससे इन पौधों को प्रकाश न मिल पाए और वे पीले रंग के ही रहें। प्रातः और संध्या पूजा के समय इन्हें जल दिया जाता है। लकड़ी की कुदाल से निराई-गुड़ाई का अभिनय भी किया जाता है। तत्पश्चात् उगे हुए हरेले के पौधों के समीप कई प्रकार के मौसमी फल-फूल, पकवान, व्यंजन रखे जाते हैं और उनके बीच में डिकरे स्थापित किए जाते हैं।
परिवार के मुखिया के द्वारा सबसे पहले हरेले के तृण लोक देवी-देवताओं को अर्पित किये जाते हैं। तदुपरांत हरेला युवाओं व वृद्धों द्वारा सिरों में धारण किया जाता है। कुछ हरेले के तृण गोबर के साथ घर के दरवाजे की चैखट के मध्य-शीर्ष भाग में भी लगा दिये जाते हंै।
अन्न को बोने और उसकी पूजा प्रतिष्ठा करने का अर्थ है उस प्रकृति की पूजा जो हमारे जीवन का आधार है। सतनाजों का बोया जाना जैव विविधता का द्योतक भी माना गया है। पाश्चात्य विद्वानों ने इसे ‘फर्टिलिटी कल्ट’ यानी उर्वरा कर्मकाण्ड की संज्ञा दी है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर हरेला किसानों के लिए भूमि परीक्षण का एक माध्यम भी है। इस वर्ष फसल कैसी होगी इस बात का अनुमान किसान हरेले के उगे तृणों को देखकर लगा लेते हैं। यदि यह तृण हृष्ट-पुष्ट होते हैं तो अनुमान लगा लिया जाता है कि इस वर्ष फसल अच्छी होगी और यदि तृण कमजोर हुए तो अनुमान लगा लिया जाता है कि इस वर्ष फसल साधारण होगी।
पर्यावरण की दृष्टि से भी इस दिन का विशेष महत्व है। लोक मान्यता है कि इस दिन यदि कोई भी हरी टहनी रोपित कर दी जाये तो वह लग जाती है। इसलिए किसानों के द्वारा इस दिन अनार, दाड़िम, अखरोट, नीबू, माल्टा, तथा फलों के पौधों के साथ-साथ चारा देने वाले पौधों का भी रोपण किया जाता है।
पहले हरेला त्योहार के अवसर पर, डिकरे लगभग हर घर में बनते थे। पर अब तो डिकरे बनते ही नहीं। बहुत कम लोग रह गये हैं जिन्हें डिकरों की याद है, डिकरे भुला दिये गये हैं। पर डिकरे नहीं बनना दुःख से ज्यादा आश्चर्य की बात है। लोक परम्पराओं ने समयानुसार अपना रूप बदला है। ऐपण का विकल्प ऐपण का स्टीकर आ गया हैं। लक्ष्मी के चेहरे का विकल्प बाजार में बिक रहे बने बनाये चेहर हैं, भले ही वो चेहरे दुर्गा के ही क्यों न हों। पर हरेले के डिकरों को तांे किसी भी विकल्प ने प्रतिस्थापित किया ही नहीं। खैर डिकरों का निर्माण इस पर्वतीय अंचल में वर्ष भर विभिन्न पर्वांे, संस्कारों व अनुष्ठानों के समय किया जाता है, जैसे हरताली के दिन अर्धनारीश्वर का डिकार, नंन्दाष्टमी को नंदा-सुनंदा का डिकार, बिरुड़-पंचंमंी को गंवरा-मैसर का डिकार, शिवार्चन (पार्थिव पूजन हेतु) पार्थिव लिगों का डिकार, महालक्ष्मी पूजन हेतु गन्ने की सहायता से महालक्ष्मी का डिकार, वर तथा कन्या-पक्ष द्वारा ‘लबार‘ के प्रतीक रूप में ‘समधी-समधिन‘ डिकर इत्यादि।
पूजा के उपरान्त इन डिकरों को जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। केवल समधी-समधिन के डिकरों को घर की देहलीज में फोड़ा जाता है। छोली की सामग्री (फल एवं मेवे आदि) को मिल बांटकर खा लिया जाता है।
हरेले में बनने वाले डिकरे भले ही लगभग लुप्त हो गये हैं, पर हर घर संे जुड़ी इस लोक मूर्ति कला को बचाये रखने के सार्थक प्रयास भी निरन्तर जारी हैं। इन प्रयत्नशील संस्थाओं में ‘परम्परा‘ के प्रयास महत्वपूर्ण हैं। सन 1996 से प्रयत्नरत इस संस्था का मुख्य कार्य युवाओं को लोक संस्कृति के प्रति जागरूक करना हैं। युवाओं को लोक कला की जानकारी देने के लिये ‘परम्परा‘ संस्था वर्ष भर कार्यशालाएं आयोजित करती है उदाहरण के रूप में लोक चित्रकला ‘एपण‘ की कार्यशाला, रंगवाली पिछौड़ा निर्माण की कार्यशाला, वर तथा आचार्य की चैकी निर्माण की कार्यशाला, समधि-समधन (लबार) के मूर्तियों की कार्यशाला और सबसे महत्वपूर्ण श्रावण में हरेले के त्यौहार के लिये बनने वाले डिकरों (मूर्तियों) की कार्यशाला। उम्मीद है कि यह छोटे-छोटे प्रयास, डिकारे जैसी खूबसूरत लोेेक कलाओं को जिन्दा रखने में अवश्य कामयाब होंगे।